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मातृत्व अवकाश का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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Anjali Sinhaहाल में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यह स्वीकार किया कि विश्वविद्यालय से जुडे़ सभी कॉलेजों में महिला शिक्षक अब अपने चाइल्ड केयर लीव का उपयोग आसानी से कर पाएंगी। दरअसल विकल्प के अभाव में कई कॉलेजों की महिला शिक्षक बच्चों की देखभाल वाली छुट्टियां नहीं ले पा रही थीं। यूजीसी के स्पष्टीकरण के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने कहा है कि चाइल्ड केयर लीव पर जाने वाली शिक्षिकाओं की जगह तदर्थ तथा गेस्ट लेक्चरर की नियुक्ति की जाएगी। यह सही है कि छात्रों के लिए वैकल्पिक इंतजाम जरूरी हैं ताकि उनकी पढ़ाई बाधित न हो, लेकिन यूजीसी से यह अवश्य पूछा जाना चाहिए कि वह चाइल्ड केयर की सुविधा सिर्फ महिलाओं को किन वजहों से दे रहा है? वैसे तो यह नियम केंद्र सरकार ने बनाया है और उससे भी यह पूछना चाहिए कि बच्चों की देखभाल बच्चों के पिता क्यों नहीं करेंगे? मातृत्व अवकाश तो महिलाओं को ही मिलना चाहिए और यह सही है कि उसे तीन महीने से बढ़ाकर छह माह किया गया है। इस समय मांओं को स्वास्थ्य लाभ के साथ नवजात शिशु को स्तनपान भी कराना होता है इसलिए यदि मातृत्व अवकाश को जरूरत पड़ने पर कुछ माह और बढ़ा दिया जाए तो वह वाजिब होगा, लेकिन चाइल्ड केयर लीव की सुविधा तो बच्चे की शुरुआती उम्र से लेकर 18 वर्ष के होने तक कभी भी ली जा सकती है।


बच्चों की जरूरतें ऐसी होती हैं, जिसमें माता-पिता को छुट्टी लेनी पड़ती है और नौकरी के दौरान कर्मचारी को ऐसा मौका अवश्य मिलना चाहिए कि वह अपने बच्चे की परवरिश ठीक से कर पाए। याद रहे कि जब गृह मंत्रालय ने महिलाओं के लिए ढाई साल के देखभाल अवकाश को मंजूरी दी तो मीडिया ने उसे महिलापक्षी कदम बताया था। लोगों ने कहा और लिखा कि आजकल के एकल परिवारों में जहां पति-पत्नी दोनों नौकरी पर जाते हों वहां बच्चे बेचारे उपेक्षित रह जाते हैं। साथ ही सरकार ने यह कहा कि ऐसी सुविधा वह इसलिए दे रही है ताकि महिलाएं बच्चों की जिम्मेदारी के कारण अपनी नौकरी न छोड़ें और समाज उनके अनुभव का लाभ उठा सके। हो सकता है इन बातों में कुछ सच्चाई भी हो, लेकिन यदि किसी साधारण समझ के इंसान से भी हम समझना चाहें तो जान सकते हैं कि आज के उदारवाद और निजीकरण के जमाने में जहां परफार्मेस ही नौकरी में बने रहने का मूल तत्व हो और प्रतियोगी माहौल सर्वत्र व्याप्त हो तो उसमें ढाई साल तक भले टुकड़े टुकड़े में ही छुट्टी ली गई हो वह अपने कार्यक्षेत्र से बाहर रहेगी तो क्या वह लौटने पर अच्छा नतीजा दे पाएगी? यहां प्रमुख मुद्दा यह है कि जो काम माता-पिता में से कोई भी कर सकता है उसके लिए विकल्प खुला क्यों नहीं रखा जाता ताकि माता-पिता स्वयं तय करें कि वह जिम्मेदारी कौन निभाए? आज के समय में यह सुविधा सिर्फ महिलाओं को देना लिंगभेद के दृष्टिकोण का परिचायक है, क्योंकि एक तो यह जिम्मेदारी उठाने के लिए बाध्य करेगा दूसरी बात आज के समय में परफॉर्मेस एक महत्वपूर्ण कारक है।


