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सबक न सीखने वाली सत्ता

जागरण मेहमान कोना
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Balbir Punjसार्वजनिक जीवन में अति संयमी लालकृष्ण आडवाणी का धैर्य विगत गुरुवार को संसद में जवाब दे गया। चालीस साल के सार्वजनिक जीवन में उन्होंने पहली बार प्रश्नकाल स्थगित कर ‘नोट के बदले वोट’ कांड पर चर्चा कराने का नोटिस दिया था। जुलाई, 2008 में भाजपा के सांसद फगन सिंह कुलस्ते, महावीर सिंह भगौरा और अशोक अर्गल ने संसद में नोटों की गड्डियां दिखाते हुए बताया था कि संप्रग सरकार को विश्वासमत से बचाने के लिए उन्हें खरीदने की कोशिश की गई। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों में से फगन सिंह कुलस्ते और महावीर भगौरा को हाल में दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने से आडवाणी का उत्तेजित होना स्वाभाविक था। उन्होंने कहा कि विपक्ष का नेता होने के नाते उन्हें अपनी पार्टी के सांसदों के बारे में पता था, जिन्होंने इस कांड का खुलासा कर न केवल अपनी ईमानदारी का परिचय दिया, बल्कि लोकतंत्र की सेवा करने के साथ सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भी रक्षा की। यदि भ्रष्टाचार को उजागर करना अपराध है तो वे सबसे बड़े दोषी हैं और इसके लिए उन्हें भी गिरफ्तार किया जाए।


भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन का प्रथम चरण ‘तंत्र पर लोक’ की जीत के साथ खत्म हुआ है, किंतु इससे सत्ता अधिष्ठान ने संभवत: कोई सबक नहीं लिया है। बाबा रामदेव के बाद सरकार ने अन्ना हजारे के दमन का भी निर्णय लिया था, किंतु व्यापक जनाक्रोश को देखते हुए उसे अपने कदम पीछे करने पड़े। वस्तुत: सरकार अपने भ्रष्ट आचरण के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचलना चाहती है। नोट के बदले वोट कांड का खुलासा करने वालों की गिरफ्तारी सरकार के इसी निरंकुश व अलोकतांत्रिक रवैये को रेखांकित करती है। जिन्होंने लोकतंत्र को शर्मसार करने वाले इस कांड का खुलासा किया उन्हें तो गिरफ्तार कर लिया गया और जो इसके असली लाभार्थी थे वे मलाई खा रहे हैं। यदि व्यवस्था तंत्र ईमानदार होता तो सार्वजनिक जीवन में शुचिता की रक्षा करने वालों को सम्मानित किया होता। प्रजातांत्रिक देशों में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को कानून संरक्षण प्रदान करता है। इसके विपरीत, भारत का सत्ता अधिष्ठान ऐसे लोगों को इस दलील पर दंडित करना चाहता है कि उन्होंने पुलिस को सूचित करने की जगह रिश्वत स्वीकार कर ली।


क्या इन सांसदों ने निजी उपभोग के लिए रिश्वत ली थी? क्या इस बात का कोई दावा कर सकता है कि सत्ता अधिष्ठान के शीर्ष स्तर पर जो साजिश रची जा रही हो उसकी सूचना देने पर एक पुलिस अधिकारी को ईमानदारीपूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करने का अवसर मिल पाता? क्या यह सत्य नहीं कि उपरोक्त सांसदों ने एक न्यूज चैनल द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन का हिस्सा बनते हुए रिश्वत देने वाले चेहरों को नंगा किया था? मनमोहन सिंह की अल्पमत सरकार को बचाने के लिए शीर्ष स्तर पर जो खेल रचा गया उसका खुलासा करने के लिए सांसदों को रिश्वत की राशि संसद के पटल पर रखने के अतिरिक्त और क्या विकल्प था?


