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फिर रथ पर सवार पुराने महारथी

जागरण मेहमान कोना
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Umesh Chaturvediभारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी से खुलेआम विरोध जता चुके बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर हरी झंडी दिखाने का मोह नहीं छोड़ पाए। रेलमंत्री रहते कितनी स्पेशल और सामान्य रेलों को हरी झंडी दिखाकर उन्होंने शुरुआत की थी, लेकिन इस बार वे एक ऐसे रथयात्री के लिए हरी झंडी लहराने वाले हैं, जिसकी रथ राजनीति को लेकर एक दौर में उन्हें परहेज रहा है। इस लिहाज से इस बार की झंडी ऐतिहासिक दर्जा हासिल करने जा रही है। जयप्रकाश नारायण के जन्मस्थान सिताबदियारा से आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी रथयात्रा को हरी झंडी दिखाकर नीतीश कुमार ही रवाना करने वाले हैं। यों तो जयप्रकाश नारायण का जन्मस्थान सिताबदियारा के जिस मुहल्ले में है, जहां उनकी याद में चंद्रशेखर द्वारा स्थापित जयप्रभा ट्रस्ट संचालित है, वह तो कायदे से उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में आता है। लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी रथयात्रा के रथी आडवाणी को मायावती के बजाय नीतीश कुमार से हरी झंडी लेना ज्यादा मुफीद नजर आया।


सवाल यह है कि जो नीतीश कुमार मोदी को बिहार में घुसने तक नहीं देना पसंद करते, जिनके चलते वे भाजपा के सम्मान भोज तक को रद कर सकते हैं, वे आखिर आडवाणी की रथयात्रा के लिए क्यों तैयार हो गए। दरअसल, इस हरी झंडी में भावी राजनीतिक इतिहास के कई सूत्र छिपे हुए हैं। जिन पर निगाह डालने से पहले हमें जान लेना चाहिए कि 1990 की आडवाणी की राम रथयात्रा को लेकर नीतीश कुमार और शरद यादव का नजरिया क्या था। तब समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ्तार करने का पूरा श्रेय लालू यादव को जाता है, लेकिन हकीकत यह है कि आडवाणी की गिरफ्तारी के पक्ष में खुद लालू यादव ही नहीं थे। तब जनता दल में अंतरकलह बढ़ गया था और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव आडवाणी की रथयात्रा को बिहार से उत्तर प्रदेश में घुसते ही पडरौना के पास रोकने की तैयारी कर चुके थे।


लालू के न चाहते हुए भी इन नेताओं ने तब के धनबाद के डिप्टी कमिश्नर अफजल अमानुल्लाह को आदेश दिया था कि उड़ीसा से बिहार में घुसते ही आडवाणी को रोक लिया जाए, लेकिन तब के डीसी और आज के बिहार के गृह सचिव अफजल अमानुल्लाह ने इससे इनकार कर दिया था। इसकी वजह उनका बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के अध्यक्ष सैय्यद शहाबुद्दीन से पारिवारिक रिश्ता होना था। तब शरद यादव की अगुआई में नीतीश कुमार और मोहन प्रकाश जैसे लोग रथयात्रा को बिहार में ही रोकने की कोशिश में जुट गए थे। शरद यादव की टीम ने जगदानंद सिंह को आडवाणी को गिरफ्तार करने की रणनीति बनाने और लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी। जाहिर है कि तब के राजनीतिक फैसलों में नीतीश कुमार की भी सहमति थी। लेकिन बदले हालात में नीतीश कुमार आडवाणी के साथ हैं और अब रथयात्रा को हरी झंडी भी दिखाने को तैयार हो गए हैं।


