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उत्तर प्रदेश विभाजन के प्रस्ताव को ज्वलंत समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने का हथकंडा बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
घेराव में फंसा हाथी बड़ा उत्पात मचाता है, तोड़फोड़ करता है, घरों और वृक्षों को भी तहस-नहस कर देता है। तमाम आरोपों से घिरी उत्तर प्रदेश की मुख्यमत्री मायावती ने चुनावी साल में उत्तर प्रदेश को चार खंडों में तोड़ने का प्रस्ताव किया है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में अकाल और भुखमरी है, रोटी-रोजी की कौन कहे पेयजल का भी अभाव है। पूर्वाचल की गरीबी और व्यथा भयावह है। पूर्वाचल और बुंदेलखंड को जो सहायता चाहिए, वह मिली नहीं। पर मुख्यमत्री ने पश्चिम, अवध, बुंदेलखंड व पूर्वाचल – चार राज्यों का मसौदा बनाया है। सविधान निर्माताओं ने मूलत: नौ सामान्य व जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद सहित 11 विशेष श्रेणी के राज्य बनाए थे। बाद में तमाम कारणों से 1953 में आंध्र प्रदेश, 1956 में केरल व कर्नाटक, 1960 में बंबई को तोड़कर महाराष्ट्र व गुजरात, 1962 में नागालैंड, 1966 में हरियाणा, 1970 में हिमाचल प्रदेश, 1971 में मेघालय, मणिपुर व त्रिपुरा, 1986 में मिजोरम व अरुणाचल, 1987 में गोवा और 2000 में छत्ताीसगढ़, उत्ताराखंड व झारखंड बने। संप्रति 28 राज्य व 7 केंद्रशासित क्षेत्र हैं।
मूलभूत प्रश्न यह है कि भारत को कितने राज्य चाहिए और क्यों चाहिए? तेलगाना जल रहा है। नए राज्य की माग राष्ट्रीय चुनौती है। पश्चिम बगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में विदर्भ, असम में बोडोलैंड व जम्मू-कश्मीर में जम्मू-लद्दाख की माग फिलहाल शांत हैं। लेकिन उत्तारी बिहार में मैथिल भाषायी मिथिलाचल की माग भी कर रहे हैं। गुजरात के तटीय क्षेत्र से सौराष्ट्र और उड़ीसा से कोशल राज्य की भी मागें हैं। बेशक सारे देश में क्षेत्रीय असतुलन है, विकास के लाभ का समान वितरण नहीं होता। लेकिन उत्तर प्रदेश को खत्म कर चार टुकड़ों में बाटने का प्रस्ताव स्वय मुख्यमत्री की तरफ से आया है। यहा नए राज्यों की माग पर तेलगाना जैसा कोई जनउद्वेलन नहीं है। अवध राज्य का विचार पहली दफा सुनने को मिला है। यहा बुंदेलखंड और पूर्वाचल के विकास की अलग निधिया हैं। आखिरकार मुख्यमत्री ने पूर्वाचल और बुंदेलखंड के लिए कोई विशेष प्रयास क्यों नहीं किए। प्रधानमत्री ने भी 2008 में वाराणसी में पूर्वाचल राज्य का शिगूफा छेड़ा। राहुल गाधी ने बुंदेलखंड के लिए ऐसी ही बातें कीं। केंद्र और राज्य सरकार ने गरीबी, अभाव दूर करने के लिए कुछ नहीं किया। प्रश्न है कि क्या नए राज्यों का गठन ही सारी समस्याओं का हल है?
