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भ्रष्टाचार के कारण संसदीय प्रणाली पर उभर रहे संदेह को खतरे की घंटी मान रहे हैं कुलदीप नैयर
अलोकतांत्रिक तरीकों से पाकिस्तान ने लोकतंत्र गंवाया था, भारत लोकतांत्रिक उपायों से वैसे ही खतरे की कगार पर है। सभी परंपराओं और विधाओं को हवा में उड़ाया जा रहा है। देश में दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं-कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी। दोनों दल एक-दूसरे के प्रति घोर बैर भावना से भरे हैं। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने के फेर में इस हद तक आगे बढ़ गए हैं कि यह भी भुला बैठे हैं कि उनके क्रियाकलाप राज्य शासन व्यवस्था को कितनी अधिक क्षति पहुंचा रहे हैं। दोनों दल भ्रष्टाचार के राजनीतिकरण पर उतर आए हैं। ऐसा लगता है कि मानो वे भारत को एक ‘बनाना रिपब्लिक’ बनाने को संकल्पित हैं। भले ही आर्थिक लिहाज से नहीं, अपितु राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से वे ऐसा करते हुए लगते हैं।
राजनीतिक तत्वों में आम राय या सहमति के अभाव से ही पाकिस्तान में सैनिक बगावत हुई थी। कौमी असेंबली और सीनेट अपनी प्रासंगिकता गंवा बैठी थीं। इसी तरह से भारत में विभिन्न दलों के सांसदों तथा राज्य विधानसभा में विधायकों के बीच टकराव ने स्वत: प्रणाली के विरुद्ध एक प्रश्न चिन्ह उपस्थित कर दिया है। हमने देश में एक ऐसी प्रणाली की स्थापना की है जिसमें लोगों की इच्छा ही निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से वर्चस्व की स्थिति पाती है। यहां स्वेच्छाचारिता की कोई गुंजाइश नही है। फिर भी प्रणाली की सामर्थ्य को लेकर संदेह बढ़ते ही जा रहे हैं। हालांकि ये संदेह निराशा का नतीजा हैं। यह देश के स्वास्थ्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। विमत और आलोचना तो संसदीय लोकतंत्र का अनिवार्य भाग हैं, किंतु एक चरण ऐसा भी आता है जब प्रशासन के रथ को आगे बढ़ाने के लिए आम सहमति होना आवश्यक हो जाता है। चुनाव होने में अभी तीन वर्ष हैं। आज जैसे हालात नहीं बने रह सकते, क्योंकि मनमोहन सिंह सरकार और प्रणाली दोनों पर ही इतने अधिक आघात हो चुके हैं कि मरम्मत हो पाना भी संभव नहीं लगता। दोनों दल जानते ही हैं कि वे क्या हैं? फिर भी वे ‘हमारा ही पाक दामन हैं’ की बहस में उलझे हुए हैं।
विभिन्न राजनीतिक दलों को मौजूदा स्थिति समझनी होगी और इससे उबरकर भ्रष्टाचार के बारे में सजग होना पड़ेगा, जो प्रशासन में भी इतनी गहनता से प्रविष्ट हो चुका है कि ईमानदार नौकरशाह अथवा इस मामले में राजनीतिज्ञ भी कोई भी उंगलियों पर ही गिन सकता है। यह उन्हीं का कबीला है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए वीएस येद्दयुरप्पा को नियमों और प्रक्रियाओं को उलट-पुलट करने में मदद मिली। उनकी पार्टी भाजपा खामोश रही, क्योंकि वह अवैध कमाई का कुछ हिस्सा आलाकमान में से भी कुछ को दे रहे थे। उनका भांडा फूट जाने के बाद भी उन्होंने पद छोड़ने में जो हीलाहवाली बरती वह लोकतंत्र के लिए एक चुनौती है। सदन में बहुमत आवश्यक है, किंतु तब इसका क्या उपयोग जब मुख्यमंत्री की छवि एक भ्रष्ट व्यक्ति की बन रही हो। कर्नाटक के लोकायुक्त ने येद्दयुरप्पा के लिए अवैध खनन की जिम्मेदारी से बचने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। फिर भी येद्दयुरप्पा कहते हैं कि मैं दोषी नहीं हूं। हेगड़े ने अवैध खनन का कार्य उस समय से चलते रहने की बात कही है जब राज्य में कांग्रेस सरकार सत्ता में थी। हेगड़े ने बेंगलूर