कहने के लिए तो आडवाणी की मौजूदा रथयात्रा का मकसद नब्बे की रथयात्रा जैसा नहीं है, लेकिन यह सच है कि तब भी आडवाणी की रथयात्रा के पीछे भाजपा की सत्ता की मंशा छिपी हुई थी और अब की भी रथयात्रा के पीछे उनकी इसी मंशा को देखा और समझा जा रहा है, लेकिन गांधी की तस्वीरों की छाया में अपने तीन दिवसीय उपवास में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह ध्यान आकर्षित किया है, उससे आडवाणी की मंशा पर एक हद तक ब्रेक लगता नजर आ रहा है। लेकिन अमेरिकी कांग्रेसनल रिसर्च कमेटी की रिपोर्ट ने जिस तरह दो मुख्यमंत्रियों नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की तारीफ की है, उससे दोनों ही मुख्यमंत्री एक साथ राष्ट्रीय भूमिका निभाने की दौड़ में शामिल नजर आने लगे हैं। इनमें से एक के पास बड़ी पार्टी और संघ परिवार का वैचारिक और सांगठनिक आधार है तो दूसरे के पास उतनी बड़ी पार्टी नहीं है। लेकिन सेक्युलर दलों में स्वीकार्यता की कहीं ज्यादा उम्मीद है। यह कहीं ज्यादा की उम्मीद भी संभवत: आडवाणी को अपने पाले में नीतीश को खींच लाने की वजह रही है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि नरेंद्र मोदी भी आडवाणी की ही पसंद और शिष्य माने जाते हैं।


2002 के दंगों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें हटाने का मन बना लिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ही ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने मोदी को नहीं हटाने दिया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो शख्स उनके ही शिष्य को बिहार में घुसने नहीं देना चाहता, आखिर उसे आडवाणी इतनी तवज्जो क्यों दे रहे हैं। कुछ इसी अंदाज में सवाल नीतीश कुमार को लेकर भी उठ रहे हैं कि दो दशक पहले जो शख्स आडवाणी की ही रथयात्रा का विरोधी था, वह हरी झंडी दिखाने के लिए क्यों तैयार हो गया है। माना जा रहा है कि आडवाणी नीतीश की हरी झंडी के जरिये सेक्युलर खेमे को संदेश देना चाहते हैं कि उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है। फिर उनकी रथयात्रा को लेकर जिस तरह से संघ परिवार में ही सवाल उठे और उसे अप्रासंगिक दिखाने-जताने की कोशिशें हुई, नीतीश की हरी झंडी के जरिये इन कोशिशों को जवाब देने की कवायद आडवाणी खेमा कर रहा है। वे यह भी जताने की कोशिश कर रहे हैं कि देश के दूसरे प्रभावी और असरदार मुख्यमंत्री नीतीश उनके साथ हैं। इसका साफ संदेश पार्टी और पार्टी से बाहर के हलकों में यही है कि मोदी के बावजूद भाजपा के असल नेता आडवाणी ही हैं। वहीं नीतीश कुमार का हरी झंडी दिखाने के लिए तैयार होने के पीछे का संकेत साफ है कि जरूरत पड़ी तो दिल्ली की गद्दी के लिए आडवाणी के साथ दावेदारी को लेकर वे भी तैयार हैं। दरअसल, जानकारों और राजनीतिक समीक्षकों के एक वर्ग को लगता है कि अगर राजग ताकत में आया और बहुमत से महज चंद कदम दूर रहा तो मोदी के नाम पर उसे दूसरे सेक्युलर समझे जाने वाले दलों का शायद ही साथ मिल पाए, लेकिन नीतीश के नाम पर यह संभव है।


राजनीति संभावनाओं का खेल है और इन्हीं संभावनाओं का सूत्र नीतीश भी तलाश रहे हैं और उसकी राह उन्हें हरी झंडी दिखाने के साथ आगे बढ़ती नजर आ रही है, लेकिन इसका एक संकेत यह भी है कि अगर वक्त पड़ने पर रथ विरोधी पर रथ को हरी झंडी दिखा सकता है तो वह वक्त के मुताबिक नए नेता के साथ भी जा सकता है। अगर नीतीश आडवाणी को हरी झंडी दिखा सकते हैं तो एक कदम आगे बढ़कर मोदी के साथ खड़े क्यों नहीं हो सकते। नब्बे के हिसाब से हरी झंडी दिखाना संभव नहीं लगता, लेकिन 2011 में यह संभव हुआ है तो 2014 में जालंधर क्यों न दोहराया जाएगा। जब 2009 के चुनावों में आखिर राजग की जालंधर रैली में मोदी के साथ नीतीश हाथ मिला ही चुके हैं।


लेखक उमेश चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं


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