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चुनाव के बाद की चुनौतियां (ट्यूनीशिया)
जिस जनविद्रोह के बाद ट्यूनीशिया के लोगों को बीते वर्ष 23 साल से राज कर रहे तानाशाह शासक राष्ट्रपति जैनुल आबेदिन बिन अली से मुक्ति मिली थी, उसके निहितार्थ अब उलझने लगे हैं। दरअसल, आबेदिन बिन अली को सत्ताच्युत कर देश में एक प्रजातांत्रिक सरकार का गठन करना था। उसी के तहत पिछले दिनों वहां चुनाव कराए गए, जिसमें सर्वाधिक वोट देश की इस्लामी पार्टी इन्नहदा को मिले। समझा जा रहा था कि इन्नहदा के नेतृत्व में वहां की सरकार शांतिपूर्ण तरीके से चलेगी तथा देश के लोगों को सुकून मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। अब इन्नहदा के विरुद्ध भी वहां धरना-प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। समझा जा रहा है कि यदि यही हालात रहे तो यहां पुन: चुनाव कराना पड़ सकता है। साथ ही ट्यूनीशिया के आंदोलन ने अरब देशों समेत दुनिया भर में जो संदेश दिया था, उस संदेश की महत्ता भी घट सकती है। ट्यूनीशिया में 217 सदस्यों वाली संविधान सभा के गठन के लिए 23 अक्टूबर को चुनाव हुए थे। यह संविधान सभा देश के लिए नया संविधान बनाने के अलावा एक अंतरिम राष्ट्रपति का भी चयन करेगी। अंतरिम राष्ट्रपति नई सरकार का गठन करेंगे। चुनाव आयोग के मुताबिक ट्यूनीशिया के कुल 72 लाख वोटरों ने 217 सदस्यीय संविधान सभा को चुनने के लिए अपना मतदान किया। पंजीकृत वोटरों में से करीब 90 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया था। बावजूद इसके चुनावों में उदारवादी इस्लामी पार्टी इन्नहदा की जीत ने पूरे क्षेत्र में नई बहस छेड़ दी है। हालांकि इन्नहदा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पीडीपी ने पहले ही अपनी हार स्वीकार कर ली है। पार्टी की ओर से कहा गया कि ट्यूनीशिया में लोगों ने उन पार्टियों के पक्ष में मतदान किया है, जो तत्कालीन राष्ट्रपति आबेदिन की तानाशाही के खिलाफ और प्रजातंत्र के लिए जारी संघर्ष का हिस्सा रहे हैं। सौ से ज्यादा पार्टियों और कई आजाद उम्मीदवारों ने चुनाव में भाग लेने के लिए खुद को पंजीकृत कराया था। सैंकड़ों विदेशी पर्यवेक्षकों ने चुनावों की निगरानी की थी।
अरब देशों में विद्रोह की शुरुआत करने वाले देश ट्यूनीशिया में विद्रोह के बाद पहली बार हुए चुनावों में मतदान के प्रति लोगों में बेहद उत्साह देखा गया। यहां हुए चुनाव में जिस इस्लामी पार्टी इन्नहदा को सर्वाधिक वोट मिले हैं, वह अबेदिन के शासनकाल में प्रतिबंधित थी। उल्लेखनीय है कि पिछले दिसंबर में मोहम्मद बोआजीजी के आत्मदाह के बाद ट्यूनीशिया में बगावत की लहर दौड़ पड़ी थी। चुनाव के बाद उनकी मां मानोबिया बोअजीजी ने कहा कि ये चुनाव आत्म सम्मान और आजादी की सफलता है। आज मैं ख़ुश हूं कि मेरे बेटे की मौत ने हमें डर और नाइंसाफी का मुकाबला करने की हिम्मत दी। उन्होंने नेताओं से अपील की है कि वे चुने जाने के बाद उनके बेटे की कुर्बानी को जाया न करें और गरीबों की मदद करें। उन्होंने यह भी कहा कि मुझे अपने बेटे पर गर्व है कि उसने न सिर्फ ट्यूनीशिया, बल्कि पूरी दुनिया को बदलकर रख दिया। ख़ुदा का शुक्रिया है कि ट्यूनीशिया की जीत हुई है, लीबिया और मिस्त्र की जीत हुई। आबेदिन बेन अली के हटने के बाद कई दूसरे अरब देशों में भी बदलाव के