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निराशा के बीच नई उम्मीदें

जागरण मेहमान कोना
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Kuldeep Nayar2011 को घपले-घोटालों, शासकीय अकर्मण्यता और आर्थिक मोर्चे पर अनेक झटकों के वर्ष के रूप में देख रहे हैं कुलदीप नैयर


कभी धूप, कभी छाया-भारत की कहानी सदा से यही रही है। भारत की प्रतिष्ठा या बदनामी इसी पर निर्भर होती है कि कब कितनी धूप है और कब कितनी छाया। भ्रष्टाचार ने पूरे साल माहौल को धुंधला बनाए रखा। शासकीय अकर्मण्यता ने राष्ट्र को अलग से पीड़ा दी है। 2011 में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के कई कंकाल सरकार की अलमारी से बाहर आए। राष्ट्रमंडल खेल सफल रहे, लेकिन ये खेल फर्जी ठेकों, बढ़ा-चढ़ा कर दिखाए गए खर्च और खराब प्रबंधन के कारण बदनाम हो गए। जब राष्ट्रमंडल खेलों के कर्ता-धर्ता सुरेश कलमाड़ी और सहयोगी गिरफ्तार कर लिए गए तो राष्ट्र ने खुद को शर्मिदा महसूस किया।


सरकारी अलमारी से निकला एक और कंकाल 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला था। एक अनुमान के मुताबिक इसने राजकीय खजाने को, 40 हजार करोड़ का चूना लगाया, जबकि एक अन्य आंकड़ा एक लाख 76 हजार करोड़ का है। इस दौरान एक सकारात्मक घटना भी हुई। गांधीवादी अन्ना हजारे सामने आए। उन्होंने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए लोकपाल की संस्था बनाने की मांग की। हजारे वास्तव में सरकार के प्रति सिविल सोसायटी की नाराजगी का प्रतिनिधित्व करते दिखे। लोकपाल की मांग को लेकर हजारों लोग सड़क पर उतर आए। जनता के भारी दबाव और अन्ना के अनशन के कारण संबंधित बिल लाने के लिए संसद का शीतकालीन सत्र बढ़ाना पड़ा।


एक नए प्रकार का भारत आकार लेने लगा। लोगों को यह अहसास हो गया कि उनकी आवाज तभी सुनी जाएगी जब वे उसे उठाएंगे। यह देखने लायक था कि कांग्रेस को छोड़कर सभी राजनीतिक पार्टियां एक मंच पर इकट्ठा थीं। दुर्भाग्य से सरकार उस समय सक्रिय हुई जब मामला हाथ से निकल चुका था। उसने अपनी विश्वसनीयता वापस लाने के लिए भी कुछ नहीं किया। शासकीय अकर्मण्यता का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा। कीमतें बढ़ने लगीं और मुद्रास्फीति दो अंकों का आंकड़ा छूने लगी। इससे भी ज्यादा खराब था औद्योगिक उत्पादन में आई गिरावट। देशी और विदेशी, दोनों तरह के निवेशकों ने हाथ खींच लिए और रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 18 प्रतिशत गिर गया। पहले का आशावाद, खासकर लोगों का आत्मविश्वास, कम हो गया और आर्थिक मंदी के भय से लोग आशंकित हो उठे। आर्थिक सुधारों के मसीहा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद के सामने खुदरा कारोबार [रिटेल] में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रस्ताव लाए। विकास के कामों पर खर्च करने के लिए पैसा जुटाने के लिए पेंशन बिल लाया गया। रिटेल में एफडीआइ के भय का इतना असर हुआ कि राजनीतिक पार्टियां जिनमें कांग्रेस के सहयोगी दल भी थे, इसके विरोध में एक साथ हो गए। यह प्रधानमंत्री के लिए एक और झटका था। उनके प्रति लोगों का विश्वास इसलिए भी हिल गया है, क्योंकि वह विकास दर को पहले की तरह नौ प्रतिशत तक ले जाने में सक्षम नहीं दिख रहे। यह अब 7 प्रतिशत के आसपास घूम रही है। यह विकास दर न्यूनतम है, क्योंकि इससे नीचे आने पर कारखानों में तालाबंदी और भारी बेरोजगारी होगी। कांग्रेस ने अपनी प्रतिष्ठा थोड़ी बचा ली, क्योंकि भाजपा ने पेंशन बिल पर उसका समर्थन किया, लेकिन एफडीआइ पर 26 प्रतिशत की सीमा लगाकर। साल के आखिरी दिनों ने देश के 65 प्रतिशत गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा के उपायों को सामने आते देखा। पीछे की सीट से ड्राइव कर रही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को इसे अपनाने के लिए बाध्य किया। हालांकि यह योजना पहले से दबाव झेल रहे राजकोष पर 95 हजार करोड़ का बोझ डालेगी, लेकिन यह यूपी, पंजाब और उत्तराखंड समेत पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट जुटा सकती है। मुख्यमंत्री जयललिता के विरोध के बावजूद तमिलनाडु के कुडनकुलम में एक हजार मेगावाट वाले न्यूक्लियर पॉवर प्लांट को खोले जाने की घोषणा में प्रधानमंत्री की देर से आई मजबूती दिखाई देती है। उनका ऐसा ही संकल्प मार्च में खुदरा कारोबार में एफडीआइ लाने की घोषणा में दिखाई दिया था। आर्थिक सुधारों की लॉबी ने अभी तक उम्मीद नहीं छोड़ी है।


मनमोहन सिंह सरकार का उजला पक्ष यह है कि उसने पड़ोसी देशों से रिश्ते सुधारे हैं। भारत के साथ समीकरण के महत्व को रेखांकित करने के लिए मनमोहन सिंह ने रूस की यात्रा की और चीन तथा अमेरिका के राष्ट्रपति से मिले। भारत अगले साल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की उम्मीद कर रहा है, क्योंकि उसे रोकने वाले अकेले देश चीन ने अच्छे संकेत दिए हैं। अगले साल और आने वाले साल दर साल तक भारत के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि देश लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता के मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध हो रहा है। हिंदू और मुसलमान एक साथ रहना सीख गए हैं। अल्पसंख्यक अपनी बात मजबूती से रख रहे हैं, क्योंकि खुशहाली में उनका हिस्सा अभी भी कम है। सुरक्षा बलों की संयुक्त कमान ने माओवादियों के महत्वपूर्ण नेता किशन को मार गिराया। फिर भी माओवादी अपने संघर्ष से पीछे नहीं हटे हैं, क्योंकि ज्यादातर जगहों पर गरीबी और पिछड़ापन उन्हें आगे बढ़ने में मदद करते हैं।


सच है कि अगले साल भारत सात प्रतिशत की विकास दर को ही कायम रख पाएगा, लेकिन गरीबी हटाने के लिए 9 प्रतिशत की विकास दर चाहिए। इसलिए यह साल चुनौती भरा होगा। शायद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का यह कथन सच है कि आने वाली पीढि़यों को अधिक मेहनत करनी पड़ेगी। फिर भी, लोगों ने खुद में और देश में जो विश्वास पैदा कर लिया है वह उम्मीद जगाता है कि 2012 में सूरज की रोशनी फैलती जाएगी और अंधेरा छंटता जाएगा। आशावाद हर भारतीय का कर्तव्य है।


लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं


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