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आरक्षण की नीति के फायदे-नुकसान पर व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत महसूस कर रहे हैं डॉ. गौतम सचदेव
आरक्षण पर नई बहस का वक्त भारत में संविधान को लागू करने के साथ ही पिछड़ी जातियों और पिछड़े वगरें का उद्धार करने तथा जातीय समानता लाने के लिए आरक्षण का मानो एक छकड़ा चलाया गया था, जिस पर संविधान की अनुसूची में गिनाई गई कई जातियों और वगरें के लोगों को यह मानकर सवार करा दिया गया कि रास्ता टूटा-फूटा और कच्चा होने पर भी छकड़ा अपनी मंजिल पर पहुंच जाएगा। जिन्होंने इस नीति को लागू किया, उनकी नीयत तो नेक थी, लेकिन नीति गलत सिद्ध हुई, क्योंकि जल्दी ही इस छकड़े को सत्ता की भ्रष्ट राजनीति और वोट बटोरने के घिनौने हथकंडों ने राह से भटका दिया। पिछले 61-62 वषरें से इस छकड़े पर सिर्फ सवारियों के लिए सीटें बढ़ाई जा रही हैं, जिन पर अन्यान्य पिछड़ी जातियों, दलितों, वंचितों और शोषितों की नई-नई सवारियां लादी जा रही हैं, लेकिन किसी भी सरकार और दलित नेता को यह देखने-परखने की जरूरत महसूस नहीं होती कि यह छकड़ा अपनी मंजिल पर कब पहुंचेगा।
किसी को यह सोचने की फुर्सत भी नहीं कि अगर छह दशकों के दीर्घकाल में भी यह छकड़ा अपनी मंजिल पर नहीं पहुंचा तो क्यों और वहां पहुंचने में इसे अभी और कितना समय लगेगा? कोई इस रीति-नीति के फायदे-नुकसानों और इसके सही या गलत होने का विश्लेषण नहीं करता। सबने इसे दुधारू गाय या रामबाण समझ रखा है और इसका आंखें मूंदकर अपने-अपने स्वाथरें के लिए दोहन और प्रयोग करते जा रहे हैं। सोचिए क्या अब वह समय नहीं आ गया, जब इसके औचित्य या इसकी उपयोगिता-अनुपयोगिता को लेकर एक सार्वदेशिक सर्वेक्षण या जनमत संग्रह नहीं कराया जाना चाहिए और क्या दलितों के उद्धार का कोई नया और बेहतर विकल्प नहीं खोजा जाना चाहिए? कौन नहीं देखता कि आरक्षण की वर्तमान नीति पिछड़ी जातियों और पिछड़े वगरें तथा दलितों और शोषितों के उन्नयन में बहुत कम सहायक सिद्ध हुई है, बल्कि कई मामलों में तो यह उलटे बाधक बनी है? वास्तव में इसने जातीयता को मिटाने की बजाय उल्टे उसे बढ़ावा दिया है। जिन जातियों को आरक्षण का लाभ उठाने वाली जातियों की सूची में शामिल नहीं किया गया वे उसमें शामिल होने के लिए हड़तालों, आंदोलनों और चक्का जाम आदि के तरीकों को अपना रही हैं, क्योंकि वे देखती है कि आपाधापी वाले समाज में सीमित अवसरों का फायदा इसी तरह उठाया जा सकता है।
