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अमर सिंह की जेल यात्रा के मायने

जागरण मेहमान कोना
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Umeshसरकार बचनी थी कांग्रेस की। बचाने को लेकर परेशान थे अमर सिंह। उस समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह, जिसका संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से कोई औपचारिक रिश्ता भी नहीं था। संप्रग सरकार का साथ दे रही वामपंथी पार्टियों ने अमेरिका से परमाणु समझौते के बाद अपनी बैसाखी खींच ली थी और तब अमर सिंह अपना कंधा देने के लिए साथ आ खड़े हुए थे। न सिर्फ साथ आए, बल्कि उन्होंने जोर लगाकर सरकार बचाने की कामयाब कोशिश भी की। जुलाई 2008 में जब देश की राजधानी दिल्ली में तेजी से राजनीतिक घटनाएं घट रही थीं, तब भी यह सवाल जोर-शोर से उठा था कि आखिर क्या वजह है कि अमर सिंह उस सरकार को बचाने की जोर-शोर से कोशिश कर रहे हैं, जिससे उनकी पार्टी का कोई औपचारिक रिश्ता भी नहीं है। सवाल यह भी था कि जिन वामपंथी पार्टियों ने अमर सिंह के तब के नेता मुलायम सिंह को धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा अलंबरदार मानकर कदम दर कदम सहयोग किया, उनके विरोध में आखिर अमर सिंह क्यों कूद पड़े हैं। इन सवालों के ऑन रिकॉर्ड जवाब अभी तक तो नहीं मिल पाए हैं, लेकिन जनश्रुतियों और राजनीतिक गलियारों में इसे लेकर चर्चाएं होती रहीं।


वामपंथी दलों ने जब सरकार से अपना समर्थन वापस लिया था तो उन्हें तथाकथित धर्मनिरपेक्ष अपने पुराने दोस्त के सहयोग की भी उम्मीद थी। लेकिन विश्वास मत के दौरान समाजवादी पार्टी भी अपने उस दोस्त के साथ नजर नहीं आई, जिसने 1996 में मुलायम सिंह को देश के प्रधानमंत्री पद पर पहुंचाने की जबर्दस्त कोशिश की थी। अगर हरकिशन सिंह सुरजीत की कोशिशें कामयाब हो गई होतीं तो मुलायम सिंह यादव देश के प्रधानमंत्री बन ही जाते। जिन वामपंथी पार्टियों ने समाजवादी पार्टी के पक्ष में इतना जोर लगा रखा था, अहम राजनीतिक मौके पर उसका साथ छोड़ जाना कितना चुभा होगा। बहरहाल, तब भी निशाने पर अमर सिंह ही थे। संयोग देखिए कि इस घटनाक्रम के कुछ ही महीने पहले अमर सिंह ने अमेरिका की यात्रा की थी, उस यात्रा पर भी सवाल उठे, क्योंकि इस यात्रा के बाद ही समाजवादी पार्टी का रुख बदल गया था और वह अपने पुराने और मजबूत वामपंथी पार्टियों का साथ छोड़कर उस कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई थी, जिसके खिलाफ ही उसकी पूरी राजनीति परवान चढ़ती रही है।


अमर सिंह की इस कोशिश से पहले उनकी राजनीतिक यात्रा पर एक नजर डालनी चाहिए। दरअसल, अमर सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत कांग्रेस के साथ ही की थी। वरिष्ठ पत्रकार उदयन शर्मा की श्रद्धांजलि सभा में खुद अमर सिंह ही स्वीकार कर चुके हैं कि उन्होंने कांग्रेस का झंडा उठाकर ही राजनीति की शुरुआत की थी। कोलकाता में सुब्रत भट्टाचार्य के साथ शुरू हुई अमर सिंह की यह यात्रा अर्जुन सिंह के साथ जु़ड़ गई। 1991 में उन्हें उम्मीद थी कि मध्य प्रदेश की क्षत्रिय बहुल सीट गुना से उन्हें कांग्रेस का टिकट मिलेगा, लेकिन अमर सिंह को टिकट नहीं मिला और उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया। राजनीति की दुनिया में आकाश की ऊंचाइयां नापने की ख्वाहिश पाले अमर सिंह को तब मुलायम सिंह ने पनाह दी। मुलायम सिंह के साथ से जितना अमर सिंह को फायदा हुआ, मुलायम को राजनीतिक तौर पर उतना ही घाटा हुआ। उत्तर प्रदेश की राजनीति का धरती पुत्र अपनी माटी और अपने ही समाजवादी मित्रों से लगातार दूर होता गया। समाजवाद पर ग्लैमर का चश्मा चढ़ता गया।


