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धर्म में असहिष्णुता का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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Subhash Gatadeईसा मसीह की जन्मस्थली कहे जाने वाले बेथलहम के चर्च ऑफ नेटिविटी के उस वाकये पर सहसा यकीन करना मुश्किल था जब चर्च की सालाना सफाई को लेकर ईसाई धर्म के दो संप्रदायों के बीच मारपीट हो गई। धार्मिक वेशभूषा में 100 से अधिक पादरियों के बीच हुए इस लड़ाई पर तभी काबू पाया जा सका जब चर्च में फलस्तीन पुलिस ने हस्तक्षेप किया। जानकारों के मुताबिक चर्च का नियंत्रण ग्रीक आर्थोडॉक्स, आर्मेनियन एपास्टोलिक एवं रोमन कैथोलिक के बीच बंटा हुआ है और हर साल जब दिसंबर माह के अंत में उसकी सफाई होती है तब तनाव होता है। वर्ष 2006 में क्रिसमस के समय सफाई के मुद्दे पर इन सभी के बीच इस कदर हिंसक झड़प हुई कि कई पादरियों को कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। 19वीं सदी में इस चर्च को लेकर तनाव तथा ऑटोमन साम्राज्य में आर्थोडॉक्स ईसाइयों का मुद्दा क्रिमियन युद्ध की पृष्ठभूमि बना था। वैसे ईसा की इस जन्मस्थली पर यह बैथलहम की अलग किस्म की लड़ाई हमारे सामने ऐसी कई घटनाओं की फेहरिस्त पेश करती है, जब अपने आप को खुदा के इबादतगाह कहे जा सकने वाले स्थल या महान सूफियों की मजारें श्रद्धालुओं के खून से सराबोर मिलती हैं। इन सबको अंजाम देने वाले और कोई नहीं, बल्कि उन्हीं के धर्म के अनुयायी होते हैं जिन्हें इबादत या पूजा का दूसरे का तरीका मंजूर नहीं होता।


धर्म के नाम पर किस हद तक असहिष्णुता को वैधता प्रदान की जा सकती है इसे हम कश्मीर के ताजा उदाहरण से देख सकते हैं। कश्मीर में सुरक्षा बलों के हाथों मानवाधिकार के उल्लंघन की सुन्न करने वाली खबरें आए दिन मिलती रहती हैं। हाल में एक अलग किस्म की खबर थी जिसमें कश्मीर में इस्लामी रवायतों को कड़ाई से लागू करने के बारे में इस्लामिक धर्मसंसद के फैसले की जानकारी दी गई। एक समाचार के मुताबिक हुर्रियत के उदारवादी गुट के नेता मीरवाइज फारुख की अगुआई में कश्मीर के तमाम इस्लामिक संगठनों के नेताओं, मौलवियों की बैठक मुत्तहिदा मजलिस ए उलेमा के बैनर तले हुई जिसमें कश्मीर राज्य में ईसाई मिशनरियों और अन्य गैर-इस्लामिक ताकतों से निपटने के लिए तहफ्फुज ए इस्लाम नामक संगठन का गठन किया गया जिसका पहला फैसला यही था। मालूम हो कि स्वधर्मत्याग को रोकने के लिए बनी इस मजलिस की तरफ से तमाम ईसाई स्कूलों को भी यह फरमान जारी किया गया कि वह अपने यहां सुबह की प्रार्थना बंद करें और ऐसा कोई साहित्य वितरित न करें जो इस्लामिक शिक्षाओं एवं सिद्धांतों के खिलाफ हो। इतना ही नहीं मजलिस ने यह फरमान भी जारी किया है कि नमाज ए जुम्मा के दिन अर्थात शुक्रवार को छुटटी देनी होगी और उस दिन कोई परीक्षा भी आयोजित नहीं होगी। अभी ज्यादा दिन नहीं बीता जब श्रीनगर स्थित आल इंडिया सेंटर्स चर्च के पादरी सीएम खन्ना को धर्मातरण के कथित मामले में सफाई देने के लिए शहर मुफ्ती के यहां जाना पड़ा था। सरकार द्वारा नियुक्त उपरोक्त मुफ्ती सुप्रीम कोर्ट ऑफ इस्लामिक जुरिसडिक्सन की अध्यक्षता करते हैं जो एक तरह से कश्मीर में शरिया कानून लागू करने की पूर्वपीठिका तैयार करता है।


