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उत्तर प्रदेश के बंटवारे की पहल को वोट बैंक बढ़ाने की राजनीतिक चाल बता रहे हैं सुभाष कश्यप
उत्तर प्रदेश के बंटवारे की पहल और कुछ नहीं, बल्कि अपने राजनीतिक वोट बैंक को पुख्ता करने और बढ़ाने के उद्देश्य से चली गई एक राजनीतिक चाल है। यह वोट बैंक की राजनीति का ही एक राजनीतिक परिणाम है जिसमें सभी दल शामिल हैं। विरोधी दल भी सैद्धांतिक तौर पर विभाजन का विरोध नहीं कर रहे हैं, बल्कि विरोध इस मुद्दे तक सीमित है कि विभाजन कब हो, कैसे हो और इसका श्रेय किसे मिले? कोई भी यह नहीं कह रहा कि उत्तर प्रदेश का विभाजन देशहित के खिलाफ है। इसके अलावा मात्र नेताओं की कवायद के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश की जनता भी विभाजन के पक्ष में है। मेरे विचार से यदि उत्तर प्रदेश में विभाजन के बारे में जनमत संग्रह कराया जाए तो साफ हो जाएगा कि विभाजन के लिए राज्य की जनता तैयार नहीं है। यह अलग बात है कि विभाजन की राजनीति कर रहे राजनेताओं को जनता की राय और उसकी भावनाओं की बजाय अपने राजनीतिक स्वार्थ ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहे हैं। इसमें नेताओं का एक बड़ा निहित स्वार्थ यही है कि यदि उत्तर प्रदेश को खत्म कर चार नए राज्य बनते हैं तो अधिक से अधिक नेताओं को मंत्री पद बांटा जा सकेगा और कम से कम चार लोगों को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिल सकेगा। इससे विधायकों को और अधिक सुख-सुविधाएं मिलेंगी और छोटे राज्य होने से उनकी अहमियत अधिक होगी। इस तरह वे पहले से ज्यादा ऐशो-आराम की जिंदगी जी सकेंगे। इससे और कुछ चाहे हो या न हो, लेकिन आम जनता को फायदा होने की बजाय नुकसान ही अधिक होगा।
हाल ही में मैं पूर्वाचल गया था। वहां के प्रबुद्ध और आम लोगों ने इस पहल का विरोध करते हुए बताया कि यदि अलग पूर्वाचल राज्य बनता है तो यहां निश्चित तौर पर माफिया राज होगा। ऐसा होगा या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन लोगों की बातों से तो यही लगता है कि फिलहाल सरकार को जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं लेना चाहिए और इसके लिए राज्य के लोगों की भी राय ली जानी चाहिए। हालांकि, हमारे संविधान में जनमत संग्रह का कोई प्रावधान नहीं है फिर भी सरकार चाहे तो ऐसा कर सकती है। उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने भी राज्य के विभाजन का विरोध करते हुए एक मामले में साफ-साफ कहा था कि राम और कृष्ण की भूमि, गंगा और यमुना की भूमि को किसी भी हाल में बांटा नहीं जाना चाहिए। पंत भी कांग्रेसी थे, लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश के विभाजन को देशहित में स्वीकार नहीं किया था, लेकिन आज इसका उल्टा ही दिख रहा है।
वैसे भी यदि राज्य के विभाजन की संवैधानिक प्रक्रिया की बात की जाए तो भी यह काम इतना आसान नहीं जितना कि बताया जा रहा है और चुनाव नजदीक होने के कारण पुराने मुद्दों से प्रदेश की जनता को बहलाया-फुसलाया जा रहा है। नए राज्य की मांग केवल उत्तर प्रदेश में हो ऐसा नहीं है, यह विवाद मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के विदर्भ और राजस्थान आदि में भी है। इस क्रम में तेलंगाना का भी नाम शामिल किया जा सकता है, लेकिन वह एक अलग मामला है। तेलंगाना की जनता को वर्तमान