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गजब का भ्रम व्याप्त हो गया है पूरे देश में। भ्रम इस बात का है कि आखिर इस लोकतांत्रिक देश की शक्ति है किसके हाथ में-संसद, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेना, जनता, सिविल सोसायटी या अन्य कहीं। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ, हालांकि केंद्र में गठजोड़ की सरकार 1977 में ही मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बन गई थी। फिर 1990 के बाद से तो यह केंद्र सरकार का एक स्थायी चेहरा ही बन गया है, लेकिन इस चेहरे पर विद्रूपता की इतनी अधिक और गहरी लकीरें इससे पहले कभी नहीं रहीं। सरकार 2जी स्पेक्ट्रम का आवंटन करती है। सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से सहमत होने में सरकार असहजता महसूस करती है। वह अपनी अटपटी स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्रपति का सहारा लेती है। राष्ट्रपति देश की सर्वोच्च अदालत से कुछ राय मांगती हैं। अब देखते हैं कि अदालत क्या कहती है और भारत के अब तक के सबसे बड़े इस घोटाले में किसकी चलती है-अदालत की, संसद की या फिर सरकार की।
केंद्र सरकार रेलवे बजट पेश करती है। गठबंधन में शामिल तृणमूल कांग्रेस मानकर चलती है कि यह केंद्र का नहीं, बल्कि उसकी पार्टी का बजट है, क्योंकि इस रेल बजट को उसकी पार्टी के मंत्री ने पेश किया है। इससे पहले कि उस बजट पर संसद में बातचीत हो, एक क्षेत्रीय पार्टी के कहने पर रेलमंत्री खुलेआम बदल दिया जाता है। अब सवाल यह है कि मंत्रिमंडल का गठन करने की शक्ति उसके प्रमुख प्रधानमंत्री के पास है या क्षेत्रीय पार्टियों के पास। यदि ऐसा करना प्रधानमंत्री की गठबंधनीय विवशता है तो फिर संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का क्या होगा। क्या विवशताओं के सामने आदर्शो का समर्पण करके शक्ति के केंद्र को विच्छिन्न कर देने की स्थिति को स्वीकार किया जाना भविष्य के लोकतंत्र की दृष्टि से उचित होगा? यहां बात राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केंद्र (एनसीटीसी) जैसे मामलों पर क्षेत्रीय पार्टियों, जिनमें गठबंधन में शामिल पार्टियां तक शामिल हैं, की नहीं है। एक संघात्मक व्यवस्था की यह मांग है कि जब कभी ऐसी स्थिति आए कि राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में किसी भी तरह के हस्तक्षेप की आशंका देखते हैं तो वे अपनी बात रख सकते हैं, लेकिन रेलवे बजट का मामला उससे बिल्कुल भिन्न है। एक दिन सुबह मध्यकालीन मुगलिया शासन की याद दिलाने वाली खबर आती है कि कि सेना ने दिल्ली की ओर कूच कर दिया था। लोग चौंक उठते हैं और दुखद बात यह है कि इस पर अविश्वास नहीं कर पाते। केंद्रीय शक्ति के बिखराव ने उनके मन में यह भाव पैदा कर दिया है कि कुछ भी हो सकता है, बावजूद इस विश्वास के कि भारत पाकिस्तान नहीं है। सरकार सफाई देती है।
सेनाध्यक्ष सफाई देते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से जनता का मन इस मामले में साफ नहीं हो पाता। लोकपाल बिल पारित नहीं हो पा रहा है। इसलिए नहीं कि सरकार इसे पारित नहीं करना चाह रही है, बल्कि इसलिए कि सरकार इसे उस रूप में पारित नहीं करना चाह रही है, जिस रूप में लोग चाह रहे हैं, सिविल सोसायटी चाह रही है। अन्ना हजारे के इस आंदोलन को लोगों और मीडिया का इतना अधिक समर्थन मिला कि पिछले साल आइएएस की मुख्य परीक्षा के लोक प्रशासन विषय में एक प्रश्न पूछ लिया गया कि सिद्ध कीजिए कि मीडिया लोगों की संसद है। जाहिर है कि यह संसद केवल विचार-विमर्श करने वाली संसद नहीं, बल्कि कानून बनाने वाली संसद है। यह तथ्य मीडिया की भूमिका का विस्तार सरकार और लोगों के बीच संपर्क सूत्र से बढ़कर कहीं विधायिका के चरित्र के निकट तक कर देता है। सोचने की बात है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि आज सर्वोच्च शक्ति का केंद्रीय बिंदु लोगों की आंखों से एकदम ओझल हो चुका हो। प्रधानमंत्री असहाय से दिखाई देते हैं। सरकार की सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्ष मुश्किल से कभी-कभी बोलती हैं। पूर्व संचार मंत्री जो भी मन में आए वह करते हैं और इस स्थिति पर प्रधानमंत्री का जवाब होता है, मुझे मालूम नहीं था। बाद में पता चलता है कि नहीं, ऐसा नहीं था।
सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि यदि अनाज सड़ रहा है तो उसे गरीबों में मुफ्त बांट दो। सरकार कहती है, संभव नहीं है। सर्वोच्च अदालत कहती है नदी जोड़ो परियोजना समय पर पूरी की जानी चाहिए। केंद्र कहता है यह नहीं हो सकता, क्योंकि यह व्यावहारिक नहीं है। मालूम नहीं, यह हो क्या रहा है? हो सकता है कि कुछ लोग इसे उस सच्चे लोकतंत्र के परिपक्वता की निशानी मान रहे हों, जिसमें सत्ता किसी एक के हाथ में केंद्रित नहीं होती। इसे अमेरिकी संविधान में सत्ता का पृथक्कीकरण कहा गया है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वहां के संविधान ने संसद की अध्यक्षात्मक प्रणाली को अपनाकर सत्ता के पृथक्कीकरण के सिद्धांत को कहीं न कहीं राष्ट्रपति की ओर झुका भी दिया है, क्योंकि शक्ति के विकेंद्रीकरण के साथ-साथ कार्यपालिका की यह व्यावहारिक आवश्यकता भी होती है कि उसका कहीं न कहीं केंद्रीयकरण भी हो ताकि निर्णय लिए जा सकें और लिए गए निर्णयों को लागू किया जा सके। इसके अभाव में यथास्थितिवाद बना रहता है, जिसे जनता लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकती, खासकर तेजी से बदल रहे वर्तमान माहौल में तो बिल्कुल भी नहीं। इसलिए यह अपरिहार्य है कि वर्तमान में शक्ति-केंद्र के बारे में जो भ्रम की स्थिति बनी हुई है उस पर संवैधानिक दायरे में विचार किया जाए, क्योंकि भारत का इतिहास इस बात का प्रमाण रहा है कि केंद्रीय शक्ति की कमजोरी का खामियाजा देश को भुगतना पड़ा है। जो सरकार अपने ही देश में शक्ति संपन्न नहीं होगी, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी कमजोर भूमिका के बारे में संदेह नहीं किया जाना चाहिए।
डॉ. विजय अग्रवाल पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं
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