Menu
blogid : 5736 postid : 2677

ईमानदार पहल का इंतजार

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

सीबीआइ को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर लोकपाल संस्था से संबद्ध करने की जरूरत जता रहे हैं बीआर लाल


भ्रष्टाचार और काले धन की समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए एक प्रभावी लोकपाल पद के गठन को लेकर पूरे देश में बहस तेज हो रही है। हालांकि, आजादी के बाद से ही इस पर बहस होती रही है। 1947 में गांधीजी, 1951 में एडी गोरेवाला, 1963 में संथानम और 1963 में डी. संजीवैया ने भी देश को काले धन और भ्रष्टाचार की बढ़ती समस्या से आगाह किया था और इसे रोकने के लिए उपाय सुझाए थे। वर्तमान में भी इस बहस और असंतोष के पीछे लोगों द्वारा यह महसूस किया जाना था कि सरकार उच्च पदों पर बैठे लोगों को स्वतंत्र रूप से लूटने दे रही है और तमाम एजेंसियों को उनकी जांच करने से भी रोका जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप एक के बाद एक लगातार घोटाले सामने आ रहे हैं। यही वजह है कि आज मुख्य मुद्दा जांच एजेंसियों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त करना है ताकि ये प्रभावी ढंग से अपना काम कर सकें।


दुनिया के सभी अच्छे देशों में लोकपाल एक ऐसा मजबूत हाथ है जो न केवल कानून का पालन सुनिश्चित करता है, बल्कि इसे प्रभावी तरीके से लागू भी कराता है। इस वजह से यहां के देशों को भ्रष्टाचार और काले धन की समस्या से निपटने में सफलता मिली है, लेकिन हमारे देश में ईमानदारीपूर्वक यह कदम उठाने से बचा जा रहा है। प्रवर्तन और भ्रष्टाचार रोधी एजेंसियां अभी भी उसी सरकार के कठोर नियंत्रण में हैं जिनकी इन्हें जांच करनी होती है। इस बारे में कोई भी कानून अथवा प्रक्रिया ऐसी नहीं है जो उन्हें सरकार के नियंत्रण से मुक्त करता हो। 1963 में संथानम कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर पहली बार 1968 में लोकपाल बिल संसद में पेश किया गया और इसी आधार पर पहली बार 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन भी हुआ, लेकिन लोकपाल बिल के कुछ प्रावधानों को लेकर विरोध किया गया। लोकसभा में यह बिल सात बार पेश होने के बावजूद इसे पारित नहीं किया गया। सिविल सोसाइटी द्वारा शुरू की गई वर्तमान पहल इसी निरंतरता का एक हिस्सा है। इस पहल के परिणामस्वरूप सरकार ने लोगों को भरोसा दिया कि दूसरे तमाम मुद्दों के अतिरिक्त जांच एजेंसियों को वह स्वायत्तता देने को तैयार है।


