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आखिरी विकल्प नहीं है आरक्षण

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मुसलमानों, गरीब स्वर्णो और जाटों को आरक्षण दिए जाने की मांग की है। सवाल यह है कि मायावती को समाज के इन वर्गो और जातियों को आरक्षण दिए जाने की याद इसी समय क्यों आई है? यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हमारे देश में शुरू से ही आरक्षण की व्यवस्था पर राजनीति होती रही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि पिछले दिनों आरक्षण नामक फिल्म पर भी राजनीति की गई। हालात यह हैं कि अब मुख्य मुद्दा पिछड़ों और दलितों का उद्धार नहीं रह गया है, बल्कि आरक्षण हो गया है। आरक्षण रूपी गेंद को सब अपने बल्ले से खेलना चाहते हैं। इसीलिए चारों ओर घमासान मचा हुआ है। आरक्षित जातियों में भी शांति कहां है? ये जातियां एक-दूसरे से ज्यादा आरक्षण प्राप्त करने के लिए लड़-भिड़ रही हैं। अब तो ब्राह्मण जैसी उच्च जातियां भी आरक्षण की मांग करने लगी हैं। पिछले दिनों एक कदम आगे बढ़कर आरक्षण के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी हमला हुआ। बहरहाल, इस समय चुनाव नजदीक आते देख मायावती आरक्षण के बहाने वोट बैंक पर निशाना साधने की कोशिश कर रही हैं। विडंबना यह है कि आरक्षण के तवे पर सब अपनी-अपनी रोटियां सेक रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम दलितों-पिछड़े वर्गो के उद्धार के लिए अन्य विकल्पों पर भी विचार करें। अगर आरक्षण ही देना है तो सरकार को अपने बजट का एक बड़ा भाग दलितों के लिए आरक्षित करना चाहिए ताकि इस बजट से दलितों के लिए अच्छे हॉस्टल, पुस्तकालय जैसी सुविधाओं की व्यवस्था की जा सके ताकि वे प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से अगड़ी जातियों की बराबरी सकें।


दलितों को आगे बढ़ाने के लिए अगड़ी जातियों को भी आगे आना होगा। इस उद्देश्य के लिए बिना किसी आरक्षण की सरकारी व्यवस्था के निजी संस्थानों में दलितों को प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे समाज में भी यह संदेश जाएगा कि अगड़ी जातियां दलितों की दुश्मन नहीं हैं। दुख की बात यह है कि अभी तक निजी क्षेत्र ने दलितों को प्रोत्साहित करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया है। यह सच है कि आरक्षण की वजह से उन लोगों का जीवन स्तर सुधरा है, जो समाज की मुख्य धारा से कटे हुए थे। इसलिए आरक्षण के महत्व एवं इसके उद्देश्यों पर किसी भी तरह शक नहीं किया जा सकता। इस दौर में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आज भी आरक्षण का उद्देश्य वही रह गया है, जो इस व्यवस्था की स्थापना के समय था? क्या कारण है कि आज समाज की मुख्य धारा से कटे लोगों के उत्थान के लिए आरक्षण को ही एक मात्र विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है? अगर हमारे नीति-निर्माताओं को दबे-कुचले लोगों के उत्थान या पतन की वास्तव में चिंता होती तो कुछ ऐसी नीतियां बनाई जातीं, जिनसे ऐसे लोग आत्मविश्वास से सराबोर होकर स्वयं ही आरक्षण जैसी व्यवस्था को नकार देते। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जिन्होंने आरक्षण की सुविधा के तहत नौकरी तो प्राप्त कर ली, लेकिन दूरदृष्टि एवं लगन के अभाव और कमजोर कार्ययोजना की वजह से कोई बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर पाए। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने विभिन्न संघर्षो के बावजूद आरक्षण की सुविधा नहीं ली, लेकिन दूरदृष्टि, लगन एवं स्पष्ट कार्ययोजना की वजह से एक नई ऊंचाई छूकर दूसरों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने।


इसलिए आरक्षण को ही जिंदगी की सफलता का सूचक मान लेना तर्कसंगत नहीं है। हमें यह समझने की जरूरत है कि इस दौर में हमारे राजनेता हमें आरक्षण का स्वप्न दिखाकर अपना हित साध रहे हैं। अगर आरक्षण को राजनीति से न जोड़ा जाता तो यह दबे-कुचले लोगों के उत्थान का एक बहुत ही सशक्त माध्यम होता। हमारे राजनेताओं द्वारा आरक्षण को राजनीति से जोड़ने के कारण आज यह व्यवस्था नेताओं के उत्थान का एक सशक्त माध्यम बन गई है। आरक्षण की राजनीति के कारण अगर किसी का पतन हो रहा है तो वह आम जनता ही है। दरअसल, आरक्षण की राजनीति स्थापित और छुटभैये दोनों ही तरह के नेताओं को एक मंच प्रदान करती है। ये राजनेता अपनी जाति और अपने वर्ग के लोगों का हितैषी बनने के चक्कर में ऐसे मुद्दों पर हल्लाबोल कार्यक्रम चलाते हैं। मौजूदा दौर में कुछ पिछड़ी जातियां अन्य जातियों को पिछडे़ वर्ग में शामिल करने पर ऐतराज जता रही हैं। लिहाजा, विभिन्न जातियों के बीच आपसी संघर्ष बढ़ता जा रहा है। अगर आरक्षण के नाम पर समाज से आपसी भाईचारा खत्म हो रहा है तो इसकी प्रासंगिकता पर पुनर्विचार किया जाना जरूरी है।


लेखक रोहित कौशिक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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