लिए लोग सड़कों पर हैं। अरब क्रांति की सबसे नई जीत लीबिया में रही, जब पिछले दिनों कर्नल गद्दाफी को जान से हाथ धोना पड़ा। इससे पहले मिस्त्र में लंबे समय से राष्ट्रपति रहे होस्नी मुबारक को लंबे विरोध प्रदर्शन के बाद अपने पद से हटना पड़ा था। विरोध का दौर सीरिया और यमन में भी चल रहा है, लेकिन इन देशों की अपेक्षा ट्यूनीशिया की क्रांति शांतिपूर्ण रही थी। बताते हैं कि जैनुल आबेदिन बिन अली के देश छोड़ने के बाद ट्यूनीशिया की नई सरकार संकट में पड़ गई थी। लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शनों के कारण सरकार बनने के सिर्फ एक दिन बाद ही अंतरिम सरकार के कम से कम तीन मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया।
इन मंत्रियों का कहना था कि वे उस प्रशासन को समर्थन नहीं दे सकते, जिसमें पिछली सरकार के सदस्य शामिल हों। सिर्फ एक दिन पहले प्रधानमंत्री मोहम्मद गनूशी ने एक राष्ट्रीय सरकार के गठन की घोषणा की थी, लेकिन नई सरकार में पिछली सरकार के कुछ मंत्रियों को शामिल किए जाने के मुद्दे पर विपक्षी दलों में गतिरोध पैदा हो गया था। बहरहाल, तमाम उतार-चढ़ाव के बाद संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव करने और ट्यूनीशिया का नया संविधान लिखने के लिए चुनाव कराया गया। इस संविधान सभा के पास नया संविधान लिखने के लिए एक साल का वक्त होगा। खैर, चुनाव बाद इन्नाहदा बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। देश में इसके पास सबसे ज्यादा जन समर्थन है। पूर्व राष्ट्रपति आबेदिन बिन अली के जमाने में इस दल पर प्रतिबंध था। इसके नेता राशिद गनूची हाल ही में 20 साल विदेश में बिताने के बाद वापस लौटे हैं। गनूची का मानना है कि उनका दल इस्लाम और आधुनिकता के बीच में संतुलन बिठाकर काम करेगा। तमाम तर्क-वितर्क के बाद इन्नाहदा के विरुद्ध भी प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। अब देखना है कि ट्यूनीशिया की दिशा क्या होती है?
इस आलेख के लेखक राजीव रंजन तिवारी हैं
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गद्दाफी के बाद भी गदर के आसार (लीबिया)
कर्नल मोअम्मर अली गद्दाफी ने 42 साल तक लीबिया पर शासन किया। उनके मारे जाने के बाद दुनिया भर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उसमें यही कहा जा रहा है कि अब लीबिया के लोगों को शांति मिलेगी। यानी कर्नल गद्दाफी का मारा जाना लीबिया के लोगों के लिए अच्छी खबर है, लेकिन हालात बता रहे हैं कि वहां की स्थितियां अभी और बिगड़ेंगी। देखने वाली बात यह होगी कि लीबिया की राष्ट्रीय अंतरिम परिषद ख़ुद को कैसे व्यवस्थित करेगी, चुनाव कब होंगे। क्योंकि उनके बीच भी आपस में कई तरह के झगड़े हैं। विद्रोही सेना में अलग-अलग कई ब्रिगेड हैं। इसके अलावा यहां विभिन्न जनजातियों की अपनी समस्याएं और अंतर्विरोध हैं। गद्दाफी की जनजाति लीबिया की सबसे बड़ी जनजाति है। अब उनकी जनजाति से बदला लिया जाएगा और इसमें कितने लोग मारे जाएंगे, यह वक्त बताएगा। मौजूदा हालात तो यही बयां कर रहे हैं कि अनिश्चितता अभी बनी रहेगी। इस स्थिति में पश्चिमी सरकारों की जिम्मेदारी भी बढ़ेगी। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि राष्ट्रीय अंतरिम परिषद हालात को ठीक से संभाले। आपस में टकराव न हो। शांति का माहौल बना रहे। गद्दाफी सितंबर 1969 में सत्ता में आए थे। करीब 41 साल सत्ता में रहते हुए उन्होंने सरकार चलाने की अपनी ही एक व्यवस्था खोजी, जिसमें उत्तरी आयरलैंड के आइआरए जैसे हथियारबंद चरमपंथी गुटों के साथ-साथ फिलीपींस में इस्लामी कट्टरपंथी गुट अबु सय्याफ जैसी संस्थाओं को समर्थन दिया। उन्होंने उत्तरी अफ्रीका के सबसे क्रूर तानाशाह के रूप में लीबिया पर राज किया।
