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जनता के हित में है यूपी का विभाजन

जागरण मेहमान कोना
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उत्तर प्रदेश के विभाजन के प्रस्ताव को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और राज्य पुनर्गठन की कसौटी पर परख रहे हैं सुधींद्र भदौरिया


उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने चार राज्यों के गठन के प्रस्ताव को पारित करके केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति में हलचल मचा दी है। उत्तर प्रदेश के बंटवारे की मांग नई नहीं है। चौधरी चरण सिंह अलग पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मांग करते रहे थे। अब उनके बेटे अजित सिंह हरित प्रदेश की मांग उठा रहे है। बुंदेलखंड को भी पृथक राज्य बनाने की मांग समय-समय पर उठती रही है। बुंदेलखंड पिछड़ा हुआ इलाका है। हालांकि खनन के मामले में यह उत्तर प्रदेश का सबसे समृद्ध इलाका है। अगर यहां का पैसा यहीं लगता तो आज यह विकास में कर्नाटक की तरह अग्रणी होता। पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान भी कुछ दशकों से पूर्वाचल की मांग कर रहे हैं। यह दुनिया का सबसे समृद्ध सांस्कृतिक इलाका रहा है। यह बौद्ध धर्म से लेकर संत कबीरदास के क्रांतिकारी विचारों का आधार केंद्र रहा है। दूसरी तरफ काशी से लेकर प्रयाग तक का आजादी की लड़ाई, उच्च शिक्षा और साहित्य सृजन में अद्वितीय योगदान रहा। यहां की जमीन में जो उर्वरता है वह शायद ही देश के किसी अन्य भाग में हो। पर आजादी के बाद यह इलाका भी पिछड़ता चला गया, खासतौर पर औद्योगिकरण के क्षेत्र में।


अवध का इलाका 1857 से लेकर हर राष्ट्रीय बहस और आंदोलन में अग्रणी स्थान पर रहा है। 1957 के दौरान अवध के इलाके में विद्रोह हुआ। लखनऊ के नवाब, कानपुर के किसान और बाकी हिस्सों के सिपाहसलारों ने गंगा और गोमती के किनारे त्याग और बलिदान का अद्भुत परिचय दिया। चंद्रशेखर आजाद भी इसी मिट्टी के सपूत थे। पर इतने त्याग के बाद भी इस इलाके में कोई समृद्धि या संपन्नता का चिह्न नजर नहीं आता।


मायावती की उत्तर प्रदेश राज्य पुनर्गठन की पहल को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ राज्य निर्माण की प्रक्रियाओं के संदर्भ में भी परखना जरूरी है। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष भीमराव अंबेडकर की राय छोटे राज्यों के पक्ष में थी। वह लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे। उनका मानना था जनता की भावनाओं और चुस्त प्रशासनिक व्यवस्था के लिए महाराष्ट्र जैसे प्रांत में विदर्भ का अलग राज्य के तौर पर निर्माण करना जरूरी है। एमएस एनी और बृजलाल बियानी ने इस विचार को मजबूती के साथ राज्य पुनर्गठन आयोग के सम्मुख प्रस्तुत किया। इसके अध्यक्ष फजल अली ने सभी बातों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त महाराष्ट्र को दो राज्यों में बांटने का समर्थन किया। पर महाराष्ट्र सरकार में मंत्री यशवंत राव चव्हाण और कृष्णा राव पाटिल के दबाव में जनभावनाओं को दरकिनार कर दिया गया। उस समय से लेकर आज तक विदर्भ राज्य की मांग उठती रही है। वसंत साठे भी इसके समर्थक रहे हैं। पर प्रबल निहित स्वार्थो की वजह से आज तक विदर्भ राज्य नहीं बन पाया है। सन 2003 में वसंत साठे और एनके साल्वे ने अलग राज्य की मांग करते हुए विदर्भ राज्य निर्माण कांग्रेस का भी गठन किया। सन 2009 से विदर्भ संग्राम समिति के बैनर तले 95 से अधिक संगठन इस मांग को उठा रहे हैं। इसी तरह आजादी के तुरंत बाद से तेलंगाना को भी अलग राज्य बनाने की मांग उठती रही है। इस आंदोलन को कभी चेन्ना रेड्डी, बद्री विशाल पित्ती और तेलंगाना क्षेत्र के अन्य कई महत्वपूर्ण नेता उठाते रहे। फजल अली की अध्यक्षता में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग ने 1955 में इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की, पर सभी प्रयास व्यर्थ गए।


सन 2004 में तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के लिए चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में संघर्ष तीव्र से तीव्रतर होता गया। इस पूरे हिस्से में पृथक तेलंगाना मांग करने वालों को चुनावों में भी अप्रत्याशित सफलता मिली। इस तरह के उतार-चढ़ाव के बीच सन 2009 में तेलंगाना की मांग को अभूतपूर्व समर्थन हैदराबाद से लेकर इस अंचल के गांवों तक में मिला। चंद्रशेखर राव का अनशन सरकार के लिए गले की हड्डी बन गया। जन दबाव में केंद्र सरकार ने 9 दिसंबर, 2009 को इस मांग को मान लिया पर आज तक लागू करने में आम सहमति के नाम पर बाधाएं खड़ी कर मामले को लटका रही है।


इस मांग को समय-समय पर देश में परिवर्तन की राजनीति करने वाले नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया भी समर्थन देते रहे है। जयप्रकाश नारायण का मानना था कि जब अमेरिका पचास राज्यों वाला संघीय राष्ट्र है तो भारत में कम से कम 100 राज्य बनने ही चाहिए। उन्होंने छोटे राज्यों के समर्थन में जवाहर लाल नेहरू को भी लिखा। डॉ. लोहिया ने तेलंगाना आंदोलन का जोरदार समर्थन किया।


विकास की दृष्टि से भी राज्यों का विभाजन सकारात्मक रहा है। पंजाब और हरियाणा का विभाजन दोनों ही राज्यों के लिए लाभप्रद रहा। कृषि, उद्योग, सड़क निर्माण इन दोनों राज्यों की खासियत रही हैं। गुजरात और महाराष्ट्र का अनुभव भी कुछ इसी तरह का है। दोनों प्रांत कृषि और उद्योग में अव्वल है।


उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के इस निर्णय से एकाधिकारवादी, सामंतवादी और जातिवादी शक्तियां परेशान हैं। इस निर्णय के पीछे मंशा जो भी हो, परिणाम सकारात्मक होंगे और अगर फैसला जमीनी धरातल पर उतरता है तो उत्तर प्रदेश की जनता के लिए यह सबसे बड़ा तोहफा होगा। इसका देश की राजनीति पर दूरगामी असर पड़ेगा और संघीय ढांचे को मजबूती भी मिलेगी।


लेखक सुधींद्र भदौरिया समाज विज्ञानी हैं


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