में इस सप्ताह मुझे बताया कि उन्होंने स्वयं को येद्दयुरप्पा शासन तक स्वयं को केंद्रित रखा है, क्योंकि उनका अतीत से नहीं वर्तमान से ही संबंध है। उन्होंने यह भी इंगित किया कि हर नए मुख्यमंत्री के साथ-साथ अवैध खनन भी बढ़ता ही गया। येद्दयुरप्पा के समय यह पराकाष्ठा पर पहुंचा। दुखद यह है कि हेगड़े का कार्यकाल समाप्त हो गया, अन्यथा वह 2000 तक पीछे जा सकते थे जब शासकों ने अवैध खनन के फायदेमंद पक्ष को चीन की रुचि के कारण देखा था। चीन ने भारतीय बाजार में जो भाव थे उनसे कई गुना की पेशकश की थी। अवैध खनन के सिलसिले को दो रेड्डी बंधुओं ने पूर्णतया दी, जिनमें से एक कर्नाटक में मंत्री हैं। उनकी राजनीति में रुचि तब शुरू हुई जब उन्होंने यह पाया कि राज्य विधानसभा के ज्यादातर सदस्य खरीदे जा सकते हैं। उन्हें कर्नाटक में अल्पमत भाजपा को बहुमत वाले दल में बदलने का श्रेय जाता है। भाजपा को 109 सीटों पर विजय मिली थी, किंतु अब उसके 120 सदस्य हैं।
कांग्रेस ने अपने घोटालों का इसी आधार पर बचाव किया है कि भाजपा को येद्दयुरप्पा के कारण भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार नहीं है। कांग्रेस 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में धांधली के आरोपों से घिरी है। यह घोटाला प्रधानमंत्री और पूर्व वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम से त्यागपत्र देने की मांग करने के लिए भाजपा के हाथ आ गया है। पूर्व संचार मंत्री ए. राजा, जिन्होंने लाइसेंस प्रक्रिया और प्राइसिंग के मामले में गजब ढाया है, ने सीबीआइ की अदालत में प्रधानमंत्री का नाम लिया है और कहा है कि उन्हें सब पता था। सच है कि एक अभियुक्त अपने को बचाने के लिए सब कुछ कहता है, किंतु राजा के प्रधानमंत्री और पूर्व वित्त मंत्री के विरुद्ध आरोपों की आसानी से अनदेखी नही की जा सकती। अब सर्वोच्च न्यायालय सारे केस की निगरानी कर रहा है, अतएव यह उचित है कि किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले परिणाम की प्रतीक्षा की जाए। राजा के विरुद्ध चल रहे इस केस में जो बात उलझन बढ़ाने वाली है वह है सत्तारूढ़ गठबंधन में कांग्रेस की भागीदार द्रमुक का खुला समर्थन। द्रमुक के एक वरिष्ठ सदस्य टीआर बालू इस सप्ताह सुनवाई पर उपस्थित थे। कांग्रेस द्रमुक के खिलाफ कोई कदम नही उठा सकती, क्योंकि सरकार लड़खड़ा सकती है। द्रमुक के लोकसभा में 16 सदस्य है, जिनका समर्थन सरकार को प्राप्त है।
संसदीय लोकतंत्र में कतिपय प्रक्रियाएं हैं, जिनका पालन किया जाना चाहिए। विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सही कहा है कि कुछ मुद्दे हैं जिन्हें राजनीति से ऊपर रखना चाहिए और उन पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण से दृष्टिपात किया जाना चाहिए, किंतु वह वही व्यक्ति हैं जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और एक्टिविस्टो की ईमानदारी पर प्रहार करने के लिए तुच्छ मामलों को चुनते हैं। फिर भी जेटली गंभीरता सहित सोचते हैं कि लोग उनकी लचर बातों को ध्यान से सुनें। जितना शीघ्र वह अपने कल्पना लोक से बाहर आएंगे उतना ही उनके लिए और उनकी पार्टी के लिए बेहतर होगा। उन्हें गृहमंत्री चिदंबरम के इन आरोपों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि भाजपा ने कांग्रेस के विरुद्ध अपने हमले इसलिए तेज कर दिए है, क्योंकि हिंदू आतंकवादियों के केस अंतिम चरण में पहुंच रहे हैं।
लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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