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वार्ताकारों की रपट का भविष्य

जागरण मेहमान कोना
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कश्मीर समस्या के व्यापक राजनीतिक समाधान खोजने के लिए केंद्र की ओर से नियुक्त वार्ताकारों ने अपनी अंतिम रिपोर्ट हाल ही में सरकार को सौंपी। रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक समाधान के अलावा उन मुद्दों को भी शामिल किया गया है, जिनका ताल्लुक सीधे-सीधे सूबे की अवाम से है। वार्ताकारों ने समस्या के समाधान के लिए अपनी ओर से क्या सिफारिशें की हैं, यह तो रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जिस तरह रिपोर्ट के सार्वजनिक करने से पहले ही इस पर प्रतिक्रियाएं आना शुरू हुई हैं, उससे लगता है कि आने वाले दिनों में सियासी गलियारों के अंदर और बाहर दोनों जगह यह रिपोर्ट काफी हंगामा करेगी। जम्मू-कश्मीर की प्रमुख विपक्षी पार्टी पीडीपी जो अपने अलगाववादी बयानों और रुझानों से सूबे के अंदर आए दिन तनाव पैदा करती रहती है, उसने रिपोर्ट को अभी से ही कमतर आंकना शुरू कर दिया है। वहीं अलगाववादियों ने उससे एक कदम और आगे जाते हुए पूरी रिपोर्ट को यह कहकर खारिज कर दिया कि भारतीय संविधान के अंदर कोई भी हल उसे मंजूर नहीं।


अलगाववादियों के इस बयान पर शायद ही किसी को ताज्जुब हो। जो लोग हुर्रियत कांफ्रेंस की पूरी सियासत को जानते हैं, उन्हें यह बात मालूम है कि अलगाववादियों का बयान इससे जुदा नहीं हो सकता था। दरअसल, अलगाववादियों ने अपने असली तेवर उसी वक्त दिखलाने शुरू कर दिए थे, जब वार्ताकार सूबे में बातचीत कर रहे थे। वार्ताकारों की तमाम कोशिशों के बाद भी अलगाववादियों के किसी भी गुट ने उनसे बात नहीं की। हर बार उन्होंने बातचीत से इनकार कर दिया। जबकि अगर वे बातचीत की प्रक्रिया में शामिल होते तो यह रिपोर्ट और भी ज्यादा सार्थक होती। बरसों से कश्मीरियों को आजादी के खोखले नारों से भरमाने वाले अलगाववादियों को उनके दुख-दर्द से कोई सरोकार नहीं। बस, इस अल्फाज की आड़ में वे अपनी-अपनी दुकानें चलाते रहते हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज उमर फारुक, हुर्रियत (जी) के चेयरमैन सैयद अली शाह गिलानी से लेकर जेकेएलएफ प्रमुख यासीन मलिक, शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी लीडर आजादी या आत्म निर्णय की बात करते हैं तो उनकी सोच की अंतरधारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए या फिर जम्मू-कश्मीर (कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत सरकार हट जाए और कश्मीरियों को यह अधिकार मिले कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में आत्मनिर्णय करें। जाहिर है, अलगाववादियों की इस विभाजनकारी मांग पर मुल्क में शायद ही कोई इत्तेफाक जतलाए। जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है और ऐसी कोई भी मांग जो सूबे को मुल्क से अलग करने की मांग करती है, वह मुल्क के खिलाफ है। अलबत्ता कश्मीरियों की जो मांग भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक अधिकारों के दायरे में हैं, उस पर बात की जा सकती है। वार्ताकारों ने बीते एक साल के दौरान कश्मीर घाटी में घूम-घूमकर यही काम किया।


गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में स्थायी शांति, स्थिरता व खुशहाली कायम करने और कश्मीर विवाद के हल के नेक मकसद से संप्रग सरकार ने बीते साल अक्टूबर को तीन सदस्यीय वार्ताकारों के एक दल की नियुक्ति की थी। इसमें वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, शिक्षाविद् राधा कुमार और पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त एमएम अंसारी शामिल थे। तय यह हुआ था कि वार्ताकारों का दल सूबे में अलग-अलग वर्गो के लोगों, सियासी पार्टियों और दीगर संगठनों से अधिक से अधिक बातचीत, सलाह-मशविरा करेगा और उनसे मिली राय के आधार पर केंद्र को अपनी सिफारिशें पेश करेगा, ताकि कश्मीर मुद्दे का व्यापक राजनीतिक समाधान निकल सके। वार्ताकारों ने 12 अक्टूबर 2010 को घाटी का पहला दौरा किया। उसके बाद से यह दल वहां 12 बार और गया। लोगों से विस्तृत बातचीत की। रिपोर्ट में वार्ताकार समूह का मुख्य जोर कश्मीरियों के जज्बात, उनकी परेशानियों को समझना और फिर उसके बाद अपनी ओर से समाधान पेश करना था। खैर, रिपोर्ट जब सार्वजनिक होगी तब मालूम चलेगा कि वार्ताकार अपने मकसद में कितने कामयाब हुए, लेकिन रिपोर्ट से जो बातें अभी छन-छनकर आ रही हैं, उनसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वार्ताकारों ने अपना काम पूरी ईमानदारी और गंभीरता से किया है। कश्मीर में बीते एक दशक में यह देखने में आया है कि सेना के बेवजह दखल के चलते सामान्य कामकाज पर पड़ने वाले असर और रोजगार के नए अवसर सृजित कर पाने में सरकार की नाकामयाबी लोगों के गुस्से की बड़ी वजह रही है। लिहाजा, वार्ताकार समूह ने अपनी रिपोर्ट में सूबे से विवादास्पद सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और अशांत क्षेत्र अधिनियम को चरणबद्ध तरीके से हटाने का सुझाव दिया है। वार्ताकारों का मानना है कि फौज सरहदों पर मुस्तैद रहे और शहरी इलाकों में उसकी भूमिका सीमित हो। रिपोर्ट में एक अहम सिफारिश सूबे के तीनों इलाकों कश्मीर, जम्मू और लद्दाख के लिए विकास परिषदें बनाने और उन्हें क्षेत्रवार अधिकार देना है। जैसा कि हम जानते हैं, मुल्क में बेरोजगारी और आर्थिक पिछड़ापन एक बड़ी समस्या है।


जम्मू-कश्मीर भी इस समस्या से अछूता नहीं, बल्कि यहां यह समस्या और भी ज्यादा भयानक रूप में है। बीते छह दशक में मरकजी हुकूमतों के तमाम आर्थिक पैकेजों के बाद भी सूबे में बेतहाशा बेरोजगारी और आर्थिक पिछड़ापन है। वार्ताकारों ने रिपोर्ट में बेरोजगारी के हालात का जिक्र करते हुए वहां बुनियादी ढांचे के विकास की जरूरत को रेखांकित किया है और इसके लिए बड़े पैमाने पर आर्थिक पैकेज देने की सिफारिश की है, ताकि सूबे में जहां पर्यटन को बढ़ावा मिले, वहीं विकास की रोशनी में माहौल बदलने की भी गुंजाइश बने। कमोबेश यही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कहते आए हैं कि जम्मू-कश्मीर के नौजवानों की जरूरतों को नजरअंदाज करके वहां असंतोष को दूर नहीं किया जा सकता। यह बात सच भी है। कश्मीरी नौजवानों में असंतोष का फायदा विपक्षी पार्टियां और चरमपंथी संगठन बरसों से उठाते रहे हैं। पीडीपी और अलगाववादी संगठन अक्सर बेरोजगारी और मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाकर सरकार को घेरने की कोशिश करते हैं। यदि सरकार रोजगार के मौके मुहैया कराने और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित कराने में कामयाब हो जाती है तो कश्मीर समस्या का निदान ज्यादा मुश्किल काम नहीं। रिपोर्ट में कश्मीर को तीन इलाकाई काउंसिल में बांटने की बात कही गई है या नहीं, इसका खुलासा तो उस वक्त होगा, जब रिपोर्ट पर सियासी पार्टियां अपने विचार रखेंगी। लेकिन इतना तय है कि रिपोर्ट में 1952 से पहले के हालात को बहाल करने जैसे सुझावों को तीनों वार्ताकारों ने खारिज कर दिया है। वार्ताकारों का मानना है कि घड़ी की सुई को वापस नहीं लौटाया जा सकता।


नेशनल कांफ्रेंस और हुर्रियत कांफ्रेंस दोनों ही स्वायत्तता की बात करते रहे हैं, जिसमें कश्मीर मामलों में भारतीय संसद, सुप्रीम कोर्ट और दीगर संवैधानिक संस्थाओं का न्यूनतम दखल हो। लेकिन इन दोनों से भी यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इस बात की क्या गारंटी है कि कश्मीर घाटी में 1952 जैसी स्वायत्तता मिल जाने से सूबे के हर बाशिंदे को खुशगवार जिंदगी, बुनियादी अधिकार और अपनी संपूर्ण संभावनाओं को हासिल कर सकने की आजादी मिल जाएगी? सवाल यह है कि एक आम नागरिक के लिए अपनी जिंदगी पर खुद फैसले की आजादी, अपने रहन-सहन और पसंद-नापसंद को तय करने की स्वायत्तता और उसकी व्यक्तिगत गरिमा भारतीय संविधान जैसे आधुनिक दस्तावेज के तहत ही ज्यादा महफूज रह सकती है, न कि किसी मजहबी व्यवस्था में। आखिर स्वायत्तता किसे मिलनी चाहिए-सोपोर, बारामूला, उरी, पुंछ, अनंतनाग, राजौरी, लेह और लद्दाख में बैठे आम नागरिकों को या श्रीनगर में बैठे हुक्मरानों को?


लेखक जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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