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हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर दोहा में संपन्न हुए सम्मेलन में एक बार फिर विकसित देशों का खोखला आदर्शवाद उभर कर सामने आया। इस सम्मेलन में करीब दो सौ देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, लेकिन जैसा कि आशा की जा रही थी जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर ये सभी देश बंटे हुए नजर आए। सम्मेलन में वैसा उत्साह नहीं दिखाई दिया जैसा जलवायु परिवर्तन पर संपन्न हुए पिछले सम्मेलनों में देखा जाता रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस साल क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्त हो गई और उसके स्थान पर किसी नए प्रोटोकॉल को मंजूरी नहीं दी गई।
क्योटो प्रोटोकॉल जापान के क्योटो शहर में 1997 में लागू की गई थी। इस प्रोटोकॉल के तहत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम कर 1990 के स्तर पर ले जाने की बाध्यकारी शर्त रखी गई थी। प्रोटोकॉल में विकासशील देशों को प्रदूषण कम करने के लिए आर्थिक सहायता देने का प्रावधान भी था। पिछले अनेक वषरें में इस प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ती देखी गई हैं। अब इस तरह का नया प्रोटोकॉल तीन साल बाद तैयार किया जाएगा। दोहा सम्मेलन में विकासशील देशों और पिछड़े देशों के बीच भी मनमुटाव रहा। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कुछ मुद्दों पर विकसित देशों ने पिछड़े देशों को उकसाया भी। दरअसल, विकसित देश किसी भी हालत में बराबरी का सिद्धांत अपनाने से परहेज करते हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संधि की रूपरेखा तैयार करते समय समानुपातिक सिद्धांत को मंजूरी दी गई थी, लेकिन यह विडंबना ही है कि इस सिद्धांत को न अपनाने के लिए विकसित देशों द्वारा तरह-तरह के बहाने ढूंढ लिए जाते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार अधिक ग्रीनहाउस गैसों को पैदा करने वाले विकसित देशों को उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी भी ज्यादा उठानी चाहिए।
भारत का मानना है कि ऐसे विकासशील देश जो लगातार विकास के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं, निश्चित रूप से पहले से अधिक कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद इन देशों को विकसित देशों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता क्योंकि वे अभी विकसित होने की प्रक्रिया में हैं। समस्या यह है कि विकसित देश उत्सर्जन कटौती की जिम्मेदारी से बचकर यह जिम्मेदारी विकासशाील देशों पर थोपना चाहते हैं। दोहा में जलवायु संकट सम्मेलन से पहले प्रकाशित एक नए अध्ययन में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत इस साल कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने में चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा सफल रहा है।
चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ को साल के सबसे बडे़ प्रदूषण फैलाने वाले श्चोतों में बताया गया है। ब्रिटेन के ईस्ट एंजलिया विश्वविद्यालय के ग्लोबल कार्बन परियोजना नाम से जारी अध्ययन से पता चला है कि चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ की वैश्विक उत्सर्जन में क्रमश: 28, 16 और 11 फीसद की हिस्सेदारी है जबकि भारत का आंकड़ा महज सात फीसद है। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के मामले में भारत की हिस्सेदारी 1.8 टन है जो अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन से काफी कम है। इनकी प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी क्रमश: 17.2 टन, 7.3 और 6.6 टन है। हाल ही में विश्व बैंक ने भी चेतावनी दी है कि यदि जलवायु परिवर्तन पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो दुनिया से गरीबी खत्म नहीं होगी। औद्योगिक प्रदूषण के कारण इस शताब्दी के अंत तक धरती का तापमान चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा जिससे भीषण गर्मी के साथ ही वैश्विक खाद्यान्न उत्पादन में भारी गिरावट आएगी और समुद्र का जल स्तर बढ़ने से करोड़ों लोग प्रभावित होंगे।
जलवायु परिवर्तन पर हर हाल में काबू पाना होगा। विकास के रास्ते में यह सबसे बड़ी चुनौती है। बहरहाल, दोहा सम्मेलन संपन्न हो चुका है, लेकिन जब तक विकसित देश खोखले आदर्शवाद की परिधि से बाहर नहीं आएंगे, तब तक जलवायु परिवर्तन के किसी भी मुद्दे पर कोई एक राय नहीं बन पाएगी जो हमारे अस्तिव के लिए बहुत जरूरी है।
लेखक रोहित कौशिक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Tag: India Environment Climate change, quote protocol, जलवायु परिवर्तन,चीन, अमेरिका, भारत.
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