केंद्र सरकार ने आश्वासन दिया था कि अलग राज्य बनाएंगे और इसी आधार पर जनता ने वोट किया था। इस कारण तेलंगाना की जनता के साथ तो सरकार विश्वासघात कर रही है, लेकिन बाकी राज्यों में ऐसा नहीं है। बेहतर हो कि नया राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया जाए, जो इन सारे मामलों पर नए सिरे से आज की परिस्थितियों के आधार पर विचार करे। इस सिलसिले में बहस छोटे राज्य बनाम बड़े राज्यों की भी है, लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है। छोटे राज्य सुशासन और आर्थिक प्रगति की गारंटी नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर हरियाणा और झारखंड को लिया जा सकता है। दोनों ही छोटे राज्य हैं, लेकिन जहां हरियाणा में प्रगति हुई वहीं प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होने के बावजूद झारखंड पिछड़ गया। हिमाचल प्रदेश का गठन जब हुआ तो वहां आर्थिक विकास का कोई तर्क नहीं था, लेकिन राज्य के निर्माण के बाद वहां आर्थिक गतिविधियों में तेजी आई। इसलिए मुद्दा विशिष्ट रूप से राजनीतिक-प्रशासनिक व्यावहारिकता का ही है।
वैसे भी उत्तर प्रदेश में जिन चार राज्यों के निर्माण की बात की जा रही है उनमें एक नाम बुंदेलखंड का भी है जिसमें कुछ हिस्सा मध्य प्रदेश का भी शामिल होना है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 में साफ-साफ कहा गया है कि राज्य की सीमाओं में किसी भी तरह के बदलाव का अधिकार सिर्फ संसद को है। जब दो राज्यों की सीमाओं में बदलाव अथवा विलय की बात आएगी तो मामला स्वत: ही राष्ट्रपति के पास पहुंच जाएगा जिसके लिए दोनों राज्यों का तैयार होना आवश्यक होगा और मुझे नहीं लगता कि इसके लिए मध्य प्रदेश फिलहाल तैयार होगा। इसलिए फिलहाल यही संभव है कि मायावती राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पास करके विधायिका की राय से केंद्र सरकार को अवगत करा दें। अब इस राय से केंद्र भी इत्तेफाक रखता है या नहीं अथवा वह कब तक इसे विचाराधीन रखता है इस पर राज्य सरकार का कोई वश नहीं होगा। अभी तो यह मामला बेहद प्रारंभिक स्तर पर है, क्योंकि राज्य की सीमाओं में बदलाव के लिए सर्वप्रथम राष्ट्रपति की संस्तुति पाने के लिए आग्रह किया जाएगा। इसके बाद राष्ट्रपति संबंधित राज्य के अलावा अपने कानूनी परामर्शदाताओं से राय लेंगे और तत्पश्चात वह अपनी सिफारिश से सरकार को अवगत कराएंगे। इसके बाद संबंधित बिल को दोनों सदनों में पेश किया जाएगा। यदि बिल सामान्य बहुमत से राज्यसभा और लोकसभा में पारित हो जाता है तो यह पुन: राष्ट्रपति के पास जाएगा और अंतिम स्वीकृति मिलने के बाद ही इस पर अमल का काम शुरू हो सकेगा। यह पूरा काम कोई एक-दो माह का नहीं है, बल्कि इसमें लंबा समय लगेगा। जाहिर है राज्य के विभाजन की पूरी कवायद और कुछ नहीं सिर्फ नारेबाजी, हंगामा और वोट बैंक हासिल करने के लिए है। छोटे राज्यों के निर्माण से केंद्र तो लगातार मजबूत होगा, लेकिन राज्य कमजोर होते जाएंगे जो लोकतंत्र की आदर्श स्थिति के लिए ठीक नहीं है। यह न राज्यों के हित में है और न ही देश अथवा लोकतंत्र के। इसलिए पूरे मसले पर नए सिरे से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
लेखक सुभाष कश्यप संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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