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सूत्रधारों पर मेहरबानी

जागरण मेहमान कोना
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Hriday Narayan Dixitभारत विश्व का शिखर संसदीय जनतंत्र है लेकिन नोट तंत्र के आरोपों में है। लोकसभा में ‘वोट के लिए नोट’ मामले में अमर सिंह जेल में हैं। केंद्र निर्देशित पुलिस कथानक में फिलहाल वे ही मुख्य अभियुक्त हैं। नोट कांड की पोल खोलने वाले भाजपा के सांसद भी फिलहाल अभियुक्त हैं। ‘कार्य-कारण’ का संबंध विज्ञान का सिद्धांत है और अपराधशास्त्र का भी। अपराध अनुसंधान में ‘अपराध करने के उद्देश्य’ की खोज महत्वपूर्ण मानी जाती है। भाजपा सांसदों द्वारा धनराशि स्वीकार करने का उद्देश्य साफ है। वे जघन्य अपराध का भंडाफोड़ करना चाहते थे। उन्होंने यही किया भी लेकिन अमर सिंह का लक्ष्य क्या था? वे संप्रग सरकार को बचाने के लिए ऐसी मोटी रकम लेकर क्यों आगे बढ़े? अमर सिंह संप्रग के घटक नहीं थे। आखिरकार अपनी जेब से करोड़ों रुपये खर्च करने की कोई वजह तो होगी ही? वह राजनीतिक क्षेत्र के बड़े डीलर कहे जाते हैं लेकिन डील का असली पक्षकार कहां है? जांचकर्ता पुलिस इस डील के असली लाभार्थी का नाम सामने क्यों नहीं लाती? अपराध असाधारण कोटि का है। संसदीय जनतंत्र की हत्या का है। अमर सिंह सिर्फ भाड़े के शूटर थे। असली अभियुक्तों को कठघरे में खड़ा किया जाना जरूरी है।


‘वोट के लिए नोट’ कांड का मुख्य विषय था परमाणु करार। वामदलों की समर्थन वापसी से परमाणु करार खटाई में था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका को आश्वस्त कर चुके थे, लेकिन बहुमत की कठिनाई थी। विकिलीक्स के अनुसार कांग्रेस के एक पदधारक ने अमेरिकी राजनयिक को बताया कि विश्वास मत के लिए 50-60 करोड़ रुपये देने की तैयारी है। कांग्रेसी नेता ने अमेरिकी राजनयिक को रुपयों से भरे दो बड़े कोष भी दिखाए और कहा कि एक क्षेत्रीय पार्टी के सदस्यों को 10 करोड़ रुपये प्रति सदस्य भुगतान किया जा चुका है।’ ये बातें विकिलीक्स की मनगढ़ंत कथाएं नहीं हैं। यह अमेरिकी दूतावास द्वारा भेजे गए संदेशों का उद्धरण है। बाद में केंद्र ने इस खुलासे का खंडन किया। प्रधानमंत्री ने इसी बरस स्पष्टीकरण दिया लेकिन पुलिस विवेचना ठप रही। अमर सिंह के सीने में असली राज हैं, कांग्रेस भयभीत है। धन और साधन सत्ता के लिए, सत्तादल द्वारा ही जुटाए गए थे।


संसद बेशक चूक नहीं करती। संसद में ही नोट कांड उछला। संसद ने सरकार को जवाबदेह बनाने का भरपूर प्रयास किया। यह जघन्य अपराध विश्वास मत प्राप्त करने के लिए ही किया गया था। इस अपराध से संसदीय गरिमा का अवमान हुआ। संसद को स्वयं हस्तक्षेप करना चाहिए था। अपराध संसदीय कार्यवाही को प्रभावित करने से जुड़ा हुआ है। ऐसे ही अवसरों के लिए सभा के विशेषाधिकार हैं। सभा में विश्वासमत के दिन हुआ मतदान भी प्रश्नों के घेरे में है। सत्तापक्ष ने मतदान को अपने पक्ष में करने के लिए तमाम अनुचित साधन अपनाए थे, लेकिन इस मामले में गठित संसदीय समिति ने वास्तविक लाभार्थियों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। सरकार विश्वासमत की चुनौती से कांप रही थी। वह अल्पमत में थी। वह एक-एक वोट के लिए तमाम साधन अपना रही थी। कायदे से संसदीय समिति को इस महत्वपूर्ण तथ्य की जांच करनी चाहिए थी कि संसदीय गरिमा को तहस-नहस करने के मुख्य कारण क्या थे? इस योजना से किसे लाभ मिलने वाला था? वास्तविक योजनाकार क्या चाहते थे? लाभार्थी सत्तापक्ष ही था।


