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Communalism in india: नए तेवर में सांप्रदायिकता

जागरण मेहमान कोना
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सांप्रदायिकता विभाजनकारी है। राष्ट्रीय एकता की विध्वंसक है। मजहबी सांप्रदायिकता के चलते ही देश बंटा था। स्वतंत्र भारत में भी सांप्रदायिक दंगों के दौरान हजारों लोग मारे गए। राजनीति ही सांप्रदायिक भावनाएं भड़काती है, सांप्रदायिकता को पालती-पोसती है, विपक्षी को सांप्रदायिक बताती है और स्वयं को पंथनिरपेक्ष। स्थितियां बद से बदतर हो रही हैं। आइबी ने उत्तर प्रदेश और बिहार में सांप्रदायिक भावना की बढ़त का आकलन किया है। माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की संभावित उम्मीदवारी के चलते हिंदुओं में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। इसके विरुद्ध मुस्लिम भी गोलबंद हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक को लेकर कांग्रेस व बसपा से सपा की गलाकाट प्रतिस्पर्धा है तो बिहार में लालू प्रसाद के राजद व मरणासन्न कांग्रेस से नीतीश कुमार की। ममता बनर्जी ने भी मुस्लिम वोट बैंक के लिए अनेक कोशिशें कीं। उन्होंने मस्जिद के इमामों और मोज्जिनों को भत्ता देने की घोषणा की। कोलकाता हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक कहा है। मजहबी आधार पर आतंकियों को भी रिहा करने की उत्तर प्रदेश सरकार की मंशा को भी उच्च न्यायालय ने गलत बताया था। आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण पर भी ऐसा ही निर्णय आया था। मूलभूत प्रश्न है कि सांप्रदायिकता की बढ़त के दोषी नरेंद्र मोदी हैं या मजहबी तुष्टीकरण में संलग्न राजनीतिक दल? 1राजनीतिक अभियान संविधान की मूल भावना के विरोधी हैं। संविधान की उद्देशिका में हम भारत के लोग राष्ट्र की इकाई हैं। राष्ट्र तमाम जातियों या हिंदू-मुस्लिम समुदायों का गठजोड़ नहीं है। राजनीतिक दलों और उनके मालिकों को भारत के लोगों से ही संवाद करना चाहिए, लेकिन यहां भारत के लोगों से कोई राजनीतिक संवाद ही नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राष्ट्रीय संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार बता चुके हैं। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का राजनीतिक संवाद एक-डेढ़ जातियों और मुसलमानों तक सीमित है।


उत्तर प्रदेश की सपा भी एक-डेढ़ जातियों और मुसलमानो की राजनीति करती है। बसपा भी आक्रामक जातीय अभियान चलाकर सत्ता में आई थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जातीय रैलियों पर रोक लगाई है। आंध्र, कर्नाटक आदि राज्यों में भी जाति और मजहब की राजनीति है। जातीय गठजोड़ और मजहबी तुष्टीकरण वाले दल सांप्रदायिकता की ही राजनीति करते हैं, लेकिन भाजपा को सांप्रदायिक बताते हैं। बुनियादी सवाल यह है कि सिर्फ मजहब के ही आधार पर आरक्षण या आतंकवादियों की भी पैरोकारी सांप्रदायिकता क्यों नहीं है? और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पक्षधरता भी सांप्रदायिकता क्यों है? 1आखिरकार सांप्रदायिकता है क्या? उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने मृतकों में भी मजहबी भेद किया। कब्रिस्तानों की बाउंड्री बनाने के लिए धन का प्रावधान हुआ। मजहबी आधार पर छात्रओं को धन आवंटन हुआ। केंद्र सरकार ने मजहबी आधार पर राजकोष लुटाया। मजहबी आरक्षण की मांग जोरों पर है। केंद्र ने साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी। बाद में उसे वापस लेना पड़ा। मजहबी आधार पर किसी भी समूह को मिली सुविधाएं दरअसल सांप्रदायिकता की ही पोषक हैं। पंथिक-मजहबी गोलबंदी ही सांप्रदायिकता है। राष्ट्र और उसके नागरिकों से भिन्न किसी भी सामूहिक अस्मिता की मान्यता सांप्रदायिकता ही है। मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को राष्ट्र से भिन्न पृथक कौम बताया था। अंग्रेजी सत्ता को यह अलगाववाद उपयोगी लगा। लीग ने अलग प्रतिनिधित्व मांगा। अंग्रेजों ने मार्ले मिंटो सुधार दिए। भारत परिषद अधिनियम 1909 में मुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व मिल गया। लीग ने मुसलमानों को अलग राष्ट्र बताया। सांप्रदायिक आक्रामकता बढ़ी। देश बंट गया। आधुनिक राजनीति में इतिहासबोध नहीं है। 1सांप्रदायिकता अब नए तेवर में है।


