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रिटेल कारोबार में सीधे विदेशी निवेश के मुद्दे पर जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा
देश के खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश को मंजूरी देने के फैसले पर राजनीतिक उथल-पुथल मची है। केंद्र सरकार ने इस फैसले को टाल दिया है, लेकिन केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा एफडीआइ को लेकर तमाम आशंकाओं को निर्मूल बताते हैं। शर्मा का मानना है कि खुदरा कारोबार में एफडीआइ की अनुमति का माडल विदेश से आयातित नहीं है। दैनिक जागरण के नितिन प्रधान से बातचीत में शर्मा ने कहा कि यह सौ प्रतिशत भारतीय माडल है। पेश हैं आनंद शर्मा के साथ साक्षात्कार के प्रमुख अंश :-
रिटेल में आखिर एफडीआइ की क्या आवश्यकता है?
भारत दुनिया का दूसरे दर्जे का खाद्यान्न उत्पादक देश है। फल और सब्जी के उत्पादन में भी दूसरे नंबर पर है। 65 से 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। हमारे पास कोल्ड स्टोरेज जैसे बुनियादी ढांचे की कमी होने की वजह से उत्पादन के बाद कृषि उत्पादों की बर्बादी करीब 10 से 15 प्रतिशत है। फल और सब्जी की बर्बादी तो 40 से 45 प्रतिशत है। किसान इतनी मेहनत करता है, लेकिन उसके बावजूद 40 प्रतिशत पैदावार नष्ट हो जाती है। उसके बाद जो बचता है उसकी भी पर्याप्त कीमत किसान को नहीं मिलती। किसान अपनी उपज बेचने के लिए पूरी तरह बिचौलियों पर निर्भर रहता है। अगर फार्मगेट पर ही किसानों के उत्पाद खरीदे जाएं तो न सिर्फ किसानों को सही कीमत मिले, बल्कि उपभोक्ताओं के लिए भी दाम घट जाएंगे। उपभोक्ताओं के लिए कीमतें कम से कम 10 से 15 प्रतिशत कम हो जाएंगी। दूसरे अगर हम गांवों में ही बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराएंगे तो वहां रोजगार के अवसर मिलेंगे और शहरों की तरफ पलायन रुकेगा। बुनियादी ढांचा गांवों में होने के बाद वहां खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी स्थापित हो पाएंगे।
खुदरा कारोबार को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने से क्या घरेलू कारोबारियों के लिए संकट नहीं पैदा होगा?
हमारी नीति किसी विदेशी मॉडल पर आधारित नहीं है। हमारी नीति देश के भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों और वास्तविकताओं को मद्देनजर रखकर बनाई गई है। हमने एशिया के अन्य प्रगतिशील देशों के मॉडलों का भी अध्ययन किया है। इन देशों में खुदरा कारोबार में सौ प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति है। चीन में तो 1992 में इसकी मंजूरी मिल गई थी, लेकिन आज भी असंगठित खुदरा कारोबार या कहें छोटे व्यापारियों का रिटेल में हिस्सा 80-90 प्रतिशत है। भारत को लेकर जो अनुमान हैं उसमें भी रिटेल में एफडीआइ की अनुमति के बावजूद अगले 20 बरस तक असंगठित खुदरा कारोबार में औसतन 13 प्रतिशत सालाना की वृद्धि होती रहेगी। ये कंपनियां तो उन्हीं 53 शहरों में अपने स्टोर खोल पाएंगी जिनकी आबादी दस लाख से ज्यादा है।
क्या आपको नहीं लगता कि भारत जैसे देश में 40 प्रतिशत संगठित उद्योग का हिस्सा भी काफी अहम जगह रखता है खुदरा कारोबार में?