यहां एक मुद्दा प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे में रखने का है। सरकार के मुताबिक प्रधानमंत्री को बहुत से महत्वपूर्ण मसलों पर तत्काल निर्णय लेना होता है, खासकर आज के सुरक्षा परिदृश्य में। यह भी कहा जाता है कि प्रधानमंत्री पहले ही कानून के प्रति जवाबदेह हैं इसलिए कोई कारण नहीं कि उन्हें किसी और के प्रति भी जवाबदेह बनाया जाए। प्रधानमंत्री यदि भ्रष्टाचार के दोषी हैं तो पद छोड़ने के बाद उन्हें अभियुक्त बनाया जा सकता है। यह सब इसलिए किया गया है ताकि प्रधानमंत्री को ऐसे तत्वों से बचाया जा सके जो झूठी शिकायतों के बहाने उन्हें परेशान कर सकते है अथवा ब्लैकमेल कर सकते हैं। इस तरह तो सभी उच्च पदस्थ लोगों की स्थिति और उनके काम एकसमान होते हैं। इसलिए यह नहीं समझ आता कि प्रधानमंत्री के भ्रष्टाचार, वर्तमान सुरक्षा परिदृश्य अथवा उनके द्वारा लिए जाने वाले तात्कालिक और महत्वपूर्ण निर्णयों में क्या संबंध है? तो क्या ऐसे सभी लोगों को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस दे देना चाहिए? भ्रष्टाचार का कानून अथवा संविधान भ्रष्टाचार करने वाले किसी भी व्यक्ति यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी इजाजत नहीं देता। यहां यह भी हास्यास्पद है कि प्रधानमंत्री के ऊपर अभियोग पद छोड़ने के बाद ही चलाया जाए। भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के लिए क्या किसी के रिटायर होने का इंतजार किया जा सकता है फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हों? यदि हां, तो ऐसा सभी के साथ होना चाहिए। यदि ऐसा ही था तो ए. राजा से इस्तीफा क्यों लिया गया? दूसरे देशों में इस तरह के अपवाद नहीं होते। उन देशों के प्रधानमंत्री भी महत्वपूर्ण मसलों को हल करने के लिए तात्कालिक निर्णय लेते हैं। इटली के प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी के खिलाफ पद पर रहते हुए मुकदमा चलाया गया। अमेरिका में बिल क्लिंटन, जॉर्जिया के शेवर्नाद्जे और पेरू के फूजी मोरी के खिलाफ पद पर रहते हुए मुकदमा चले। जापान में लॉकहीड स्कैंडल मामले में प्रधानमंत्री काकुई तनाका को 1974 में खुलासा होने के बाद इस्तीफा देना पड़ा और 1976 में उनके खिलाफ चार्जशीट दायर हुई। इसी तरह भारत में प्रधानमंत्री के दोषी साबित होने पर उन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत क्यों होनी चाहिए? यह कहना भी गलत है कि प्रधानमंत्री कानून के प्रति जवाबदेह हैं। वास्तविकता यही है कि प्रत्येक नागरिक समान रूप से कानून के प्रति जवाबदेह है। इसलिए किसी भी मामले में लोकपाल अथवा दूसरी जांच एजेंसियां तभी प्रासंगिक होंगी जब वह भ्रष्टाचार की स्वतंत्र रूप से जांच कर सकें और इसके लिए प्रधानमंत्री को भी जवाबदेह बनाया जा सके। यदि किसी भ्रष्ट प्रधानमंत्री को काम करने दिया जाता है तो हमें इसे दीवार पर लिख लेना चाहिए कि प्रधानमंत्री का पद माफिया की कुर्सी बन जाएगा। तब देश की हालत आज से भी ज्यादा खराब होगी, क्योंकि तब भ्रष्टाचार को एक बड़े छाते के नीचे संरक्षण मिल जाएगा। जहां तक न्यायपालिका का सवाल है तो वह लोकतंत्र में अंतिम निर्णयकर्ता और कानून की व्याख्याता होती है। इसलिए इस संस्था को लोकपाल के अधीन लाना ठीक नहीं होगा।


जहां तक सीबीआइ का प्रश्न है तो जनलोकपाल इसे दो भागों में बांटता है। वह सीबीआइ की भ्रष्टाचाररोधी शाखा को लोकपाल के अधीन चाहता है और शेष हिस्से को आर्थिक अपराध शाखा [ईओडब्ल्यू] के हवाले, परंतु सीबीआइ की आर्थिक अपराध शाखा को भ्रष्टाचाररोधी शाखा से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। सरकारी एजेंसियों और निजी क्षेत्र की धोखाधड़ी के मामले आर्थिक अपराध शाखा के तहत आते हैं। ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी की रिपोर्ट के मुताबिक भ्रष्टाचार का 65 प्रतिशत हिस्सा आर्थिक अपराध शाखा के तहत आता है, जबकि केवल 5 प्रतिशत भ्रष्टाचार दूसरे हिस्से में आता है। इसलिए सीबीआइ की भ्रष्टाचाररोधी शाखा और आर्थिक अपराध शाखा को एक साथ या तो लोकपाल के तहत रखा जाए या सीबीआइ के साथ। यहां तक कि प्रवर्तन निदेशालय को भी इसके साथ लाया जाना चाहिए। सीबीआइ की भूमिका विशेषज्ञ जांच एजेंसी के रूप में बनी रहनी चाहिए, लेकिन इसकी जवाबदेही सरकार की बजाय स्वतंत्र रूप से बनाए गए संवैधानिक निकाय के प्रति होनी चाहिए। इस संस्था को पूर्ण रूप से सरकार से स्वतंत्र रखा जाना चाहिए- चाहे वह मसला कार्यनिष्पादन का हो अथवा वित्तीय निर्भरता का।


लेखक बीआर लाल सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh