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अमेरिका के महान संगीतकार पीट सीगर का वर्ष 1971 में वियतनाम युद्ध के दिनों में लिखा प्रतिरोध गीत, इंद्रधनुष की संतानें लंबे समय तक नार्वे में बच्चों के गीत के तौर पर लोकप्रिय रहीं, लेकिन पिछले दिनों राजधानी ओस्लो की सड़कों पर 40 हजार से अधिक लोगों ने एकबद्ध होकर पुन: इसे गाया। चर्चित गायक लिलेजोर्न निल्सेन जिन्होंने नार्वे में इस गीत को लोकप्रिय बनाया, उन्होंने इस गाने की अगुआई की। एंडर्स बेअरिंग ब्रेविक जैसे फासीवादी हत्यारे की सियासत का प्रतिरोध के लिए नार्वे की जनता का यह अपना तरीका था। दरअसल, 22 जुलाई को बम विस्फोट एवं अंधाधुंध गोलीबारी करके 77 लोगों को मारने के आरोप में इन दिनों ब्रेविक पर मुकदमा चलाया जा रहा है। हालांकि ब्रेविक अपने इस जनद्रोही कृत्य को लेकर किसी भी तरह का पश्चाताप महसूस नहीं करता। उसका यहां तक कहना है कि यदि उसे मौका मिलेगा तो वह इस काम को बार-बार अंजाम देगा। पिछले दिनों अदालत में सुनवाई के दौरान ब्रेविक ने इस गाने को अपना निशाना बनाया और कहा कि गाने की लोकप्रियता इस बात का सबूत है कि किस तरह सांस्कृतिक मार्क्सवादियों ने नार्वे के स्कूलों में घुसपैठ की है।
ब्रेविक के इस संकीर्ण नजरिया वाले बयान की प्रतिक्रिया में फेसबुक पर अलग ढंग के प्रतिरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया। गाने के बाद वहां एकत्रित तमाम लोगों ने अदालत की सीढि़यों पर उन लोगों की याद में फूल चढ़ाए जो उस हत्याकांड में मारे गए थे। याद रहे कि इस आतंकी घटना के बहाने समूची दुनिया नाजी आतंकवाद की अब तक उपेक्षित परिघटना से लंबे समय बाद रू-ब-रू हुई है, जहां जगह-जगह बहुसंख्यक समुदाय के लोग आतंकी घटनाओं को अंजाम देते पाए गए हैं। विगत नवंबर माह में अमेरिका के जार्जिया में एक अतिवादी संगठन के चार सदस्य पकड़े गए थे जिनकी योजना थी कि बंदूकों, बमों और रिसिन नामक जहर के इस्तेमाल के जरिये केंद्र एवं राज्य सरकार के अधिकारियों को मारा जाए और आतंक फैलाया जाए।
जार्जिया की घटना के खुलासे के बाद जर्मनी के गृहमंत्री हांस पीटर फ्रेडरिक ने पिछले दिनों मीडिया को बताया कि इस्लामिक अतिवादियों की तर्ज पर उनकी सरकार अब नवनाजी समूहों का भी एक राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करने की सोच रही है। नवनाजी समूहों के बारे में यह बदली नीति हाल के चंद घटनाओं के बाद सामने आई। इनसे पता चलता है कि ऐसे समूहों ने न केवल वर्ष 2000 से 2007 के बीच टर्की मूल के नौ दुकानदारों एवं एक जर्मन महिला पुलिसकर्मी को मार डाला, बल्कि कई डकैतों ने शहरों में बमबारी को भी अंजाम दिया। वैसे आज का नार्वे हमें जहां बहुसंख्यक आतंकवाद की परिघटना से रूबरू कराता है, वहीं इसके खिलाफ उठती जनता की एकजुट आवाज से भी परिचित कराता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ओस्लो की सड़कों पर बरसते पानी की परवाह किए बिना इंद्रधनुष की संतानें गाना गाकर नार्वे की जनता ने एक तरह से इस बात का ऐलान कर दिया है कि अब ब्रेविक कभी नहीं! सवाल यह उठता है कि ब्रेविक परिघटना किस हद तक दक्षिण एशिया के इस हिस्से के लिए अहमियत रखती है।