समाजवादी पार्टी में फिल्म और ग्लैमर की दुनिया का हवाई दर्शन अमर सिंह की वजह से ही संभव हुआ। तब अमर सिंह समाजवादी पार्टी को ग्लैमर के जरिए राजनीतिक आकाश नापने की राह अपनाने को समझाने में कामयाब रहे। शुरू की राजनीतिक सफलताओं से अमर सिंह की इस राजनीति को लेकर समाजवादी पार्टी में मुखर विरोध तो नहीं हो पाया, लेकिन समाजवाद से विचलन से पार्टी के अंदर विक्षोभ बढ़ता गया। और जब उत्तर प्रदेश के चुनावों में पार्टी को हार मिली तो अमर सिंह की राजनीति पर समाजवादी पार्टी में सवाल उठने शुरू हुए। वहीं से उनके राजनीतिक पराभव का दौर शुरू हुआ। समाजवादी पार्टी से बाहर निकलने के बाद से अमर सिंह राजनीतिक तौर पर किनारे हैं। इस पूरे दौर में अमर सिंह खुद भले ही मंत्री नहीं बन पाए, लेकिन किंग मेकर की भूमिका में भी उन्हें रस आने लगा। राजनीतिक तौर पर लोगों को सहयोग देने-दिलाने में उन्हें अपना राजनीतिक रसूख नजर आने लगा। मध्यकालीन राजपूत जमींदारों के जो गुणसूत्र उनके अंदर पीढ़ी दर पीढ़ी आ रहे थे, वे जाग गए।


अमर सिंह को इन्हीं कामों में राजपूती शान नजर आने लगी। लोग तो मानते हैं कि इन कामों में अमर सिंह को पैसे भी मिले होंगे। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो अमर ही जानें। लेकिन शायद उनका पुराना कांग्रेस प्रेम ही वजह रहा कि उन्होंने जुलाई 2008 में कांग्रेस सरकार के संकट में आने के बाद उसे बचाने के लिए यज्ञ में खुद को झोंक दिया। इसके लिए अच्छे-बुरे का खयाल नहीं किया, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है। अब अमर सिंह जेल में हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि अमर सिंह जैसे राजनेता को पता नहीं होगा कि जो कदम वे उठा रहे हैं, उसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। हो सकता है कि अमर सिंह को लगा होगा कि जिस कांग्रेस सरकार को बचाने के लिए उन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया, ऐन वक्त पर वह उनके साथ खड़ी होगी। यह न मानने की कोई वजह नहीं है कि अमर सिंह ने सबकुछ अपनी पहल पर किया। जिस कांग्रेस पार्टी की सरकार को फायदा हुआ, उसके किसी नेता की सांसदों की खरीद-फरोख्त में भूमिका नहीं रही होगी। यह कैसे मान लिया जाए। अगर मान भी लेते हैं कि कांग्रेस के किसी नेता की सलाह की बजाय खुद की पहल पर उसकी सरकार बचाने की कोशिश की तो फिर सवाल यह भी उठता है कि आखिर कौन-सा पेच है, जिसकी वजह से अमर सिंह को मैदान में उतरना पड़ा। आखिर उनकी कौन-सी कमजोर नस है, जिसे सत्ता के लोग जानते हैं और अमर सिंह को उसके जरिए दबाए जाने का अंदेशा है व जिसकी वजह से वे खुद की पहल पर सरकार बचाने की कवायद में जुट गए। बहरहाल, अमर सिंह की इस जेल यात्रा से पूर्वाचल विकास मोर्चा के बैनर तले उत्तर प्रदेश के अगले विधानसभा चुनाव में अपनी पैठ बनाने की उनकी कोशिशों को अब झटका लगना तय है। अमर सिंह की कोशिश पूर्वी उत्तर प्रदेश में ठाकुर वोटरों को गोलबंद करके समाजवादी पार्टी को नुकसान पहुंचाने की रही है, लेकिन अब उनकी यह राजनीतिक कोशिश शायद ही सिरे से चढ़ पाए।


राजनीति में उगते सूरज को सलाम करने की परंपरा रही है। अमर सिंह की जेल यात्रा ने उनके इस रसूख को कम कर दिया है। फिलहाल वे बेहद अकेले नजर आ रहे हैं। अदालती चाबुक से जेल जाने के बाद अमर सिंह को समझ में आ गया होगा कि राजनीति की जिस नश्वर दुनिया को वे अपना मान बैठे थे, वह नश्वर ही नहीं, नाशुक्रा भी है। कांग्रेस का एक भी जिम्मेदार नेता अमर सिंह के बचाव में अब तक नहीं उतरा है। उल्टे सरकार के प्रवक्ता सफाई ही दे रहे हैं कि उनकी सरकार को चालीस से ज्यादा वोटों का बहुमत मिला। लिहाजा, उन्हें ऐसे किसी ऑपरेशन की जरूरत ही नहीं थी, जिसके जरिए वोटों की खरीद-फरोख्त की जाए और सांसदों को सरकार के पक्ष में वोट डालने के लिए तैयार किया जाए। कई बार बेहद अकेलापन शख्सियत को मजबूरियों से बाहर निकलने और खुलकर बोलने को भी मजबूर करता है। तो क्या मान लिया जाए कि अमर सिंह की जेल यात्रा के बाद 2008 की जुलाई में घटी राजनीतिक ड्राइंग रूमों की हकीकत सामने आ सकती है। 2008 की राजनीतिक लड़ाई में शिकस्त खा चुकी भारतीय जनता पार्टी तब से इसी खुलासे की उम्मीद में है। अमर सिंह की गिरफ्तारी के बाद उसका पूरा जोर इसी बात पर है कि अब अमर सिंह को पूरी सच्चाई बता देनी चाहिए, लेकिन क्या ऐसा संभव हो पाएगा। कम से कम मौजूदा राजनीतिक हालात से तो ऐसे संकेत नहीं मिल रहे।


लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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