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जस्टिस सौमित्र पर महाभियोग के मायने

जागरण मेहमान कोना
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ऐसे समय जब देश भ्रष्टाचार से मुठभेड़ कर रहा है, उस बीच कोलकाता हाईकोर्ट के दागी जज सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग का प्रस्ताव पारित होना एक सुखद संकेत है। कल अगर लोकसभा भी महाभियोग प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है तो सौमित्र सेन भ्रष्टाचार के आरोप में हटाए जाने वाले भारतीय इतिहास के पहले न्यायाधीश होंगे। वैसे तो अब तक कई न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग चुके हैं और उनके खिलाफ जांच भी चल रही है, लेकिन महाभियोग की जद में फिलहाल सौमित्र सेन ही आए हैं। सेन पर कदाचार के गंभीर आरोप हैं। मामला 1993 का है, जब वह वकील थे और कोलकाता हाईकोर्ट ने उन्हें सेल और शिपिंग कॉरपोरेशन से जुड़े एक विवाद में रिसीवर नियुक्त किया था। उन पर आरोप है कि उन्होंने रिसीवर के खाते में से पैसा निकालकर अपने निजी फायदे के लिए एक कंपनी में निवेश कर दिया। मामला उस समय और गंभीर हो गया, जब सेन 2003 में हाईकोर्ट के न्यायाधीश बने और उन्होंने सारे तथ्यों को न्यायालय से छिपाने की कोशिश की। अब जब मामला सतह पर आ गया है और उनके विरुद्ध राज्यसभा के बाद लोकसभा में भी महाभियोग का प्रस्ताव पारित होना तय है तो वे अपने बचाव में आधारहीन तर्क गढ़ते देखे जा रहे हैं। सेन की यह दलील हास्यास्पद लगती है कि धन को एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित करना अपराध नहीं है। एक न्यायाधीश के तौर पर सेन की यह दलील अपनी खाल बचाने की महज कोशिश भर है।


राज्यसभा के सदस्यों ने सेन के इस कृत्य को गबन का मामला मानते हुए महाभियोग प्रस्ताव के पक्ष में 189 मत दिए हैं, जबकि सेन के पक्ष में सिर्फ 17 मत ही पड़े। बहुजन समाज पार्टी ने सौमित्र सेन के पक्ष में मतदान किया है, लेकिन बसपा के मतदान से सौमित्र सेन को कोई तात्कालिक लाभ मिलने वाला नहीं है। सदस्यों का बहुमत सौमित्र सेन को कदाचार का आरोपी ही स्वीकार करता है। महाभियोग प्रस्ताव पर हुई बहस से एक बात और साफ हो गई है कि सरकार और विपक्ष दोनों ही न्यायपालिका की सक्रियता से खार खाए हुए हैं और वे सौमित्र सेन के भ्रष्टाचार के बहाने न्यायपालिका को अपनी सर्वोच्चता का अहसास कराने से चूकने वाले नहीं हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली द्वारा महाभियोग प्रस्ताव पर जिस तरह बहस को मोड़ दिया गया, उसे देखकर तो कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। जेटली ने भी सरकारी नुमाइंदों की तरह न्यायपालिका को अपने हद में रहने की सलाह दी है। उन्होंने कहा कि देश में उदारीकरण आएगा या नहीं, सरकार माओवादियों से कैसे निपटेगी, यह काम सरकार का है, न कि न्यायपालिका का। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि हाल की कुछ घटनाओं में उच्चतम न्यायालय की भूमिका गलत रही है और उससे साफ लगता है कि न्यायपालिका की तरफ से कार्यपालिका पर अतिक्रमण हो रहा है।


हालांकि सरकार के नुमाइंदे इस तरह की भाषा का प्रयोग पहले भी कई दफा कर चुके हैं, लेकिन अब जब विपक्ष भी यही भाषा बोलने लगा है तो तय है कि सौमित्र सेन के भ्रष्टाचार के बहाने सरकार न्यायपालिका पर हमले तेज करेगी, लेकिन यह स्थिति आदर्श नहीं कही जा सकती है। इसलिए कि अगर न्यायपालिका की सक्रियता बढ़ी है तो इसके लिए सरकार की लचर कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार है। अगर सरकार अपने कर्तव्यों का उचित निर्वहन नहीं करती है तो न्यायपालिका अपनी आंख कैसे बंद कर सकती है? हालांकि माकपा नेता सीताराम येचुरी ने समझदारी भरी बात कही है कि महाभियोग के इस प्रस्ताव को न्यायपालिका की ईमानदारी के खिलाफ न समझा जाए, बल्कि यह उस न्यायपालिका को और मजबूत ही करेगा, जिस पर एक न्यायाधीश के कदाचार के कारण कीचड़ उछला है। यह सच है कि आज जीवन के विविध क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का दीमक जड़ों को लगातार खोखला करता जा रहा है और न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं रह गई है। पिछले दिनों खुद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार भी किया जा चुका है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार बढ़ा है, लेकिन देखा जाए तो न्यायपालिका में सौमित्र सेन भ्रष्टाचार की इकलौती मूरत नहीं हैं। इससे पहले भी भ्रष्टाचार की कहानी सुनने को मिलती रही है। 1993 में सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस वी रामास्वामी को महाभियोग का सामना करना पड़ा था। उनके ऊपर भी पद के दुरुपयोग का गंभीर आरोप था। जब महाभियोग द्वारा उन्हें हटाने की बात चली और लोकसभा में संकल्प पर मतदान हुआ तो तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने मतदान में भाग नहीं लिया। दो-तिहाई बहुमत न मिलने के कारण संकल्प प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। मतदान से दूर रहकर कांग्रेस पार्टी ने एक भ्रष्ट न्यायधीश को महाभियोग से बचा लिया।