सत्तापक्ष ने अमर सिंह को मोहरा बनाया और उसने इस खेल में उन्हें भरपूर सरकारी संरक्षण का आश्वासन दिया। केंद्र अपने वायदे पर अटल था। उसे उम्मीद थी कि जनता धीरे-धीरे सब कुछ भूल जाएगी। केंद्र के इशारे पर ही पुलिस ने 2008 की इस महत्वपूर्ण घटना की विवेचना में हाथ भी नहीं लगाया। इस बीच यह मामला कई दफा उछला, विकिलीक्स खुलासे पर भी संसद में गर्मी आई लेकिन पुलिस शांत रही। संसद की गरिमा केंद्रीय षड्यंत्र से ही तार-तार हुई थी। दिल्ली पुलिस केंद्र के इशारे पर ही मौन थी लेकिन एक जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की कानखिंचाई की। पुलिस विवश होकर सक्रिय हुई। उसने राजनीतिक निर्देशों के अनुसार कथानक बनाया। उसने ‘अपराध अनुसंधान’ के सामान्य नियमों को भी धता बताया। उसने अपराध और अभियुक्त के उद्देश्यों का पता नहीं लगाया। अपराध की कूट रचना के वास्तविक गुनहगारों को बचाने का काम किया। अमर सिंह एक साधारण सूत्र हैं, वह असाधारण अपराध के मुख्य अभियुक्तों के खास मोहरे हैं। आखिरकार अमर सिंह को इस कांड से क्या लाभ मिलने वाला था? प्रथम द्रष्टया कुछ भी नहीं। असली अभियुक्त कानून की पकड़ से बाहर हैं लेकिन देश के सामने हैं।


लोकसभा में ‘नोट के बदले वोट’ का सिद्धांत कांग्रेस ने ही ईजाद किया था। अविश्वास प्रस्ताव के विरुद्ध वोट पाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने ‘वोट के लिए नोट’ का दांव चलाया था। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था। पर संसदीय मतदान का विषय संविधान के अनुसार न्यायिक परीक्षण से बाहर रहने के कारण अपराधी सजा से बच गए। कांग्रेस ने इसी परंपरा को आदर्श माना। मनमोहन सिंह की सरकार ने भी जुलाई 2008 में फिर से ‘वोट के लिए नोट’ का पुराना हथियार आजमाया। भाजपा सांसदों को जाल में फंसाने की योजना थी, लेकिन सरकार स्वयं अपने ही बनाए जाल में फंस गई। सदन में नोट लहराए गए। संप्रग की थू-थू हुई। लोकसभा की मर्यादा तार-तार हुई।


लोकतंत्र नोटतंत्र की गिरफ्त में है। पुलिस तंत्र सत्तातंत्र की जेब में है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हो रही विवेचना में भी पुलिस ने निराश किया है। ‘वोट के लिए नोट’ का मसला लोकतंत्र के जीवनमरण का प्रश्न है। मूलभूत प्रश्न यह है कि सत्ताधीशों के अधीन काम करने वाली पुलिस अपने आकाओं के विरुद्ध आरोपपत्र लगाने की हिम्मत कैसे जुटाए? सीबीआइ भी सत्ता के नियंत्रण व निर्देशन में काम करती है। सत्तादल के नियंत्रण में काम करने वाली जांच एजेंसियां सत्ता की इच्छा का अनादर नहीं कर सकतीं। ‘वोट के लिए नोट’ के इस मामले में इसीलिए कोर्ट से जनहित याचिका में ‘विशेष विवेचना टीम’ (एसआइटी) गठित करने की मांग की गई थी। संप्रग सरकार सत्ता के लिए सभी अनुचित साधन अपनाने और सब तरह के भ्रष्ट आचरण करने की अभ्यस्त है। न्यायपालिका सक्रिय है, कैग ने धीरज दिया है। आमजनों में जागरण बढ़ा है, लेकिन आश्चर्य है कि मोहरे पिट जाते हैं, असली खिलाड़ी साफ बच जाते हैं। प्रखर जनजागरण और लोकपाल जैसी प्रभावी संस्थाओं के गठन के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।


लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं


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