स्वतंत्र भारत के प्रथम दशक में यह लज्जित थी। देश विभाजन के घाव ताजा थे। राजनीतिक नेतृत्व में दृढ़ इच्छाशक्ति थी। संविधान सभा में मजहबी आरक्षण पर बहस चली। मोहम्मद इस्माइल ने कहा-मैं नहीं समझता कि एक वर्ग से दूसरे को अलग करने के लिए मजहब को आधार बनाने में कोई हानि है। जेडएच लारी ने आरोप लगाया कि आपको मुस्लिम हितों की चिंता नहीं है। सरदार पटेल ने कहा कि जिन लोगों के दिमाग में लीग का ख्याल बाकी है कि एक मांग पूरी करवा ली तो आगे उसी पर चलना है, वे बराय मेहरबानी अतीत को भूल जाएं। यदि ऐसा असंभव है तो आपके विचार में जो सवरेत्तम देश है वहां चले जाइए। 1सांप्रदायिकता अलगाववाद बढ़ाती है। सांप्रदायिक समूह थोक वोट डालते हैं। गरीबी, बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था राष्ट्रीय समस्याएं हैं। भुखमरी, कुपोषण और अशिक्षा किसी खास संप्रदाय की समस्या नहीं हैं, लेकिन संप्रग सरकार आर्थिक समस्याओं का अध्ययन भी सांप्रदायिक आधार पर करवाती है। सच्चर कमेटी को सिर्फ मुसलमानों की ही समस्याएं जांचने का काम सौंपा गया। केंद्र का यह निर्देश शुद्ध सांप्रदायिक था। क्या गरीबी, भुखमरी, बेजरोगारी और जनस्वास्थ्य आदि सिर्फ एक संप्रदाय की ही समस्या हैं? जैसे केंद्र का निर्देश सांप्रदायिक था वैसे ही सच्चर कमेटी की रिपोर्ट सांप्रदायिक थी, लेकिन यहां कानून भी सांप्रदायिक हो जाते हैं। आतंकवाद निरोधक कानून पोटा राष्ट्र से युद्धरत आतंकवादियों को गिरफ्त में लाने के लिए बनाया गया था। पोटा भी सांप्रदायिक हो गया।


भारत सांप्रदायिक कारणों से ही आतंकवाद पर मुलायम राष्ट्र है। 1सांप्रदायिकता दुधारी तलवार है। उत्तर प्रदेश में डेढ़ साल की सपा सरकार में डेढ़ दर्जन दंगे हुए। सरकार संरक्षित सांप्रदायिक आक्रामकता बढ़ी है। बिहार में भाजपा से अलग हुए नीतीश कुमार ने भी मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिए सांप्रदायिक चालें चली हैं। ये मजहबी वोट बैंक के लोभ में बहुसंख्यक समुदाय के हितों के खिलाफ काम करते हैं। हिंदू मन स्वाभाविक रूप से असांप्रदायिक है। सैकड़ों जातियों में विभाजित हिंदू समाज की आस्था भी बहुदेववादी, एकेश्वरवादी, अनीश्वरवादी सहित विभिन्न विचारधाराओं वाली है। बावजूद इसके कट्टरपंथी मजहबी सांप्रदायिकता ने हिंदू मन को आहत और बेचैन किया है। आइबी को सांप्रदायिक विभाजन की झलक इसी वजह से मिली है। हरेक विचार या वाद का प्रतिवाद भी होता है। आप एक सांप्रदायिकता की आक्रामकता को गले लगाते हैं, उसका पालन-पोषण और संरक्षण करते हैं और बहुसंख्यक संप्रदाय की विनम्रता और सहिष्णुता को भी अपमानित करते हैं तो इसकी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है। राजनीति ने ही लगातार सांप्रदायिकता का संवर्धन किया है, लेकिन इससे राष्ट्रीय एकता के विखंडन का खतरा है। थोड़ा राष्ट्र के विषय में भी सोचिए। राष्ट्र से भिन्न कोई भी अस्मिता सांप्रदायिकता है।


इस आलेख के लेखक हदयनारायण दीक्षित हैं


Web Title: Communalism in india

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