अगर हम दक्षिण एशिया के चंद देशों को देखें तो हमें यहां भी बहुसंख्यक संप्रदायों के बीच आतंकी समूहों, संगठनों अथवा शख्सियतों का उभार दिखता है। इन्हें अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों पर हमले करने, उनके प्रार्थना स्थलों को अपवित्र करने, उन्हें बम से उड़ा देने तक में कोई गुरेज नहीं। इनमें सबसे ताजा उदाहरण श्रीलंका का है जहां डंबुल्ला नामक स्थान पर बनी मस्जिद एवं मंदिर को पवित्र बौद्ध भूमि का हवाला देते हुए हटा दिया गया। बताया गया कि 20 अप्रैल को वहां बौद्ध भिक्षुओं की अगुआई में दो हजार से अधिक हुडदंगियों ने हमला किया और दावा किया कि यह एक गैर-कानूनी निर्माण है। डंबुल्ला खैरया जुम्मा मस्जिद 60 साल पुरानी है और मस्जिद के ट्रस्टियों के पास उसके निर्माण के कानूनी दस्तावेज मौजूद हैं। ऐसा ही हाल मंदिर का भी था। मगर इन प्रमाणों से इन बौद्ध भिक्षुओं की अगुआई में पहुंचे सिंहलियों को कोई लेना-देना नहीं था। उनका दावा था कि दोनों ही निर्माण पवित्र बौद्ध भूमि में बने हैं। इसलिए उन्हें हटाना ही होगा। उनकी अगुआई कर रहे बौद्ध धर्मगुरु ने कहा कि वह हिंसक समूह दरअसल श्रमदान कर रहा है। इसलिए मस्जिद के विध्वंस में सरकार को भी समर्थन देना चाहिए। यही नहीं तमाम मुस्लिम विरोधी और सिंहली-बौद्ध फेसबुक समूहों का निर्माण हुआ है, जो अन्य समुदायों के खिलाफ जहर उगल रहे हैं।
डंबुल्ला की घटना कोई अकेली घटना नहीं है। पिछले साल अनुराधापुरा में एक मुस्लिम दरगाह तबाह किया गया था। इलांगैथुराई मुहाथुवारम जिसे अब लंकापटुना कहा जाता है, वहां शिव का एक मंदिर हटाकर बौद्ध की मूर्ति रखी गई। इसी तरह कालुथारा के पश्चिम में बने फोर स्क्वेयर गास्पेल चर्च पर बौद्ध भिक्षुओं की अगुआई में लोगों ने हमला किया और पुलिस ने चर्च के संचालन पर यह कहकर पाबंदी लगा दी कि इससे शांति भंग होगी। अगर हम पाकिस्तान की बात करें तो वहां भी बहुसंख्यक समुदाय के बीच से कई किस्म की दहशत वाली कार्रवाइयां देखने-सुनने को मिलती हैं। तहरीक-ए-तालिबान और अल-कायदा के स्थानीय सदस्यों के हाथों बलूचिस्तान, सिंध, खासकर कराची, खुर्रम और उत्तरी क्षेत्रों में शियाओं पर हमले की या उन्हें मार डालने की घटनाएं सामने आई हैं। इन संगठनों में सिपाह-ए-साहबा, लश्कर-ए-झांगवी और जैश-ए-मोहम्मद के सदस्य भी शामिल हैं, जिन्हें पंजाब सरकार की कई शक्तिशाली संस्थाओं का समर्थन हासिल है। गुरिल्ला तकनीक से लैस ये समूह धार्मिक यात्राओं पर जा रहे शियाओं को अपना निशाना बनाते हैं और हर ऐसे हत्याकांड के बाद पहाड़ों में गायब हो जाते हैं। एक और मसला है, जो पाकिस्तानी मीडिया में भी जगह नहीं पाता वह है शिया आबादी वाले गांवों पर इन आतंकियों के हमले, पुरुषों की हत्या एवं महिलाओं और बच्चों का अपहरण।
बताया जाता है कि तहरीक-ए-तालिबान जैसे अन्य अतिवादी समूहों द्वारा इस सिलसिले में फतवे भी जारी किए गए हैं, जिनमें ऐसी घटनाओं को जायज ठहराया गया है। नार्वे, श्रीलंका या पाकिस्तान की तरह ही बहुधर्मीय, बहुनस्लीय, बहुभाषी भारत में बहुसंख्यक समुदायों की असहिष्णुता कई रूपों में उजागर होती है। अपने दुश्मनों को सबक सिखाने के लिए बम विस्फोट करने वाले, हथियारों से अंधाधुंध गोली चलाने वाले और पश्चातापविहीन ब्रेविक की तुलना क्या हम हिंदू चरमपंथियों से कर सकते हैं? मालेगांव बम धमाके में अल्पसंख्यकों की मौत पर अफसोस प्रकट करते साध्वी प्रज्ञा, लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित जैसे लोग आखिर किस मायने में नार्वे के ब्रेविक से अलग हैं? वैसे नार्वे से दक्षिण एशिया में एकफर्क अवश्य दिखाई देता है, वह यह कि ब्रेविक का विरोध जनस्तर पर देखा जा सकता है, जबकि इन देशों में विरोध की आवाज अभी हाशिये पर पड़ी दिखती है।
लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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