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छत्तीसगढ़ में 7 अक्टूबर को लैंडमाइन धमाके में माओवादी विद्रोहियों ने चार जवानों को मौत के घाट उतार दिया। फिर भी इस खबर ने लोगों का ध्यान नहीं खींचा। अखबारों में छोटी सी खबर छपी और अगले दिन गायब हो गई। इस खबर के साथ इतना तिरस्कारपूर्ण व्यवहार नहीं होता, अगर यह किसी जिहादी द्वारा किया गया आतंकी धमाका होता। भारतीय माओवाद को गंभीरता से नहीं लेते। इसको लेकर वे विभ्रम का शिकार हैं। माओवादी समस्या पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं। कुछ इसे कानून और व्यवस्था की समस्या मानते हैं और कुछ आर्थिक विकास की। दरअसल, माओवाद दोनों समस्याओं के मेल की पैदाइश है। किंतु सच्चाई यह भी है कि जब तक शांति नहीं होगी तब तक विकास भी संभव नहीं है। इसलिए माओवाद को आतंकवाद के रूप में लेना चाहिए। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जिन्हें माओवादियों और नक्सलवादियों का हमदर्द माना जाता है, को भी यह एहसास हो गया है कि माओवादी आतंकवादी ही हैं। कुछ माह पहले एक टीवी चैनल पर एक स्टाइलिश वामपंथी महिला कह रही थीं कि माओवादियों को लेकर हमारी समस्याएं पूंजीवादी आर्थिक मॉडल और 1991 के बाद शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण से उपजी हैं।
भारत में नवधनाढ्य वर्ग भद्दे उपभोगवाद को बढ़ावा दे रहा है। उनके विचार में, अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई ही माओवादी समस्या की जड़ है। कार्यक्रम में मैंने कहा कि आदिवासियों सहित तमाम गरीबों के उत्थान के लिए आर्थिक वृद्धि निहायत जरूरी है। हालांकि केवल यही काफी नहीं है। लोगों को स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, ईमानदार पुलिसकर्मी और वन अधिकारी भी चाहिए। असल समस्या आर्थिक ढांचा नहीं, बल्कि कुशासन है। इसलिए विकास को दोष मत दीजिए। दोष दीजिए सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करने में अक्षम राज्य की सरकारी मशीनरी को, खासतौर पर सुदूर कबीलाई इलाकों में, जहां पुलिस और वन अधिकारियों का दमनचक्र जारी है। कबीलाई इलाकों में माओवाद से निपटने के लिए पहले तो कानून-व्यवस्था कायम करनी होगी। इसके लिए सार्वजनिक संस्थानों-पुलिस, नौकरशाही और न्यायपालिका में सुधार लाना होगा। हमें आर्थिक मॉडल पर निरर्थक चर्चाओं से हताश नहीं होना चाहिए। माओवाद आतंकवाद है।
आतंकवाद भयदोहन के लिए हिंसा या शक्ति का प्रयोग करता है। वामपंथी इसे जन संघर्ष के रूप में प्रदर्शित करते हैं किंतु प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2004 में ही घोषणा कर दी थी कि माओवाद भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है। पिछले छह सालों से माओवादी सबसे बड़े शत्रु बने हुए हैं। इस साल अप्रैल में माओवादियों ने 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। इसके बाद छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में उन्होंने एक बस में विस्फोट कर 30 लोगों की हत्या कर दी थी। यही नहीं, उन्होंने ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर भयावह हमला कर निर्दोष लोगों की जानें लीं। 2004 से भारत में माओवादी सात हजार घटनाओं को अंजाम दे चुके हैं, जिनमें साढ़े पांच हजार लोग मारे गए। 