कांग्रेस की इस रीति-नीति से संसद, संविधान और न्यायपालिका तीनों संस्थाओं की प्रतिष्ठा पर गहरा आघात लगा। आज उसी तरह की भूमिका बहुजन समाज पार्टी भी निभाती देखी जा रही है। उसके सभी संासद सौमित्र सेन के पक्ष में मतदान करते देखे गए। ऐसे में आश्चर्य लगता है कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को समर्थन देने वाली मायावती आखिर किन कारणों से सौमित्र सेन के बचाव में खड़ी हैं। सौमित्र सेन का जो होना है, वह तो होगा ही, लेकिन भविष्य में बहुजन समाज पार्टी को अपनी भूमिका पर प्रायश्चित तो करना ही होगा। इतिहास और वर्तमान को समेटकर देखें तो कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के बुनियादी चरित्र में कोई विशेष अंतर नहीं दिख रहा है। दोनों का सियासी चरित्र एक ही धागे से बुना हुआ है। आज की तारीख में सौमित्र सेन के भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर कांग्रेस पार्टी कमर कस रही है तो यह उसकी मजबूरी ही कही जाएगी। इसलिए कि एक ओर जहां अन्ना हजारे भ्रष्टाचार को लेकर सरकार की रीढ़ पर हथौड़ा पीट रहे हैं तो वही सर्वोच्च न्यायालय कालेधन और भ्रष्टाचार के मसले पर सरकार की लगातार खिंचाई कर रहा है। सच मानिए, अगर देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की आंधी नहीं चल रही होती तो कांग्रेस पार्टी सौमित्र सेन मामले में अपनी मुखरता नहीं दिखाती। लेकिन आज कांग्रेस को सौमित्र सेन के बहाने भ्रष्टाचार पर हमला बोलने का बेहतरीन मौका मिल गया है, जिसे वह किसी कीमत पर गवाना नहीं चाहेगी।


आमतौर पर कांग्रेस पार्टी न्यायालय को अपना पिछलग्गू बनाए रखना चाहती है। इसकी बानगी देखी जा सकती है। 25 अप्रैल 1973 को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए निर्णय के कुछ घंटे बाद ही इंदिरा गांधी की सरकार ने अप्रत्याशित ढंग से 22 साल की परंपरा को तोड़ते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता क्रम की उपेक्षा कर डाली और न्यायमूर्ति अजितनाथ राय को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया। आखिर तत्कालीन सरकार के इस आचरण को क्या कहा जाएगा? क्या इस तरह की नियुक्ति पाए न्यायाधीशों से ईमानदारी और न्याय की अपेक्षा की जा सकती है? सच तो यह भी है कि अगर आज तक दागी न्यायाधीश दंड से बचते रहे हैं तो इसके लिए काफी हद तक सरकार ही जिम्मेदार रही है। मजे वाली बात तो यह है कि दागियों में से ही कुछ को सरकारों ने सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देकर उपकृत भी किया है, लेकिन यह स्थिति आदर्श न्याय व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है।


ताजा मामला भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन का है, जिन पर गंभीर आरोप लगे हैं। फिर भी वे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बने हुए हैं। ऐसे में राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के विचार उचित ही प्रतीत होते हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों को सरकार जिम्मेदारी वाला कोई पद न दे, क्योंकि इसके दुष्प्रभाव अब देखने को मिल रहे हैं। साथ ही उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाए जाने की सलाह भी दी है, जिसमें न्यायपालिका के अलावा कार्यपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोग शामिल हों। बेशक, यह सुझाव उचित है। लेकिन अहम सवाल यह है कि सरकार और विपक्ष द्वारा जुबानी जमाखर्ची कब तक दिखाई जाएगी। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने की बात आज से नहीं, एक जमाने से की जा रही है, लेकिन इस दिशा में सरकार और विपक्ष दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सके हैं। फिर कैसे न विश्वास किया जाए कि सौमित्र सेन जैसे लोग न्यायपालिका को शर्मसार करने से बाज नहीं आएंगे।


लेखक अरविंद कुमार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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