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बड़ी लड़ाई की अधूरी तैयारी

जागरण मेहमान कोना
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केंद्रीय मंत्रिमंडल का फेरबदल जिस पैमाने पर हुआ है और जितने बड़े लोगों को उखाड़ने-जमाने का काम हुआ है उसे देखते हुए इसे एक बार में खारिज करना उचित नहीं होगा, पर ये दो पहलू जितने सवालों का उत्तर देते हैं और बाकी पर खामोश होने की उम्मीद करते हैं, सवाल उसी तेजी से सामने आते हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि यही मंत्रिमंडल मई 2009 में क्यों नहीं बनाया जा सकता था? तब उनका नेतृत्व इन लोगों की काबिलियत क्यों नहीं पहचान पाया था? इस बीच सरकार में रहे लोगों ने तो बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके चलते तीसरी बार कैबिनेट में फेरबदल हुआ है, पर यह साफ नहीं है कि जो लोग बाहर रह गए थे और अब सरकार में आए हैं, उन्होंने इस बीच क्या कुछ करके नेतृत्व को प्रभावित किया है?


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Arvind Mohanमंत्रिमंडल का विस्तार काफी समय से टल रहा था-श्राद्ध पक्ष जैसे हरसंभव बहाने के चलते, लेकिन इसकी जरूरत तभी से महसूस की जाने लगी थी जब पिछला विस्तार हुआ था, क्योंकि उसके बाद से घोटालों के खुलासों ने न सिर्फ कई मंत्रियों का सरकार में बने रहना मुश्किल कर दिया था, बल्कि जिन लोगों के खिलाफ नेतृत्व कदम उठाने से बच रहा था उनकी मौजूदगी पूरी सरकार और संप्रग कुनबे की छवि को ध्वस्त कर रही थी। बेलगाम महंगाई ने भी सरकार का इकबाल खत्म करने में कोई कमी नहीं रहने दी थी। सो अब दूसरा सवाल यही होगा कि क्या इस फेरबदल से सरकार अपना खोया इकबाल वापस पा सकेगी? शायद नहीं। यह माना जाता है कि अगले एक-डेढ़ साल में सरकार बड़े पैमाने पर आधार के सहारे गरीब लोगों के खाते में सीधे धन ट्रांसफर करने वाली योजनाएं चलाने जा रही है।


उसके साथ इस फेरबदल को जोड़कर देखें तो एक साफ रणनीति दिखती है, पर यह कहना मुश्किल है कि इससे सरकार की साख और गिरता समर्थन वापस आ जाएंगे। इस विस्तार से सरकार ने कई छोटी राजनीतिक लड़ाइयों के प्रति अपनी चालाकी दिखाने की कोशिश की है। अपेक्षाकृत नए पल्लम राजू को भारी-भरकम मानव संसाधन मंत्रालय देने के अलावा आधा दर्जन तेलुगू लोगों को सरकार में जगह देकर कांग्रेस ने शायद आंध्र में मिल रही जगन रेड्डी और तेलंगाना आंदोलन की चुनौती का जवाब देने की कोशिश की है। ऐसा ही प्रयास ममता बनर्जी की चुनौती के मद्देनजर अधीर रंजन चौधरी जैसी दागी छवि वाले कई बंगाली सांसदों को सरकार में जगह देकर किया गया है। इस मामले में यही कहना उचित होगा कि इससे राजनीतिक चुनौतियां तो नहीं ही निपटेंगी, उल्टे सरकार में नाकाबिल लोगों का बोझ बढ़ने से सरकार की नैया जरूर डगमगाने लगेगी। हां, असम और अरुणाचल प्रदेश के लोग कोटे से आए हों या कथित रूप से राहुल भक्ति से, उनका स्वागत किया जाना चाहिए।


