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कन्या शिशुओं की हत्या भारत के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले कई सालों में यह अपराध एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने बालिका शिशु के लिए भारत को सबसे घातक देशों में रखा है। कन्या शिशु की जन्म के एक वर्ष के भीतर या तो जहरीला पदार्थ खिलाकर मार डालते हैं अथवा गर्भ में पल रहे भ्रूण के बालिका होने की जानकारी होने पर उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है। एक सास को जब पता चलता है की उसकी बहू के गर्भ में पल रहा शिशु बालिका है तो वह बहू पर गर्भपात करने के लिए दबाव डालती है। ऐसी घटनाएं न ही काल्पनिक हैं और न ही कभी-कभार घटने वाली घटनाएं हैं। ऐसी घटनाएं आएदिन होती रहती हैं यह अलग बात है कि इस तरफ किसी का ध्यान शायद ही कभी जाता है। इस तरह हम बालिका शिशु के जीने का अधिकार छीन रहे हैं या तो उन्हें इस दुनिया का दर्शन करने के पहले ही मार दिया जाता है और नहीं तो उन्हें जन्म के तुरंत बाद हमेशा के लिए सुला दिया जाता है। यह एक क्रूर सच्चाई है कि बालिका शिशु को जीवित रहने का बुनियादी हक तक नहीं है। मनुष्यों में विशेषकर भारतीयों में बेटों को वरीयता देने की एक पुरानी और विसंगत परंपरा है। बेटे संपति हैं और बेटियां कर्ज। भारतीय परंपरा में हम सिर्फ संपति चाहते हैं, कर्ज नहीं। यह कैसी क्रूर स्थिति है जिसमें हम जी रहे हैं। आखिर बालिकाओं के प्रति यह घातक भेदभाव क्यों है? क्या यह अज्ञानता के चलते है अथवा ऐसा लालची होने के कारण है। इसका एक उत्तर पैसा है। हमारी परंपरा में बहुत सी बुराइयां हैं लड़कियों के लिए लड़कों का चयन रुपये और धन के आधार पर किया जाता है। रुपया और धन यानी दहेज ही सबसे बड़ा दुश्मन है जो हमारी बालिकाओं की हत्या के लिए जिम्मेदार है।
वर्तमान वैश्वीकरण के युग में भी लड़कियां माता पिता पर बोझ हैं, क्योंकि उनके विवाह के लिए महंगा दहेज देना होता है। दहेज प्रणाली एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा है जो सबसे बड़ा कारण है बालिकाओं की हत्या के लिए। हम सिर्फ लड़के और लड़कों को ही वरीयता देते हैं। भारत में यह एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा है जिसे कोई भी कानून शायद ही खत्म कर सके। वर्ष 1985 से लाखों बालिकाएं इस पवित्र भूमि से गायब हैं। इन आंकड़ों की सच्चाई जानने के बाद भी हमारा दिल नहीं पिघलता। आखिर यह मौन क्यों है और क्या हमारा दिल पत्थर हो गया है। शायद यह एक सच्चाई बन गया है। आखिर उन लाखों लड़कियों की गलती क्या है और क्या उन्हें इस दुनिया में जीने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। यह वह देश है जहां कभी एक महिला प्रधानमंत्री थी और आज एक महिला राष्ट्रपति हंै और कुछ राज्यों में महिलाएं मुख्यमंत्री पद पर आसीन हैं, लेकिन बावजूद इसके हमारे देश में महिलाएं उपेक्षित हैं। लड़कों को वरीयता देने की पुरानी परंपरा बदस्तूर जारी है तथा जन्म के पहले शिशु के लिंग का परिक्षण के कारण देश में लड़का-लड़की का अनुपात पूरी तरह गड़बड़ा गया है। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहां लिंगानुपात एकदम असंतुलित है। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों में यह चौंकाने वाली बात सामने आई है। 35 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में से 28 में लड़के और लड़कियों के अनुपात में भारी अंतर है।
