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पेट्रोल की बढ़ती कीमतों से जेब पर पड़ रही मार को कम करने के लिए ग्राहक अब डीजल कारों को महत्व दे रहे हैं, इसीलिए इस्तेमाल की गई कारों के बाजार में पेट्रोल इंजन वाली गाडि़यों की भरमार हैं। दूसरी ओर कम लागत और बेहतर माइलेज के कारण बाजार में डीजल कारों की मांग बढ़ रही है। स्थिति यह है कि डीजल कारों के लिए ग्राहक छह महीने का इंतजार करने के लिए भी तैयार हैं। दरअसल, पिछले कुछ महीनों के दौरान घरेलू बाजार में पेट्रोल और डीजल के दाम का अंतर बढ़ गया है और इसके चलते डीजल कारों की मांग में तेजी आई है। फिर डीजल कार पेट्रोल कार की तुलना में करीब 30 फीसदी ज्यादा माइलेज देती है। यही कारण है कि डीजल कार पेट्रोल कार से महंगी होने के बावजूद बिक्री के मोर्चे पर काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। दशक भर पहले जहां दो से चार फीसदी कारें ही डीजल इंजन से चलती थीं वहीं अब यह अनुपात बढ़कर 35 फीसदी हो गया है जिसके जल्दी ही 50 फीसदी पर पहुंच जाने का अनुमान है।
डीजल कारों को लेकर उपभोक्ताओं की धारणा बदलने का श्रेय नए कॉमन रेल डीजल इंजन (सीआरडीई) को जाता है। किसी जमाने में ज्यादा शोर करने वाले इंजन, भारी व बड़े आकार, महंगे रखरखाव व कम माइलेज के चलते डीजल कारों से दूर रहने वाले उपभोक्ता डीजल कारों को पसंद करने लगे हैं तो इसका कारण नया इंजन ही है। ये इंजन शोर नहीं करते और न ही भारी होते हैं। साथ ही इनकी शानदार माइलेज ग्राहकों को अपनी ओर खींच रही है। भारत में डीजल की छोटी कारों की शुरुआत 1998 में टाटा मोटर्स ने इंडिका लांच करके की। इसके बाद मारुति-सुजुकी, फिएट, निसान माइका, जनरल मोटर्स आदि कंपनियों ने कार के डीजल मॉडल बाजार में उतारे। डीजल कारों की बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया की चौथी सबसे बड़ी कार कंपनी हुंडई अब भारत में खुद का डीजल इंजन संयंत्र लगाने की तैयारी कर रही है। कार बाजार के विशेषज्ञों के मुताबिक पिछले सिर्फ तीन महीनों के दौरान ही देश में डीजल कारों की बिक्री का ग्राफ 20 फीसदी उछला है और आने वाले दिनों में इसमें और तेजी देखी जाएगी। भले ही डीजल से चलने वाली गाडि़यां जेब के मुफीद बैठती हों लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से ये हानिकारक हैं।
वाहन उद्योग यह दलील देता है कि मौजूदा समय में आ रही डीजल कारें ईको फ्रेंडली हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि भारत स्तर 4 और भारत स्तर 3 की डीजल कारें अपने ही पेट्रोल सेगमेंट से अधिक प्रदूषण फैलाती हैं। डीजल से चलने वाले वाहनों से नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे कई विषैले पदार्थ निकलते हैं जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं। ये वाहन भारतीय शहरों में सबसे जयादा प्रदूषण फैलाते हैं जबकि पेट्रोल वाहन इसके बाद आते हैं। डीजल कारों को तब तक पर्यावरण हितैषी कारों के रूप में बढ़ावा नहीं दिया जा सकता जब तक कि वे मानव स्वास्थ्य की कसौटी पर खरी न उतरें और सरकारी अनुदान से मुक्त न हों। भले ही सरकार ने जून 2010 से पेट्रोल की कीमतों को बाजार से जोड़ दिया हो, लेकिन डीजल पर सब्सिडी अभी भी जारी है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने और इसका अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर से सब्सिडी वाले डीजल पर एक नई बहस शुरू हुई है। यह मांग उठी है कि डीजल के बढ़ते दुरुपयोग को रोकने के लिए दोहरी मूल्य नीति लागू की जाए। हाल ही में केंद्रीय वित्तमंत्री ने कहा था कि सरकार कारों के लिए डीजल सब्सिडी खत्म करने पर विचार करेगी। उनकी इस घोषणा के बाद वाहन कंपनियों के शेयर धूल फांकते नजर आए। इससे उन पर दबाव बढ़ा और तीन दिन बाद ही उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में कहा कि इस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा है। केरोसिन से अनुभव लिया जाए तो दोहरी मूल्य नीति आसान नहीं होगी क्योंकि इसका प्रबंधन खासा कठिन होगा और इससे डीजल के कालाबाजार को बढ़ावा मिलेगा। ऐसे में डीजल कारों की बढ़ती भीड़ फिलहाल रुकने वाली नहीं है।
रमेश कुमार दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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