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यह सही है कि अब भी अमेरिका, जापान और यूरोपीय देश दुनिया के मानचित्र पर विकसित देश के रूप में गिने जाते हैं। दरअसल, ऐसा इसलिए है, क्योंकि वहां प्रति व्यक्ति आय बहुत ज्यादा है। ऊंची प्रति व्यक्ति आय के चलते वहां के लोगों का जीवन स्तर भी काफी अच्छा है, लेकिन अब दुनिया की आर्थिक तस्वीर बदल रही है। एक ऐसा समय भी था, जब यूरोप के तमाम देश और जापान सरीखे राष्ट्र आर्थिक ताकत की दृष्टि से भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका बहुत पीछे थे। दुनिया में सबसे तेजी से उभर रही विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के समूह देशों को आज ब्रिक्स का नाम दिया गया है। ये पांचों देश अत्यंत तेजी से विकास ही नहीं कर रहे, बल्कि दुनिया के विकसित देशों की आर्थिक शक्ति को चुनौती भी दे रहे हैं। दुनिया का आर्थिक संतुलन बदल रहा है और आज से दस वर्ष पहले जिन देशों का वर्चस्व दुनिया में था, उनका प्रभाव कम हुआ है और तेजी से विकास कर रही इन पांच अर्थव्यवस्थाओं ने अपना वर्चस्व आर्थिक शक्ति के तौर पर स्थापित कर लिया है।
ब्रिक्स देशों का चौथा सम्मेलन हाल ही में नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह जानना महत्वपूर्ण है कि दक्षिण अफ्रीका इस समूह में पिछले वर्ष ही शामिल हुआ है। उससे पूर्व इसमें केवल चीन, भारत, ब्राजील और रूस ही शामिल थे और इन देशों को ब्रिक के समूह नाम से जाना जाता था। क्रय शक्ति समता के आधार पर अब चीन दुनिया की दूसरी और भारत तीसरी आर्थिक बड़ी शक्ति बन चुका है। हम कह सकते हैं कि अब रूस, चीन और भारत ही नहीं, बल्कि ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी आर्थिक शक्तियों के रूप में उभर रहे हैं। वैश्विक मंदी के दौर में यह प्रक्रिया और तेज हुई है और ये देश विकसित देशों से ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि आज के समय में विकसित देशों की आमदनी में एक ठहराव आ गया है, जबकि ब्रिक्स देशों की राष्ट्रीय आय 8 से 10 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। इसका मतलब यह नहीं है कि इन विकासशील देशों के लोगों का जीवन स्तर भी विकसित देशों सरीखा हो गया है।
वास्तव में यह आर्थिक संवृद्धि केवल जीडीपी यानी सकल घरेलू आय के स्तर पर है। परंतु जब हम प्रति व्यक्ति आय की बात करते हैं तो पाते हैं कि प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से अभी विकसित और विकासशील देशों के लोगों के बीच एक बड़ी खाई विद्यमान है। क्रयशक्ति समता के आधार पर भी वर्ष 2009 में भारत की प्रति व्यक्ति आय मात्र 3260 डॉलर प्रतिवर्ष और चीन की प्रति व्यक्ति आय 6770 डॉलर प्रतिवर्ष थी। इस वर्ष विकसित देशों में औसत प्रति व्यक्ति आय 36,473 डॉलर प्रतिवर्ष थी। इसलिए स्वाभाविक ही है कि मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से दुनिया में भारत का स्थान वर्ष 2011 में 134वां और चीन का 101वां रहा। ऐसे में ब्रिक्स देशों के तेजी से विकास के बावजूद इन देशों में आम जन के जीवन स्तर में सुधार के लिए अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना बाकी है। इसलिए इन देशों के बीच आपसी समझ तेजी से विकास और आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ब्रिक्स के पांच देशों की आबादी दुनिया की कुल आबादी का लगभग 40 प्रतिशत के बराबर है, लेकिन वर्ष 2011 तक इन देशों की सकल घरेलू आय 21 खरब डॉलर तक ही पहुंच पाई है। यह बात सही है कि पिछले दशक के प्रारंभ में चीन, भारत, ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्थाओं का कुल आकार वैश्विक अर्थव्यवस्था के कुल आकार का मात्र छठा हिस्सा ही था जो वर्ष 2011 तक बढ़कर वैश्विक अर्थव्यवस्था का 29.5 प्रतिशत हो चुका है।