आज पूरे भारतीय समाज को इस समस्या पर विचार करना चाहिए कि इस तरह के आरक्षण से जिन वगरें को पीढ़ी-दर-पीढ़ी लाभ मिल रहा है, क्या वे निरंतर इन्हीं वगरें में बने रहना नहीं चाहेंगे? क्या इससे एक अलग प्रकार के भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिल रहा? आरक्षण प्रतिभा और योग्यता की अवहेलना करने का साधन बनकर रह गया है और एक हद तक इसने प्रतिभा केविदेशों की ओर पलायन को बढ़ावा दिया है। जाहिर है, जब अच्छी नौकरी और पदोन्नति के लिए योग्यता की बजाय किसी जाति विशेष का होने में ही फायदा है तो लोग उसका फायदा क्यों नहीं उठाएंगे? इसकी बजाय होना यह चाहिए कि आरक्षण में योग्यता और गुणवत्ता की अवहेलना न की जाए। मुझे एक दलित नेता का कई वर्ष पुराना किस्सा याद आता है जिसने अपने बीमार बेटे का इलाज कराने के लिए सरकारी अस्पताल के दलित डॉक्टर की बजाय डंके की चोट पर ऊंची जाति के डॉक्टर को चुना था। ऐसे नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि अगर आरक्षण से अयोग्यता को बढ़ावा मिलता है तो आप जैसे लोग उसकी वकालत क्यों करते हैं? आज भारत में स्वस्थ राजनीति और सुशासन, दोनों का बेहद अभाव है। इस समय इसकी सख्त जरूरत है कि अन्य कामों को छोड़कर सबसे पहले भारत में सर्वत्र फैले भ्रष्टाचार को मिटाया जाए।
यह कोई राजनीतिक मुद्दा या वोटों की राजनीति नहीं है, लेकिन विडंबना देखिए कि दलितों की उद्धारक कहलाने वाली अनेक पार्टियां तक इसमें भी राजनीति खेल रही हैं। उन्हें भ्रष्टाचार के उन्मूलक लोकपाल से ज्यादा महत्व उसके अधिकारियों के लिए आरक्षण कराने में दिखाई देता है। वे बिल्कुल नहीं सोचतीं कि क्या ऐसा करने से एक मजबूत लोकपाल को लाना संभव हो जाएगा? मैंने आज तक एक भी ऐसा दल या नेता नहीं देखा, जो यह मांग करे कि हमें और कुछ नहीं, केवल ईमानदार, योग्य और निष्पक्ष व्यक्ति चाहिए। कोई यह मांग भी नहीं करता कि आरक्षण को लागू रखने की कोई अंतिम समयसीमा होनी चाहिए। क्या वाकई इस समयसीमा की जरूरत नहीं है? सोचिए अगर आरक्षण को स्थायी बनाए रखा जाएगा तो क्या पिछड़ापन भी स्थायी नहीं बना रहेगा? आरक्षण से कितना लाभ और हानि हुए हैं, इसका ज्ञान तो किसी सार्वदेशिक सर्वेक्षण से ही हो सकेगा, लेकिन जब तक यह नहीं होता तब तक इस बात से आंखें नहीं मूंदनी चाहिए कि आरक्षण का मतलब पीढ़ी-दर-पीढ़ी लाभ उठाते जाना नहीं है। जब कोई दलित व्यक्ति आरक्षण के माध्यम से उच्च स्तर पर पहुंच जाता है तो भविष्य में वह दलित नहीं रहता। दरअसल अगर आरंभ से ही आरक्षण का आधार जाति या धर्म की बजाय गरीबी को रखा जाता और उसे दूर करने के लिए संसार के अनेक कल्याणकारी राज्यों जैसी कार्यशैली अपनाई जाती तो उसका अच्छा फल निकल सकता था, लेकिन हुआ इसका बिल्कुल उलटा।
आरक्षण को न केवल प्रशासन और प्रबंध का स्थायी अंग बना दिया गया है, बल्कि उसे निरंतर बढ़ाया भी जा रहा है। इससे न तो देश में गरीबी का अंत हो रहा है और न ही पिछड़ेपन या जातीय भेदभाव का। एक ओर जो वास्तव में दलित हैं वे दलित के दलित बने हुए हैं, दूसरी और जो तथाकथित उच्च जातियों के गरीब और पिछड़े लोग हैं, उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है।
लेखक बीबीसी के पूर्व प्रसारक हैं
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