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देश का ध्रुवीकरण करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा और स्थानीय संकीर्णता को उभारने वाले तेलंगाना आंदोलन के बीच भारत पूंजीवाद के विरुद्ध अमेरिका और यूरोप में सतह पर आए आंदोलन को विस्मृत कर रहा है। सारे अमेरिका और यूरोप में लोभी बैंकरों, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और कुशासन कर रहे प्रशासकों के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं। यह पूंजीवाद के विरुद्ध एक बगावत है, किंतु हालात साम्यवाद के लिए भी बेहतर नहीं हैं। पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने टिप्पणी की है कि साम्यवाद बदले, अन्यथा नष्ट हो जाएगा। वह माकपा से संबंधित हैं, जिसे राज्य में लगभग 35 वर्ष के शासन के बाद सत्ता से धकिया दिया गया है। मुख्य साम्यवादी स्तंभ तो 1990 में तब ध्वस्त हो गया था जब सोवियत संघ टूट गया था और पश्चिम शीतयुद्ध में विजयी हो गया था। चीन प्रगति कर रहा है-इसीलिए नहीं कि वह कम्युनिस्ट विचारधारा का अनुगमन कर रहा है, अपितु इस कारण कि वह पूंजीवाद के पथ पर बढ़ रहा है, जिसका तात्पर्य है किसी भी राह, किसी भी कीमत पर प्रगति। चीन में कोई अवहेलना या अवज्ञा सहन नहीं की जाती।
पूंजीवाद तब प्रगति का द्योतक लगा था जब उसने सामंतवाद को अपदस्थ किया था, किंतु आज वह सामान्य जन को कुचल रहा है, क्योंकि वह वैसा ही शोषक है जैसा कि सामंतवाद। जो शीर्ष पर हैं वे विकास के लाभ उठा रहे हैं और ऐसी तकनीक को विकसित कर रहे हैं जिसमें लाभ का मार्जिन तो बढ़ता है, लेकिन रोजगार कम होते हैं। भारत को सीख लेनी चाहिए थी, किंतु वह ठीक वही कर रहा है जो कुछ पश्चिम ने किया और असफलता झेली है। राष्ट्रीय सांख्यिकी सर्वेक्षण संगठन ने बताया कि वृद्धि का सिलसिला आठ प्रतिशत के लगभग पहुंच कर ठहर गया है, जबकि रोजगार में वृद्धि का प्रतिशत शून्य है। स्पष्ट है कि धनी और अधिक धनी हुए हैं और गरीब और ज्यादा गरीब हो गए हैं।
तथ्य यह है कि पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों विचारधाराएं ही अपनी उपयोगिता गंवा चुकी हैं। वे लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं करतीं। सत्य है कि भारत के कम्युनिस्ट लोकतांत्रिक धारा में शामिल हुए हैं, किंतु इसमें रणनीति ही अधिक है। अन्यथा वे मार्क्सवादी नारों और ज्ञान में ही डूबे रहे हैं। कोलकाता में माकपा पोलित ब्यूरो कार्यालय में अभी भी मार्क्स, एंजिल्स, स्टालिन और लेनिन के आदमकद चित्र दीवारों पर टंगे हुए हैं। कम्युनिस्ट एक कल्पना लोक में ही विचरते हैं और सोचते हैं कि दुनिया एक दिन उनका ही सहारा चाहेगी। सोवियत संघ के पराभव ने उन्हें हिला दिया तो उन्होंने परिवर्तन का संकल्प लिया, किंतु वे अपनी दकियानूसी सोच और कठोर राह पर चलने को ही वरीयता देते रहे। सोमनाथ चटर्जी को इसलिए पार्टी से धकिया दिया गया था, क्योंकि उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के तौर पर स्वतंत्रता से कार्य किया था, जबकि माकपा ने चाहा था कि वह एक पक्ष के तौर पर कार्य करें। पार्टी ने यह जानने का भी कष्ट नहीं उठाया कि बुद्धदेव ने पोलित ब्यूरो में क्यों भाग नहीं लिया? यह रवैया अन्य देशों के उन कम्युनिस्टों से अलग नहीं है जिन्हें इतिहास के कूड़ेदान में धकेल दिया गया है। सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने अपनी असफलता का इस आधार पर स्पष्टीकरण दिया था कि वह देश को एक नहीं रख सके, किंतु उन्होंने यह अनुभूत नहीं किया कि लोगों को श्रृंखलाबद्ध स्थिति में एकजुट नहीं रखा जा सकता। मैं अभी भी यह सोचता हूं कि किसी दिन कम्युनिस्ट आत्मचिंतन करेंगे और भूलों का परिमार्जन करेंगे। उन्हें अब तक ऐसा कर लेना चाहिए था, किंतु दुर्भाग्य से 2004 में उन्होंने 60 सीटें जीतीं और इस भ्रामक संतोष में लिप्त हो गए कि कांग्रेस नीत सरकार से जुड़कर वे सत्ता सुख पा लेंगे।
कार्ल मार्क्स के विचार आज भी उनके प्रासंगिक हैं। उनके सिद्धांत के माध्यम से कोई ऐतिहासिक और सामाजिक परिवर्तन को समझ सकता है, परंतु वह समझ तब किसी खास काम नहीं आ सकती जब उनका दर्शन बदलाव का इंजन बनने की शक्ति खो बैठता है। साम्यवाद के साथ वास्तविक समस्या यह है कि वह एक अन्य धर्म बन गया है। विचारधारा और धर्म एक बिंदु तक ही हमारी यात्रा में सहायक बन सकते हैं, परंतु तदंतर हमारी आस्था उस पद्धति के प्रति होनी चाहिए जो रोजगार के साथ-साथ हमारी अन्य जरूरतें पूरी कर सके। इसका यह अर्थ नहीं है कि पूंजीवाद बेहतर विकल्प है।
दरअसल सामाजिक लोकतंत्र ही एकमात्र विकल्प है। यह आजादी देता है और फिर बहुमत को वर्चस्वी भी होने देता है। समस्या यह है कि लोग अपने अधिकारों पर तो जोर देते हैं परंतु अपने कर्तव्य की ओर ध्यान नहीं देते। हालांकि एक शीर्ष अर्थशास्त्री हमारे प्रधानमंत्री है, किंतु ऐसा वित्तीय संकट कभी उपस्थित नहीं हुआ था जैसा कि आज हम झेल रहे हैं। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को भी उपाय नजर नहीं आ रहा है कि स्थिति से कैसे निपटा जाए? उनके व उनकी सरकार के साथ कठिनाई यह है कि वह अभी भी विश्व बैंक के मॉडल का अनुगमन कर रहे हैं। जो कागज पर तो प्रभावोत्पादक लग सकता है, किंतु जब उसका क्रियान्वयन हो तो वह भयावह सिद्ध होता है। भारत को पूंजीवाद, साम्यवाद या किसी अन्य वाद के सहारे नहीं रहना चाहिए। हमें महात्मा गांधी से सीख लेनी होगी, जो मशीनों से चमत्कृत नहीं हुए थे। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया जाए। चुनौती यह है कि रोजगारों में कमी किए बिना विकास को कैसे कायम रखा जाए। हमें एक ऐसी विचारधारा के बारे में सोचना होगा जो हमारी प्रतिभा के अनुरूप हो। प्रारंभिक बिंदु हो सकती है महात्मा गांधी की यह सलाह कि हमें अपनी जरूरतों में कटौती करनी चाहिए। भारत ऐसे जीवन स्तर को नहीं अपना सकता जो कुछ लोगों को ही उपलब्ध है।
लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं
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