भारत के राज्य गहन विचार-विमर्श से नहीं बने। भाषा पुराना आधार था, इसके बाद विभिन्न आंदोलन चले, राज्य बढ़ते गए। अंग्रेजी राज में भी साइमन कमीशन के समक्ष बंबई प्रेसीडेंसी से कर्नाटक और सिध को अलग करने की माग थी। डॉ. अंबेडकर ने विरोध किया, ‘एक भाषा-एक प्रात का सिद्धात इतना बड़ा है कि यदि इसे व्यावहारिक रूप से लागू किया जाए तो बहुत से प्रांत बनाने पड़ेंगे। आज वक्त का तकाजा है कि जनता के मन में साझी राष्ट्रीयता की भावना पैदा की जाए। यह भावना नहीं कि वे हिंदू, सिंधी, मुस्लिम या कन्नड़ है, वे मूलत: भारतीय हैं और अंतत: भारतीय ही हैं।’ उत्तर प्रदेश की मुख्यमत्री नोट करें कि डॉ. अंबेडकर राज्य तोड़ने के विरुद्ध थे, राष्ट्र सर्वोपरिता के मार्ग पर थे, लेकिन मुख्यमत्री सिर्फ राजनीति के लिए ही ऐसा खतरनाक चुनावी स्टंट कर रही हैं।
भारत के राज्य अस्थायी सवैधानिक इकाइया हैं। ससद को नए राज्यों के गठन, वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों की सीमाओं और नामों में परिवर्तन के अधिकार हैं लेकिन राज्य पुनर्गठन रोजमर्रा का राजनीतिक कर्मकांड नहीं है। पुनर्गठन का मतलब नए राज्य बनाना ही नहीं होता। कुछ को तोड़कर और कुछ को जोड़कर एक आदर्श राज्य इकाई बनाना ही पुनर्गठन होता है। राज्यों में कई तरह की विषमताएं हैं। कहीं भूक्षेत्र बड़ा है तो कहीं जनसख्या। एक निश्चित समयावधि में लोकसभा विधानसभा सीटों का परिसीमन होता है। वैसा ही परिसीमन राज्यों का भी क्यों नहीं हो सकता? वर्तमान राज्य व्यवस्था में अराजकता है। राज्यों के क्षेत्रफल और जनसख्या में जमीन-आसमान का फर्क हैं। सभी राज्यों का भूक्षेत्र लगभग बराबर क्यों नहीं हो सकता? लगभग एक समान जनसख्या क्यों नहीं हो सकती? आर्थिक, सास्कृतिक, जनसाख्यिक आदि सभी मसलों को जोड़कर एक आदर्श राज्य की रूपरेखा बनाना बहुत जरूरी है। भाषा, मजहब और राजनीतिक आग्रहों से मुक्त होकर आदर्श राज्य की परिभाषा बननी चाहिए।
नए राज्यों की मागों और आंदोलनों से बड़ी क्षति हुई है। स्वाधीनता सग्राम सेनानी पोट्टी श्रीरामुलु आंध्र की माग पर अनशन करते हुए प्राण गंवा बैठे। ऐसे अनेक आंदोलनों में राष्ट्रीय संपदा की भी भारी क्षति हुई है। तेलगाना की हालत आज भी बहुत खराब है। लेकिन उत्तर प्रदेश के हालात अलग है। यहा कभी भी क्षेत्रवाद नहीं रहा। राष्ट्र से भिन्न कोई सामूहिक अस्मिता नहीं रही। राज्य विभाजन की माग करने वाले छुटपुट महानुभावों ने क्षेत्रीय असतुलन और उपेक्षा के सवाल ही उठाए हैं। पूर्वाचल और बुंदेलखंड के अभाव वास्तविकता हैं लेकिन राज्य को चार खंडों में तोड़ने का प्रस्ताव परिशुद्ध राजनीतिक कवायद है। भ्रष्टाचार, अराजकता और किसान विद्रोह झेल रही मुख्यमत्री ने राज्य के ज्वलत प्रश्नों से जनता का ध्यान हटाने के लिए ही यह मुद्दा उछाला है। उन्हें ठीक पता है कि जो केंद्र तेलगाना जैसी औचित्यपूर्ण माग पर भी अनिर्णय का शिकार है, वह उनके अगभीर राजनीतिक स्टंट पर कतई गौर नहीं करेगा। वह गलतफहमी में हैं कि जनता राज्य विभाजन के प्रस्ताव पर उनके साथ खड़ी हो जाएगी।
बुनियादी सवाल राज्य गठन के मानक, आवश्यकता व औचित्य का है। आखिरकार भारत को कैसे राज्य चाहिए? क्या प्रशासनिक गुणवत्ता के लिए और नए राज्य चाहिए? राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली छोटा राज्य है। गृह विभाग केंद्र के हवाले है लेकिन कानून व्यवस्था खस्ता है। कई छोटे राज्यों में कम विधानसभा सदस्य सख्या के कारण आए दिन अस्थिरता रहती है। जातिवाद, सांप्रदायिकता, सामंतवाद और माफियावाद के भूतप्रेत राष्ट्रीय स्तर पर कम हैं, राज्य स्तर पर ज्यादा हैं, जिलास्तर पर उससे भी ज्यादा हैं। लेकिन वर्तमान राज्यों को जोड़कर बड़ा राज्य बनाने की मागें कभी नहीं उठतीं। नए राज्यों की मागे प्राय: राजनीतिक हैं। नया राज्य होगा तो राजकोष के उपभोक्ता बढ़ेंगे। जनता का कोई कल्याण नहीं होगा। सुशासन और विकास की मागों के अनुसार आदर्श राज्य का कोई मॉडल तो बनाना ही होगा- जनसख्या, क्षेत्रफल, क्षेत्रीय सास्कृतिक वैशिष्टय, प्रशासनिक विकेंद्रीकरण या सिर्फ राजनीतिक दुराग्रह।
लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं
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