उल्लेखनीय है कि यह छुट्टी दो बच्चों के 18 साल का होने तक कभी भी ढाई-ढाई साल की ली जा सकती है। यानी सभी छुट्टी जोड़ लें तो कुल छह साल तक वह नौकरी पर रहते हुए घर में बिता सकती है। इसे सिर्फ सहूलियत के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि वह एक कर्मचारी और सेवाप्रदाता भी है जिसे सरकारी और सामूहिक खजाने से वेतन मिलता है। बराबर काम के लिए बराबर दाम के साथ बराबर की जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है। यह सही है कि बच्चे की जिम्मेदारी उठाकर वह दूसरे रूप में समाज की जिम्मेदारी उठाती है, लेकिन यह जिम्मेदारी का बोध पुरुषों में भी डालना जरूरी है। दरअसल, आज के समय में किसी न किसी रूप में यह मुद्दा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में एजेंडा पर आया है कि जब महिलाएं सार्वजनिक दायरे की जिम्मेदारी बराबरी से निभा रही हैं तो निजी दायरा सिर्फ उन्हीं के हिस्से में क्यों माना जाए? शहरी मध्यवर्ग के परिवार इसका एक सतही समाधान निकाल लेता है कि जो काम पहले सिर्फ औरत करती थी, उसके लिए मेड रख ली जाती हैं, लेकिन घर में चाहे जितनी मदद करने वाले रख लिए जाएं, घर मेहनत की मांग करता है और इसीलिए घर के अंदर के काम में साझेदारी एक मुद्दा है। भले ही इसके प्रति असहजता रहे। यही कारण है कि सरकारें भी महिलाओं द्वारा बिना आंदोलन चलाए स्वत: ही यह अधिकार उनकी झोली में डालने के लिए आगे बढ़ी हैं।


हालांकि महिलाएं कब से मांग कर रही हैं कि कार्यस्थल को सुरक्षित करने के लिए कानून बने। असंगठित क्षेत्र में आज भी बराबर काम की बराबर मजदूरी का मसला सुनिश्चित नहीं हो पाया है। जिन नौकरियों में महिलाओं की संख्या कम है, वहां उनकी भागीदारी बढ़ाने का खासतौर से उच्च पदों पर कोई विशेष उपाय किए जाएं। इन पर सरकार चिंतित नहीं है, लेकिन परंपरागत रूप से चूंकि घर के अंदर की जिम्मेदारी जिसमें बच्चे भी शामिल हैं महिलाएं ही संभालती आई हैं और समाज में अभी भी यह जिम्मेदारी परिवार के पुरुष सदस्य संभालने को तैयार नहीं हैं। इस कारण सरकार ने भी इस मानसिकता पर अपनी मुहर लगा दी है। जहां तक सहयोग का मसला है उसकी जरूरत पहले भी होती थी किंतु अब यह ज्यादा जरूरी हो गया है, क्योंकि एक तो महिलाओं के काम का दायरा बढ़ गया है तथा दूसरे पूरा पारिवारिक ढांचा बदल गया है। आमतौर पर घर के अंदर काम की जिम्मेदारी औरत के पास तथा बाहर के काम की जिम्मेदारी पुरुष के पास होती थी। गैर बराबरी के खिलाफ जंग में औरत ने बाहर के काम पर दावा ठोंका और जहां-जहां अवसर हासिल होता गया वह साबित करती गई कि वह उस काम को कर सकती है। अब स्वाभाविक ही है कि घर के अंदर के काम में पुरुष के हिस्सेदारी की मांग बनेगी और देर-सबेर पुरुष को यह काम करना होगा अन्यथा यह परिवार में तनाव का कारण भी बनेगा।


इस मुद्दे के एक दूसरे पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिए। चाइल्ड केयर लीव सिर्फ स्थायी सरकारी कर्मचारी के लिए है। यदि विश्विद्यालय के संदर्भ में इसे देखें तो जिन शिक्षिकाओं की छुट्टी के दौरान तदर्थ या गेस्ट लेक्चरर की नियुक्ति होगी उसमें भी महिला टीचर होगी। चाइल्ड केयर लीव तो उन्हें नहीं ही मिलेगी, क्योंकि वे स्थायी नहीं हैं, लेकिन विश्वविद्यालय के पास उनके मातृत्व अवकाश के लिए भी कोई स्पष्ट नीति नहीं है। ज्ञात हो कि ये नियुक्तियां कुछ-कुछ महीनों के लिए ही होती हैं। जो टीचर कई कई वर्षो से तदर्थ तौर पर पढ़ा रही है उनका सर्विस भी ब्रेक करके नियमानुसार पुनर्नियुक्ति दी जाती है। लिहाजा, वे मातृत्व अवकाश का कानूनी हकदार नहीं बन पाती हैं। महिलाओं का यह उत्पीड़न शिक्षण संस्थाओं में बदस्तूर जारी है। यद्यपि 15 दिन के लिए पिताओं को भी पितृत्व अवकाश का कानूनी प्रावधान है, किंतु आमतौर पर इसके प्रति जागरूकता की कमी है। पिता ऐसी छुट्टी मांगने से संकोच करते हैं और प्राइवेट कंपनियां छुट्टी देती भी नहीं हैं।


लेखिका अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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