2009 में माओवाद ने हर आठ घंटे में एक जान ले ली। माओवाद के हमदर्द विकास के अभाव का रोना रोते हैं जबकि 2008 और 2009 में दो सालों के दौरान माओवादियों ने 1700 स्कूलों को ध्वस्त कर दिया है। पिछले एक दशक में जिहादी आतंक से अधिक जानें माओवादी हमलों में गई हैं। माओवादी गुरिल्लों ने राज्य सत्ता को शत्रु और टकराव को युद्ध की संज्ञा दी है। भारत के छह सौ जिलों में से 220 में यानी हर तीन में से एक जिले में युद्ध छिड़ा हुआ है। देश के बीचोबीच गृहयुद्ध के हालात के मद्देनजर इस वक्त आवश्यकता राजनीतिक इच्छाशक्ति की है, तभी हम इन हिंश्च लोगों से बच सकते हैं जो भारतीय संसदीय लोकतंत्र को माओवादी अधिसत्ता में बदलने में यकीन रखते हैं। हमें सशस्त्र संघर्ष द्वारा सरकार को पलटने के माओवादियों के लक्ष्यों को नहीं भूलना चाहिए। हमारा पहला कर्तव्य भारतीय लोकतंत्र को बचाना है। इसमें जितनी भी खामियां हों, किंतु अंतत: आदिवासी क्षेत्रों में भी लोकतंत्र ही गरीबों के लिए आशा की एकमात्र किरण है। इन क्षेत्रों में विकास तभी हो सकता है, जब शांति कायम हो जाए।
सशस्त्र विद्रोह को दबाने का एकमात्र हल जबरदस्त सैन्य कार्रवाई ही हो सकती है। जो लोग यह सोचकर खुद को भुलावे में रखते हैं कि माओवादी भटके हुए नौजवान हैं, उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि माओवादी भारत में लोकतंत्र को ध्वस्त कर इसके बदले एकल सत्तात्मक माओवाद की स्थापना करना चाहते हैं, जैसाकि चीन में माओ त्से तुंग ने किया था। उन्हें याद रखना चाहिए कि इसी विचारधारा के कारण चीन माओ के कार्यकाल में दशकों तक पिछड़ा रहा। इस प्रकार की विचारधारा से भारत को बचाने की लड़ाई दक्षिण दिल्ली में नवधनाढय वर्ग के किसी ड्राइंग रूम में बहस से नहीं जीती जा सकती। मैं प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय से सहमत नहीं हो सकता। हाल ही में मैंने उनकी पुस्तक लिस्निंग टु ग्रासहूपर्स पढ़ी। मैं इसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति से अभिभूत होते हुए इसके निष्कर्षो से पूरी तरह असहमत हूं। हिंसा को समर्थन के विचार से मैं उनके प्रति घृणा से भर गया। वह नक्सलवाद को ढोंगी लोकतंत्र के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध बताती हैं। रॉय सोचती हैं कि भारत विश्व को प्रभावित करने के लिए लोकतंत्र का ढोंग करता है। मैं सोचता हूं कि हमारा लोकतंत्र बिल्कुल खरा है। हां, इसमें बहुत से दोष हैं, किंतु यह वैधानिक है। हमें पुलिस में सुधार, न्याय में रफ्तार, नौकरशाही में जवाबदेही लानी होगी और राजनीति को अपराधियों से मुक्त करना होगा।
लोकतंत्र की ढेरों अच्छाइयों का भी लाभ देश को मिला है। इसने समाज के निम्नतम तबके के आत्मसम्मान को कायम किया है और बीसवीं सदी के जातीय संहार से देश को बचाया है। गुजरात का दाग जरूर लगा है जहां दो हजार लोग मारे गए किंतु माओ के चीन में तो पांच करोड़ लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। फिलहाल हमारे पास ऐसा गृहमंत्री है जो माओवादी खतरे को समझता है और इसके खिलाफ कार्रवाई करने को प्रतिबद्ध है। दारुण स्थिति यह है कि विकास बनाम पुलिस और कार्रवाई में हेलिकॉप्टरों के इस्तेमाल जैसी अंतहीन बहसों ने उनकी गति धीमी कर दी है। हम दो दशकों से बातों में उलझे हैं। अब कोई किंतु-परंतु नहीं चलेगा। आप हथियारबंद लोगों के साथ वार्ता नहीं कर सकते। अब कार्रवाई का समय है।
लेखक गुरचरण दास वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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