पर झारखंड, ओडि़शा, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्य बेहतर प्रतिनिधित्व की आस लगाए ही रह गए। हर बार राहुल गांधी के सरकार में आने और युवा लोगों को तरजीह मिलने न मिलने का मसला भी पता नहीं क्यों उठने लगता है? एक तो राहुल या सोनिया गांधी का आदमी हुए बगैर कोई कांग्रेस की तरफ से मंत्री कैसे बन सकता है, दूसरे अगर राहुल गांधी मंत्री बनने की जगह संगठन में काम करना चाहते हैं तो यह अच्छी बात है और इसकी आलोचना क्यों होनी चाहिए? और चीजों के लिए न भी हो तो कम से कम इस बात के लिए राहुल गांधी की तारीफ तो की ही जानी चाहिए। कांग्रेस को भाग्यशाली मानना चाहिए कि वहां सोनिया गांधी और राहुल जैसे लोग हैं जो आज के युग में भी सरकार की जगह पार्टी संगठन को तरजीह दे रहे हैं। अगर अपेक्षाकृत नए और कम बदनाम लोगों को ढंग का काम देने का मसला आधार माना जाए तो इस फेरबदल में भले ही शत प्रतिशत मनचाहा बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन स्थिति पहले से बेहतर जरूर हुई है। सचिन पायलट, अजय माकन, सिंधिया, रानी नाराह जैसों को निश्चित रूप से ज्यादा भाव मिला है।


इसका श्रेय अगर कोई राहुल गांधी को अलग से देना चाहे तो दे सकता है। फिर उत्तर प्रदेश चुनाव के समय से विवादों में रहे सलमान खुर्शीद जब एक बड़े विवाद में फंसे हों, तब उन्हें सीधे विदेश मंत्री बनाना, आइपीएल विवाद में कुर्सी गंवाने वाले शशि थरूर की वापसी, अधीर चौधरी के मंत्री बनने से कोयला घोटाला समेत कई अन्य विवादास्पद मामलों में उलझे लोगों को सरकार में बनाए रखने का ठीकरा भी उनके ही सिर फूटेगा। सबसे त्रासद तो जयपाल रेड्डी का पेट्रोलियम मंत्रालय से विदा होना है, जो एक बडे़ औद्योगिक घराने को अनुचित लाभ रोकने के फैसले को लेकर चर्चा में आए थे। अगर इस चर्चा के बाद भी उनकी विदाई हो गई है तो इसे सरकार की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला काम तो नहीं ही माना जा सकता। मंत्रिमंडल की औसत उम्र कम हुई है, पर लगभग सारे युवा किसी न किसी पुराने नेता के नाते-रिश्तेदार हैं। अल्पसंख्यकों और महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है और 143 सांसद भेजने वाले पूरे पूर्वी क्षेत्र से एक भी कैबिनेट मंत्री का न होना एक बड़ी कमजोरी दिखाता है। अंत में यह सवाल बना रहता है कि कांग्रेस और सरकार को इस बदलाव से कितना लाभ मिलेगा? क्या सरकार की छवि सुधरेगी, जैसी कि कांग्रेस अपेक्षा कर रही है। इसमें शक नहीं कि कांग्रेस ने अगले आम चुनाव की तैयारी के लिए अपनी ओर से सारे घोड़े खोल दिए हैं।


उसकी दिशा और दशा का कुछ अंदाजा तब होगा जब सरकार में फेरबदल के बाद पार्टी के अंदर के बदलाव सामने आएंगे। सरकार का रंग-रूप जरूर बदला है, पर इकबाल लौटता है या नहीं, यह देखने की चीज है। कांग्रेस सरकार की प्रतिष्ठा में भारी गिरावट आई है। उसे मंत्री बदलने और मंत्रालय बदलने भर से नहीं दूर किया जा सकता, लेकिन यह सवाल बना रहेगा कि अब तक कांग्रेस को ये बदलाव करने से कौन रोक रहा था? फिर यह रणनीति कितनी कारगर होगी कि आप सारा महत्व दक्षिण को दें और पूरब को भूल जाएं। जब तक यह राय नहीं बनती कि सरकार और कांग्रेस में अच्छे काम का पुरस्कार और बुरे की सजा मिलती है तब तक बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। जो भी हो, सच्चाई यह है कि सरकार और कांग्रेस तो कुछ करते दिखती भी है, विपक्ष तो हाथ पर हाथ धरे बैठा तमाशा ही देख रहा है।


लेखक अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार हैं


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