करीब तीन सालों तक दिल्ली पुलिस इस विषय में खामोश बैठी रही। सर्वोच्च न्यायालय का चाबुक पड़ने के बाद वह हरकत में आई, किंतु कानून और सत्य के पक्ष में खड़े होने के बजाए उसने उन्हीं लोगों को लाभान्वित किया जिन्होंने लोकतंत्र को कलंकित करने वाली इस घटना की व्यूहरचना की। नोट के बदले वोट के लिए भाजपा के तीन सांसदों को रिश्वत देने के आरोप में सपा के तत्कालीन सांसद अमर सिंह को भ्रष्टाचार निरोधी कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है। क्या यह सत्य नहीं कि अमर सिंह इस पूरे खेल का एक मुखौटा मात्र हैं? सरकार बचाने के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था, इसलिए स्वाभाविक है कि रिश्वत में दिया धन भी अमर सिंह का निजी धन नहीं हो सकता। असली सूत्रधार वे लोग हैं जिन्हें रिश्वत के बदले मिलने वाले मत से लाभ पहुंचना था। इसलिए घूस की रकम का श्चोत भी वही थे। क्या अमर सिंह की गिरफ्तारी से लोकतंत्र को कलंकित करने वाले इस कांड का न्यायसंगत अंत संभव है?


कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे को ‘सिर से पैर तक भ्रष्ट’ बताने वाले अपने बयान को जन दबाव में भले ही वापस ले लिया हो, किंतु टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल के पीछे आयकर विभाग का टूट पड़ना सत्ता अधिष्ठान की दमनात्मक प्रवृत्ति की ही पुष्टि करता है। टीम अन्ना से जुड़े अधिवक्ता पिता-पुत्र पर सरकार अवैध रूप से जमीन हड़पने का झूठा आरोप लगा चुकी है। विदेशों में जमा कालेधन की वापसी को लेकर आंदोलन करने वाले स्वामी रामदेव के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय का हाथ धोकर पीछे पड़ना सत्ता अधिष्ठान द्वारा संवैधानिक निकायों के दुरुपयोग का ज्वलंत प्रमाण है। इससे बड़ी हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है कि ऐसी सरकार खुद को सार्वजनिक जीवन में शुचिता और लोकतंत्र की सबसे बड़ा झंडाबरदार होने का दावा करे। वह संसद के सर्वोच्च होने का दंभ भरती है, किंतु 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में कसूरवार मंत्री को तब तक बचाती रही जब तक न्यायपालिका ने उसे कड़ी फटकार नहीं लगाई। भारत के सबसे बड़े करचोर हसन अली के मामले में न्यायपालिका के समक्ष सरकार अपनी विश्वसनीयता पहले ही गंवा बैठी है। इस देश से धन चुराकर विदेशों में जमा करने वाले हसन अली का तो सरकार वषरें बचाव करती रही, किंतु उस काले धन की वापसी की मांग करने वाले बाबा रामदेव को अनशन के तीन महीने के अंदर ही प्रवर्तन निदेशालय का नोटिस थमा दिया गया। अन्ना हजारे को कानून तोड़ने की आशंका मात्र पर गिरफ्तार कर लिया गया, किंतु राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में मची लूट के लिए शुंगलू समिति के बाद महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट में कठघरे में खड़ी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को सरकार का अभयदान प्राप्त है।


संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में सार्वजनिक धन की लूट हजारों करोड़ में है, किंतु सन 2008 के ‘नोट के बदले वोट’ से लोकतांत्रिक मूल्यों को जो क्षति पहुंची और उसकी व्यूहरचना व क्रियान्वयन में जिन ताकतवर लोगों की संलिप्तता है उसके कारण यह इन सबसे बड़ा घोटाला है। किसी अनसुलझे अपराध में असली लाभार्थी को ही प्रमुख कसूरवार माना जाता है। इस कांड का असली लाभार्थी कौन है? अपनी पार्टी के व्हिप का उल्लंघन करते हुए 19 सांसदों ने क्यों पाला बदल लिया, जिसके कारण विश्वासमत जीतने में सरकार कामयाब हो पाई? लोकनायक जयप्रकाश नारायण की तरह केजरीवाल, रामदेव, भूषणद्वय, कुलस्ते, भगौरा और अर्गल के पीछे सरकारी जांच एजेंसियों का पड़ना दमनकारी सरकार का परिचायक है। इनका दमन वस्तुत: संविधान और गणतंत्र का गला घोंटना है।


लेखक बलबीर पुंज भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं


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