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पं. जवाहरलाल नेहरू देश के उन महान नेताओं में एक रहे हैं, जिन्होंने आजादी के संघर्ष के साथ-साथ देश के नवनिर्माण में बड़ी भूमिका निभाई है। आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में वह सर्वमान्य नेता के रूप में स्वीकार किए जाते हैं। अपनी दूर दृष्टि से उन्होंने औपनिवेशिक अवशेषों पर आर्थिक साम्राज्यवाद की छाया देख ली थी, इसलिए उन्होंने आत्मनिर्भरता और गुट निरपेक्षता की अवधारणा प्रस्तुत की। उनकी दूरदृष्टि और कार्यो के कारण ही भारत सामान्यत: अपने को विश्व आर्थिक उलटफेरों से (यहां तक कि वैश्विक मंदी से भी) अप्रभावित रख सका है। आज से लगभग 63 वर्ष पहले ही सुनियोजित विकास के अग्रदूत की भूमिका का निर्वाह करते हुए उन्होंने भारत के लिए सामाजिक समता तथा आर्थिक समृद्धि पर आधारित एक जनतांत्रिक समाज की कल्पना की। उनका अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व था और वह भारत और भारतीय जनता के उत्थान के लिए अंतिम सांस तक पूर्ण रूप से समर्पित रहे। वास्तव में बीसवीं शताब्दी में बहुत कम राजनेताओं ने नेहरू की स्थिति को प्राप्त किया है। भारत के संक्रमण के युग में पूर्व प्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में नेहरू का मुकाबला रूजवेल्ट, चर्चिल, लेनिन तथा माओ के साथ किया जा सकता है, जो अपने साथियों में ऊंचे उठे और जिन्होंने राष्ट्रीय संकट में अपने लोगों का पथ-प्रदर्शन किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी के सिवा और कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है, जिसका लोगों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा हो, जितना कि स्वतंत्रता के इस कर्णधार नेहरू का पड़ा है। बुद्धिजीवी वर्ग को राष्ट्रीय आंदोलन में लाने का श्रेय नेहरू को ही प्राप्त है, जबकि गांधी जी ने किसानों को इस आंदोलन में अपने साथ मिलाया।
नेहरू की ग्रामीण लोगों के प्रति अपील भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं थी, क्योंकि उन्होंने उनके लिए तीसरे तथा चौथे दशक में संघर्ष किया। वे हमेशा भारत की आशाओं तथा इच्छाओं के प्रतीक रहे। लोकतंत्र में उत्तरदायी नेतृत्व की क्षमता बहुत कठिन है। नेता प्राय: सच्चाई छिपाते हैं और नैतिक स्तरों की अवहेलना करते हैं। एक सच्चे नेता को, जिसकी धारणा दृढ़ है, अपने आपको साधारण जनता की सोच शक्ति के बराबर नहीं लाना चाहिए। परंतु उसे केवल अपनी मन-मर्जी से काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे वह लोगों से, जिसका वह प्रतिनिधि है, अलग हो जाएगा। एक सत्यनिष्ठा वाला राजनीतिज्ञ तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि वह लोगों से सत्य का पालन नहीं करवा सकता। एक नेता के रूप में राजनीतिज्ञ को वातावरण के अनुकूल अपने आपको ढाल लेना चाहिए और उसे कम बुराई को अपनाना चाहिए। नेहरू ने महसूस किया कि लोकतंत्र में नेतृत्व की समस्या का कोई उत्तर नहीं है और प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक पीढ़ी को अपना-अपना उत्तर ही ढूंढ़ना होगा। अत: नेहरू की लोकतंत्र के बारे में धारणा थी- कुछ सरकारी संस्थाओं तथा नीतियों, जैसे कि प्रतिनिधियों द्वारा लौकिक प्रभुसत्ता, वयस्क मताधिकार द्वारा चुनाव, बहुमत द्वारा शासन, उत्तरदायी राजनीतिक दल तथा उत्तरदायी नेतृत्व। उनके अनुसार इन महत्वपूर्ण तत्वों के अभाव के फलस्वरूप लोकतंत्र का पतन हो जाएगा। नेहरू ने लोकतंत्र का चित्र खींचते हुए कहा कि यह समाज की एक ऐसी रचना है, जिसमें धीरे-धीरे सामाजिक तथा आर्थिक समानता को प्राप्त किया जाता है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है, लोकतंत्र का अर्थ है समानता और लोकतंत्र केवल समानता वाले समाज में ही पनप सकता है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि 19वीं शताब्दी में लोकतंत्र तथा राजनीतिक शक्ति कुलीन वर्गो की एकाधिकार रही है।