हरियाणा और पंजाब ऐसे जुड़वें राज्य हैं जहां बालिका शिशु को नफरत से देखने की प्रवृत्ति एकदम ऊंचाई पर है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस समृद्ध राज्य में आज 15 से 45 उम्र के 36 फीसदी लोग अविवाहित ेंहैं। इसी के चलते इन दोनों राज्यों में अविवाहित पुरुषों के आंकडे़ समाज के संतुलन को बिगाड़ रह हैं। पंजाब में आज भी लगातार हो रही कन्या भ्रूण हत्या के चलते यह अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्य से पंजाब में समृद्ध, शिक्षित और शहरी क्षेत्रों में रहने वालों की संख्या काफी है। 2006 के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चलता है कि पंजाब में आई समृद्धि ने कन्या भ्रूण हत्या को रोकने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। आंकड़ों से पता चलता है कि 2001 में जहां प्रति 1000 पुरुष की तुलना में 793 महिलाएं थीं वहीं वर्ष 2006 में यह घटकर 776 हो गया। शहरी क्षेत्रों में यह अनुपात घटकर 761 तक पहुंच गया है। सस्ते और अनियंत्रित तकनीकी विकास के चलते कन्या भ्रूण की हत्या लगातार बढ़ रही है। विशेष कर उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों में इसके चलते कुछ एक दिन पहले पैदा हुई नवजात बालिकाओं को झाडि़यों, सार्वजनिक शौचालयों, बगीचों और कचरे के डिब्बों में फेंक दिया जाता है। यह सब इसलिए है, क्योंकि कोई भी बिना बेटे के नहीं रहना चाहता है। इससे जुड़ा कोई भी कानून इसे रोक पाने में फिलहाल समर्थ नहीं दिख रहा। इस मामले में महाराष्ट्र भी पीछे नहीं है। यहां भी वर्ष 1961 से लगातार महिलाओं का औसत घटा है। वर्ष 1962 में जहां प्रति 1000 पुरुष के पीछे महज 936 महिलाएं थीं वहीं वर्ष 2001 में 922 तथा 2011 में 883 महिलाएं रह गई हैं। यह निम्नतम लिंगानुपात न सिर्फ झोपड़-पट्टियों और कम आय वर्ग वालों के बीच है, बल्कि समृद्ध लोगों में भी है। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र और बीड़ जिले में सबसे कम लिंगानुपात है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बीड़ जिले में तो शून्य से 6 वर्ष की आयु वाले बालक- बालिकाओं का लिंगानुपात 100 के मुकाबले 801 है जो महाराष्ट्र में सर्वाधिक है। यही औसत पूरे राज्य में 1000 की तुलना में 833 का है।
वर्तमान आंकड़ों के मुताबिक भारत में पुरुषों की तुलना में 40 लाख महिलाएं कम हैं। यह अंतर लिंग परीक्षण का परिणाम है और प्रत्येक माह देश भर में 50 हजार से अधिक कन्या भ्रूण का गर्भपात किया जाता है और न जाने कितने ही लड़कियों की या तो हत्या कर दी जाती है अथवा उन्हें लावारिस छोड़ दिया जाता है। कन्या भ्रूण के गर्भपात की बढ़ती दर का पता आंशिक रूप से अल्ट्रासाउंड सेवा देने वाले क्लीनिक की बढ़ती संख्या से लगाया जा सकता है। भारत में लिंग परीक्षण तथा लिंग के आधार पर होने वाला गर्भपात दोनों ही अपराध है, लेकिन इस पर कानूनी कार्रवाई बहुत ही कम हो पाती है। यह सिर्फ गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चियों पर ही मंडराता खतरा नहीं है, बल्कि इसका असर अकेले पड़ते पुरुषों के विवाह की समस्या तक जा पहुंचा है। इस वजह से कितने ही परिवार अपने बेटों के लिए ब्लैक मार्केट से दुल्हन खरीदते हैं जो आगे चलकर मानव तस्करी को बढ़ावा देने का काम करते हैं। हरियाणा में अल्ट्रासाउंड के जरिये शिशु के लिंग का पता लगाने का प्रचलन जोरों पर है। यहां की सरकार इससे पूरी तरह वाकिफ भी है, लेकिन उसके प्रति उदासीन है। हरियाणा में लड़की दुर्लभ और अवांछित चीज है। भारत के लगभग सभी राज्यों में कुछ ऐसा ही हाल है। यह लड़कियों की जानबूझकर संख्या घटाने का परिणाम है। आश्चर्य की बात यह है कि पंजाब के तमाम अनाथालयों में 70 फीसदी से अधिक लड़कियां ऐसी हैं जो अपने परिवार द्वारा त्याग दी गई हैं।
लेखिका उमा श्रीराम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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