लीबिया में छिड़े जिस संघर्ष में गद्दाफी मारे गए, उसकी पृष्ठभूमि में अरब देशों में हुए सत्ता विरोधी आंदोलन ही हैं। ट्यूनीशिया और मिस्त्र में सत्ता विरोधी आंदोलन के बाद ही लीबिया में इसकी शुरुआत हुई। नाटो के हस्तक्षेप के बाद गद्दाफी का पतन सुनिश्चित हो गया था। बहरहाल, गद्दाफी के मारे जाने के बाद लीबिया के आंतरिक हालात यह बताते हैं कि अभी भी वहां शांति संभव नहीं है, क्योंकि देश में सत्ता चलाने वालों का आपस में ही कई मुद्दों पर टकराव है। इसके लिए दुनिया के जिन-जिन देशों की नजरें लीबिया की तेल पर टिकी हैं, वे भी अपने स्वार्थ के लिए लीबिया को शांत रहने देना नहीं चाहेंगे। मध्य-पूर्व में अमेरिका इसलिए विशेष रुचि ले रहा है, क्योंकि उसकी नजर यहां के अकूत तेल भंडार पर है।
इस आलेख की लेखिका आशा त्रिपाठी हैं
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पाक जैसे हालात की दस्तक (मिस्त्र)
मिस्त्र की क्रांति के मायने चाहे जो भी निकाले जाएं, एक बात तो स्पष्ट है कि मिस्त्र की जनता तानाशाही शासन व्यवस्था से निकलकर एक गैर लोकतांत्रिक अराजक व्यवस्था के दुष्चक्र में फंस गई है। बीते दिनों मिस्त्र के अंदर सांप्रदायिक दंगे में 25 लोग मारे गए। यह इस बात की तस्दीक करता है कि मिस्त्र संकट के नए दौर से गुजरने जा रहा है। चरमपंथी शासन व्यवस्था का चेहरा होस्नी मुबारक से बदलकर सेना और दक्षिणपंथी ताकतों के गठबंधन के रूप में सामने आ रहा है। राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के अपदस्थ होने के बाद हिंसा की इस सबसे बड़ी घटना के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मायने तमाम सवाल खड़े करते हैं। राजधानी काहिरा में ईसाइयों, मुस्लिमों और सुरक्षा बलों के बीच हुई इस हिंसक झड़प की शुरुआत ईसाइयों द्वारा गिरिजाघर पर हमले के खिलाफ प्रदर्शन करने के दौरान हुई। दक्षिणी मिस्त्र के दो गिरिजाघरों में उस समय दंगे भड़क गए थे, जब मुस्लिम समुदाय के लोगों ने गिरिजाघर के निर्माण कार्य पर विरोध प्रकट किया था। सेना और कट्टरवादी ताकतों के गठबंधन का जो चेहरा पाकिस्तान के अंदर दिखता है, कमोबेश कुछ ऐसी ही स्थितियां आज के मिस्त्र के अंदर तैयार हो रही हैं। हालांकि प्रधानमंत्री एसाम शराफ ने दंगे के बाद जो वक्तव्य दिया है, उससे उन्होंने एक संदेश देने की कोशिश की है कि वह मिस्त्र में चरमपंथी आग की धधक को एक बार फिर बड़े साफ तौर पर महसूस कर रहे हैं।