आमतौर पर यही देखने में आया है कि धर्मध्वजा के नाम पर तमाम किस्म की अमानवीय, असहिष्णु प्रथाओं को, परंपराओं को महिमामंडित किया जाता है। पिछले दिनों कर्नाटक से मादेस्नान नामक प्रथा की चर्चा सुर्खियां बनीं। इस प्रथा के अंतर्गत मंदिर में दलित उन झूठे पत्तलों पर लोटते हैं जिन्हें उच्च वर्णसमाज के लोगों ने फेंका होता है। इससे उनके पापमुक्ति या बीमारियों से मुक्त होने की मान्यता है। जब दलित तबके के कुछ तर्कशील लोगों ने इसका विरोध किया तो उन्हें हमले का सामना करना पड़ा। कर्नाटक, महाराष्ट्र जैसे प्रांत देवदासी प्रथा के लिए भी कुख्यात है जिसमें अवर्ण जातियों से आने वाले माता-पिता अपनी बड़ी बेटी को यल्लमा देवी को समर्पित करते हैं, जो कहने के लिए मंदिरों में सेवारत रहती है, मगर अंतत: पुजारियों एवं मंदिर से संबंधित लोगों की यौनेच्छा की पूर्ति में ढकेल दी जाती हैं। संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर अकारण नहीं लिखते हैं कि शूद्रों-अतिशूद्रों के साथ गैर इंसानी व्यवहार करने वाले व्यक्ति को आप अधार्मिक नहीं कह सकते हैं, क्योंकि उसके लिए धर्म के यही मायने हैं। मनु के विधान को अस्वीकार करके उसकी अपनी आस्था संकटग्रस्त हो सकती है, उसके अपने धर्म के पतन का खतरा हो सकता है।


पड़ोसी नेपाल पर निगाह डालें तो इसका प्रमाण हम पूरे देश के स्तर पर देख सकते हैं जहां हिंदूराष्ट्र के नाम पर हाल तक दलितों-शूद्रों को तमाम अधिकारों से वंचित रखा गया, लेकिन हिंदू धर्म के तमाम अगुआ एवं मुखिया आएदिन वहां के जालिम राजशाही के कसीदे पढ़ते मिलते थे। उन्हें यह कहने में भी संकोच नहीं होता था कि नेपाली जनता को बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा जाए और अकूत दौलत के मालिक राजा को विश्व हिंदुओं का सम्राट घोषित किया जाए। आधुनिकता की ओर मनुष्यता की उ‌र्ध्वगामी यात्रा में किसी दौर में भले ही धर्म ने कोई विशिष्ट भूमिका अदा की हो, मगर यह समझने की जरूरत है कि 21वीं सदी की इस बेला में उसको राज्य या समाज संचालन में केंद्रीय भूमिका मिलेगी तो हम भी पड़ोसी देश पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलते मिल सकते हैं जो जुनूनी मजहबी गुटों की कारगुजारियों से किसी अन्त:विस्फोट की तरफ बढ़ता दिखता है। वहां सलमान तासीर नामक पंजाब गवर्नर को सरेआम मारने वाले उनके ही बॉडीगार्ड मलिक कादरी को पांच सौ से अधिक मौलानाओं ने गाजी अर्थात धर्मयोद्धा घोषित करते हैं, जिनका अपराध यही था कि उन्होंने ईशनिंदा कानून की मुखालफत की थी और उसके तहत जेल में डाली गई आसियाबी के साथ न्याय की मांग की थी।


विकसित समाजों की खासियत यही कही जा सकती है कि उन्होंने धर्म को निजी दायरे तक सीमित किया है। न केवल सरकारों, बल्कि वहां के नागरिक समाज की कोशिश भी यही रहती है कि सार्वजनिक जीवन या राजनीति के संचालन में धर्म की दखल न्यूनतम हो। यह समझदारी इस अहसास से भी बनी है कि एक बहुधर्मीय समाज में विशिष्ट धर्म को वरीयता प्रदान की गई तो यह शेष धर्मावलंबियों के दमन का उपकरण बन सकता है। भारत में मध्य प्रदेश से हाल में आई दो खबरें एक तरह से यह प्रमाणित करती हैं कि कम से कम यहां हमें इस दिशा में काफी यात्रा तय करनी है। वह चाहे गीता को पाठयक्रम में शामिल करने का सवाल ही क्यों न हो। यह सही है कि आजादी के कई कर्णधारों ने गीता से प्रेरणा ग्रहण की है, मगर क्या हम भूल सकते हैं कि भगवदगीता एक विशिष्ट धर्मावलंबियों का ग्रंथ है, जबकि देश में अन्य धर्मावलंबी भी रहते हैं। अगर एक धर्मनिरपेक्ष देश में हम गीता को पाठयक्रम में शामिल करने को सही ठहराते हैं तो किस मुंह से हम कश्मीर में इस्लामिक रवायतें लागू किए जाने और शरिया अदालतों के गठन पर प्रश्न खड़ा कर सकते हैं?


लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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