राजनीतिक समानता के सिद्धांत, प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक मत के आधार पर बना राजनीतिक ढांचा वास्तव में लोकतंत्र से बहुत दूर है। लोकतंत्र की मशीनरी को सत्तारूढ़ अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए प्रयुक्त करता है। अत: नेहरू ने पूंजीवाद तथा लोकतंत्र को दो परस्पर विरोधी शब्द माना है। वास्तविक लोकतंत्र, पूंजीवाद को खत्म करके तथा आर्थिक समानता लाकर कायम किया जा सकता है। भारतीय संविधान में दर्ज राज्य की नीति के निदेशक सिद्धांत, जिनमें नेहरू की आकांक्षाएं देखने को मिलती हैं, श्रेणीहीन तथा जातिहीन समाज की ओर एक स्पष्ट कदम है। समानता के लिए उनकी लालसा, लोकसभा में उनकी टिप्पणी से स्पष्ट होती है, जो कुछ भी वर्तमान सामाजिक तथा आर्थिक समानता की बनाए रखने का समर्थन करता है, वह बुरा है। उन्होंने सारी जातीय प्रणाली की निंदा की, जिसके कारण भारत में सामाजिक समानता के रास्ते में बाधा उपस्थित होती है, और जो लोकतंत्रीय घटनाओं तथा वर्तमान दशाओं का विरोधी है। उनके शब्दों में, आज के समाज के संदर्भ में जाति प्रथा और वह सब कुछ जो कि इसके साथ संबंधित है प्रगति के लिए बिल्कुल बेमेल, प्रतिक्रियावादी प्रतिबंध तथा अवरोध है। इसके ढांचे के अंतर्गत स्थिति तथा अवसर की समानता नहीं हो सकती और न ही राजनीतिक तथा आर्थिक लोकतंत्र ही संभव हो सकता है। देश की आजादी के तुरंत बाद नेहरू ने कहा था कि दौलत आसमान से नहीं टपकती है। विज्ञान और तकनीक की सहायता से देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने तत्काल कदम उठाए। देश के प्रतिभावान वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की खोज की और देश के नवनिर्माण में लगाया। डॉ. होमी जहांगीर भाभा को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने का जिम्मा सौंपा गया तो डॉ. शांति स्वरूप भटनागर को राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं का निर्माण करके देश में आधारभूत संरचनाओं को खड़ा करने का दायित्व दिया गया।
आज भारत का दुनिया में जो स्थान है, उसके मूल में नेहरू की दृष्टि और योगदान को स्पष्ट देखा जा सकता है। यह देश का सौभाग्य था कि देश के निर्माण के आरंभिक वर्षो में वह प्रधानमंत्री और भाग्यविधाता रहे। अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का उनका व्यापक ज्ञान, ऐतिहासिक स्रोतों पर उनका अधिकार, उनकी दूरदर्शिता और समाजवादी विचारों के प्रति उनका आकर्षण इन सभी ने सम्मिलित रूप से भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्र भारत में नेहरू सदैव अवसर के अनुकूल उतरते रहे। उन्होंने साहसपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय संकट का मुकाबला किया। उन्हें शुरू से ही पेचीदा समस्याओं से उलझना पड़ा, लेकिन उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। एक उग्र राष्ट्रवादी होने के नाते वे महान समस्याओं से उलझे और पूर्ण निष्ठा से उनका समाधान किया। पं. नेहरू पुरानी और नई पीढ़ी का एक साथ प्रतिनिधित्व करने वाले एक ऐसे नेता थे, जिनके नेतृत्व में भारत को दुनिया में एक आत्म स्वाभिमानी राष्ट्र का दर्जा मिला। उन्होंने संसार को दिखा दिया कि किस प्रकार एक अल्पविकसित तथा पिछड़ा हुआ देश लोकतंत्र को अपनाकर व्यक्तिगत लोकतंत्रीय योजना और समाज का समाजवादी ढांचा रख सकता है।
लेखक निरंकार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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