हां, लेकिन रिटेल में एफडीआइ के लिए विदेशी कंपनियों के लिए जो शर्ते हम लगा रहे हैं उनके फायदे हमें अर्थव्यवस्था में दूसरी जगह भी देखने को मिलेंगे। विदेशी कंपनी को कम से कम दस करोड़ डॉलर का निवेश करना होगा। उसमें से भी उसे पांच करोड़ डॉलर का निवेश यहां कोल्ड स्टोरेज, वैल्यू चेन जैसे बुनियादी ढांचे में करना होगा। यह ढांचा गांवों में लगेगा तो इसका मतलब निवेश का आधा हिस्सा देश के ग्रामीण इलाकों में जाएगा। बाकी पांच करोड़ कंपनियां अपने स्टोर खोलने में खर्च करेंगी। उससे शहरी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।
इसी 30 प्रतिशत हिस्से के उत्पादन में देश के लाखों छोटे उद्यमी लगे हुए हैं। विदेशी कंपनियों के आने से क्या आयातित सामान की खपत नहीं बढ़ जाएगी?
अपनी नीति में हमने घरेलू उद्योग का भी पूरा ध्यान रखा है। जिन छोटे और मझोले उद्यमियों की बात आप कर रहे हैं, एफडीआइ के जरिए भारत में अपने स्टोर खोलने वाली सभी कंपनियों को अपनी खरीद का न्यूनतम 30 प्रतिशत घरेलू छोटे और मझोले उद्योगों के खरीदना अनिवार्य बनाया गया है। इस लिहाज से भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसने मल्टीब्रांड रिटेल के लिए अपनी जरूरतों को ध्यान में रखकर नीति बनाई है।
अभी भी इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है कि तीस प्रतिशत की अनिवार्यता भारतीय उद्यमियों के लिए ही है?
बिल्कुल भारतीय उद्योग से ही होगा। ये आशंकाएं जानबूझकर पैदा की जा रही हैं। आज भी ग्लोबल रिटेलर अपनी खरीद का एक बड़ा हिस्सा भारत से ही खरीदते हैं। वालमार्ट जैसे बड़े ब्रांडों का ज्यादातर सामान भारत में ही उत्पादित होता है। मार्क एंड स्पेंसर जैसी बड़ी रिटेल चेन का सामान तो चेन्नई एसईजेड में ही बनता है, लेकिन अब उसके भारत में जो स्टोर हैं वहां हमें अपने ही देश में बने सामान की कीमत ज्यादा देनी पड़ती है, क्योंकि वे भारत से सामान खरीदकर पहले लंदन ले जाते हैं। वहां अपना ब्रांड लगाकर भारत लाते हैं। उसमें पचास प्रतिशत तो शुल्क लग जाता है। इसलिए उनका सामान अभी यहां महंगा पड़ता है, लेकिन अगर वे यहां मल्टीब्रांड स्टोर खोलेंगे तो यहीं से सामान खरीदेंगे और यहीं बेचेंगे। ऐसे में भारतीय उपभोक्ताओं को वह सामान और सस्ता मिलेगा।
आखिर क्या वजह रही कि अचानक सरकार रिटेल में एफडीआइ की इजाजत देने को तैयार हो गई?
राजनीतिक दलों ने अवसरवादिता के चलते सच्चाई त्याग दी है। इसकी पहल तो राजग सरकार ने 2002 में ही कर दी थी। वे तो सौ प्रतिशत एफडीआइ सीधे देने जा रहे थे। कैबिनेट नोट तक तैयार कर लिया था। जरूरत पड़ेगी तो हम उसे सदन के पटल पर रख देंगे। हमने तो इस फैसले तक पहुंचने से पहले व्यापक चर्चा की है। डेढ़ साल सभी पक्षों से विचार विमर्श किया। नीतिगत फैसला करने का अधिकार सरकार का है।
मगर जिस अंदाज में राज्यों की तरफ से इस नीति को नकारा गया है क्या आपको लगता है कि आपकी यह नीति देश में पर्याप्त एफडीआइ ला पाएगी?
चूंकि यह सरकार का नीतिगत फैसला है लिहाजा यह राज्यों पर है कि वे इसे अपने यहां लागू करते हैं या नहीं। कई बड़े राज्य इसे लागू करने के लिए राजी हैं। कुछ नहीं अपना रहे। नि:संदेह ये राज्यों का अधिकार क्षेत्र है, लेकिन विरोध करने वाले राज्यों के पास यह अधिकार नहीं है कि जो राज्य इस नीति को लागू करना चाहते हैं उन्हें इससे वंचित कर दें।
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