ब्रिक्स देशों ने विकास की अपनी अपेक्षाओं को कार्यरूप देने और दुनिया के अमीर देशों के वर्चस्व को कम करने की अपनी कोशिशों के तहत पिछले दिनों दिल्ली में संपन्न हुए सम्मेलन में अन्य बातों के अलावा आपसी व्यापार कार्यो को स्थानीय मुद्रा में संचालित करने का निर्णय लिया है। इसका मतलब यह है कि भारत-ब्राजील या ब्राजील-रूस आदि के बीच व्यापार का भुगतान अब डॉलर या यूरो में नहीं, बल्कि इन देशों की परस्पर मुद्रा में किया जाना संभव हो सकेगा। दुनिया के विभिन्न देशों के बीच व्यापार का भुगतान डॉलर, पाउंड या यूरो जैसी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा में होना अनिवार्य तो कम से कम नहीं ही है, फिर भी परंपरा यही है कि व्यापार में असंतुलन की स्थिति में उधार की सुविधा डॉलर में ही होती है। इस कारण से भारत सरीखे देशों को पर्याप्त मात्रा में डॉलर तथा अन्य विकसित देशों की मुद्रा का भारी रिजर्व रखना पड़ता है, ताकि किसी भी स्थिति में अंतरराष्ट्रीय भुगतान में कोताही न हो। परंतु यदि भुगतान अपनी ही स्थानीय मुद्राओं में होता है तो विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर या यूरो आदि में रखने की अनिवार्यता खत्म नहीं तो कम अवश्य हो जाएगी। यहां ध्यान देने योग्य है कि भारत का चीन, रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका से आयात अभी तक 53 अरब डॉलर वार्षिक तक पहुंच चुका है। भारत का इन देशों को निर्यात 27.3 अरब डॉलर के आसपास है।
भारत का शुद्ध रूप से इन सभी देशों के साथ व्यापार घाटे में ही रहता है। ब्रिक्स देशों के बीच कुल व्यापार 230 अरब डॉलर का हो चुका है, जिसका वर्ष 2015 तक 500 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद की जा रही है। स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा देने से न केवल ब्रिक्स देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ेगा, बल्कि डॉलर की अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में मान्यता भी कम होगी। भुगतान शेष में घाटे के कारण डॉलर की कमी के चलते रुपये के अवमूल्यन की समस्या का समाधान निकलने की भी इससे आशा की जा सकती है। अंतरराष्ट्रीय शक्ति के रूप में उभरते हुए ब्रिक्स देशों के बीच व्यापार और निवेश में बढ़ोतरी से इन देशों में विकास को बल मिलेगा। ब्रिक्स देशों द्वारा न केवल अंतरराष्ट्रीय व्यापार को स्थानीय मुद्रा में चलाने का निर्णय लिया गया है, बल्कि इन देशों में निवेश को बढ़ावा देने हेतु विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक के मॉडल पर ब्रिक्स विकास बैंक की स्थापना के उद्देश्य से आगे बढ़ने का निर्णय भी लिया गया है, जो एक दूरगामी कदम है। इस संदर्भ में इन देशों के वित्त मंत्री ब्रिक्स विकास बैंक के प्रस्ताव पर विचार करेंगे और आगामी ब्रिक्स की बैठक में रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे। माना जा रहा है कि ब्रिक्स विकास बैंक ढांचागत विकास हेतु सदस्य देशों के बीच संसाधनों को जमा करने का तो काम करेगा ही, साथ ही वैश्विक संकट के समय उधार भी देगा। ब्रिक्स देशों की एकता से बहुत संभावनाएं जन्म ले रही हैं, लेकिन जरूरत इस बात की है कि ब्रिक्स देशों में सबसे ताकतवर देश चीन अपने रुख में तब्दीली लाए। भारत के साथ चीन द्वारा सीमा पर की जा रही छेड़खानी से ब्रिक्स देशों की एकता में दरार पड़ सकती है। ऐसे में अमेरिका और अन्य विकसित देशों की दादागिरी से टक्कर लेना मुश्किल होगा।
लेखक अश्विनी महाजन आर्थिक मामलों के जानकार हैं
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