शराफ ने टीवी पर प्रसारित अपने संबोधन में कहा कि यह घटनाएं हमें कई कदम पीछे ले गई हैं। यह दंगा देश के लिए एक झटका है, लेकिन इसके लिए उन्होंने विदेशी ताकतों को जिम्मेवार बताया तो एक बार फिर यह साबित हो गया कि मिस्त्र की सत्ता उन हाथों में आ गई है, जो मिस्त्र में धार्मिक और जातीय हिंसा के नए दौर की शुरुआत को राज्य की ओर से प्रायोजित कर रही है। मिस्त्र के अंदर बन रहे इस हालात के लिए वह विदेशी ताकतों को जिम्मेवार ठहराकर अपनी जवाबदेही को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। यह सही है कि इस हालात के लिए विदेशी ताकतों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, लेकिन मिस्त्र की सत्ता इसकी सहूलियत भी नहीं ले सकती है कि वह विदेशी सिर पर इसका ठिकरा फोड़ मजबूरी का रोना रोए। मिस्त्र की क्रांति को लेकर जो उद्घोषणाएं तमाम लोकतंत्र हिमायती सरकारों ने की थी, उसकी असलियत का खोखलापन अब दुनिया के सामने आ चुका है। यह मध्य-पूर्व और तीसरी दुनिया के उन देशों के लिए एक संकेत है, जो तानाशाही शासन व्यवस्था से निकलकर लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर नव दक्षिणपंथी सैन्य शासन की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। हाल ही में नोबेल पुरस्कार पाने वाली महिला यमन की तवक्कुल कामरान ने अपने महिला पत्रकारों के संगठन बिला कैद का दक्षिणपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से संबंधित होना स्वीकारा है। इसके मायने हैं कि पश्चिम का सत्ता केंद्र यह मानता है कि मध्य-पूर्व के देशों में होने वाले लोकतांत्रिक प्रयासों को मुस्लिम ब्रदरहुड के बिना परवान नहीं चढ़ाया जा सकता है।
पश्चिम के विकसित देशों द्वारा यह एक सुनियोजित कूटनीति का हिस्सा है। जब सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद पश्चिम के देशों द्वारा किसी भी तरह की कार्रवाई और पाबंदियों का विरोध यह कहते हुए करते है कि कार्रवाई के विरोध में पूरा पश्चिम जल जाएगा तो यह पश्चिम षड्यंत्र के शिकार होने की खीज को रेखांकित करता है। पश्चिम के विकसित देशों का अमेरिकी नेतृत्व में अचानक मध्य-पूर्व के देशों में लोकतंत्र की वकालत करना उस दौर की पुनरावृत्ति है, जब सोवियत संघ के साथ-साथ तमाम कम्युनिस्ट प्रभाव वाले देशों में अमेरिका ने एक रणनीति के तहत चरमपंथियों के छोटे बड़े संगठनों को खड़ा किया था। मिस्त्र में होने वाली सांप्रदायिक दंगों में विदेशी ताकत तो है, लेकिन कट्टरपंथ के संगठित रूप और सत्ता की भागीदारी के साथ है। आज जब पूंजीवादी देश आर्थिक संकट के अभूतपूर्व दौर से गुजर रहे हैं तो ऐसे समय में उनके लिए मध्य -पूर्व के देशों में यह दांव भारी पड़ सकता है, लेकिन यह उनकी बेचैनी भी है कि किसी तरह से तीसरी दुनिया के देशों पर अपनी पकड़ बनाकर रखें। दुनिया के किसी भी देश में लोकतंत्र की मुहिम सफल नहीं हो सकती, जब तक कि दक्षिणपंथी ताकतों को प्रभावकारी भूमिका से वंचित न किया जाए। इस बात की आहमियत का अंदाजा पाकिस्तान की शासन व्यवस्था और सेना के दक्षिणपंथी रुझान के कारण होने वाले परिणामों से लगाया जा सकता है कि यह अभी दुनिया के सबसे अशांत क्षेत्रों में है। भारत जैसे विकासशील देश का सीरिया पर आर्थिक प्रतिबंध के मुद्दे पर अमेरिका का विरोध सही दिशा में उठाया गया कदम है। लोकतंत्र के नाम पर जो कुछ अमेरिका ने प्रत्यक्ष रूप से अफगानिस्तान और इराक में किया, उसी को वह अब अप्रत्यक्ष तरीके से मध्य-पूर्व के देशों में कर रहा है। अमेरिका की मौजूदगी मध्य-पूर्व के देशों में चाहे वह प्रत्यक्ष रूप में हो या मुस्लिम ब्रदरहुड के आड़ में, लोकतंत्र की स्थापना की मुहिम को झटके देती रहेगी।
इस आलेख के लेखक तारेंद्र किशोर हैं
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