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अंधकार में भटकती माकपा

जागरण मेहमान कोना
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कोझिकोड में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की 20वीं कांगे्रस संपन्न हुई जहां कामरेड प्रकाश करात को एक बार फिर से महासचिव चुन लिया गया। राजनीतिक संक्रमणकाल में संपन्न माकपा की इस बीसवीं कांग्रेस से उम्मीद यह थी कि भारतीय वामपंथी देसज जरूरतों को मद्देनजर रखते हुए कम्युनिज्म का एक भारतीय मॉडल तैयार करेंगे और चीन, रूस या लैटिन अमेरिका से आयातित मॉडल पर विश्वास करना छोड़ देंगे। वैसे वामपंथियों ने इस किस्म के दावे भी किए थे और सीताराम येचुरी ने स्पष्ट रूप से कहा भी था कि माकपा अन्य देशों के मॉडल का पालन नहीं कर रही है। कांगे्रस में भारतीय मॉडल को विचार के लिए प्रस्तुत भी किया गया। लेकिन इस दावेबाजी के बावजूद माकपा की सोच में कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिला। माकपा को लगभग तीन दशक बाद पश्चिम बंगाल में सत्ता से हाथ धेना पड़ा। अन्य राज्यों में भी उसकी स्थिति बद से बदतर हुई, लेकिन उसने अपना पुराना राग अलापना नहीं छोड़ा। अगर पॉल साइमन के शब्दों का प्रयोग करते हुए कोझिकोड कांगे्रस का सार निकाला जाए तो इतने वर्ष बाद भी अपने देश के मार्क्सवादी सोवियत मानसिकता से नहीं उबर सके हैं।


माकपा न अपनी गलतियों को स्वीकार करने और न ही वह सुधार के लिए तैयार है। मसलन, माकपा ने संप्रग सरकार से भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर अपना समर्थन वापस लिया था। यह समझौता निश्चित रूप से भारत को अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था का हिस्सा बना देता है, लेकिन इस मुद्दे पर माकपा का अलगाववादी अडि़यल रवैया कोझिकोड में भी देखने को मिला। उसे अब भी लगता है कि परमाणु समझौते पर उसका दृष्टिकोण सही था। दरअसल, अपने अडि़यल रवैये से माकपा देश के सामने जो विकल्प रख रही है, उससे केवल दो संभावनाएं बन सकती हैं। एक, परमाणु समझौते का विरोध करके भारत विश्व में अकेला पड़ जाए और दूसरा यह कि परमाणु समझौते का विरोध करके माकपा देश में अकेली पड़ जाए।


पुरानी पड़ चुकी विचारधारा के लिए कुर्बानी देने पर माकपा को कोई इनाम नहीं देने जा रहा है। यह अलग बात है कि वह स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाती रहे। इसी तरह माकपा व्यापारियों को अपनी पंक्ति में शामिल करने की इच्छुक नहीं है और न ही वह उपनिवेशवाद विरोधी विचारधारा को छोड़ने के लिए तैयार है, जैसा कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने किया है। चीन में तो वामपंथियों के पास हुक्म चलाने के लिए एक विशाल देश मौजूद भी है, जिससे वह बाजार और पश्चिम, दोनों से शांति स्थापित कर सकते हैं। लेकिन अपने देश के कामरेडों के पास तो त्रिपुरा को छोड़कर शासन करने के लिए कोई भी राज्य नहीं बचा है। तीन वर्ष में एक बार होने वाली कांगे्रस में चूंकि सुधार या परिवर्तन का कोई एजेंडा मौजूद नहीं था, इसलिए पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कोझिकोड में हिस्सा नहीं लिया। गौरतलब है कि भट्टाचार्य एक समय में माकपा का सुधारवादी चेहरा थे, क्योंकि उन्होंने पूंजीवाद और बाजार अर्थशास्त्र पर अपनी पार्टी का दृष्टिकोण बदलने का प्रयास किया था, लेकिन आज भट्टाचार्य के सुधार कार्यक्रमों को माकपा में ग्रहण करने वाला कोई नहीं है। माकर््सवादियों को लगता है कि भट्टाचार्य ने जो पश्चिम बंगाल का औद्योगिकरण करने का प्रयास किया, उसने ही उनकी इस प्रदेश में चुनावी लुटिया डुबाई। लेकिन तथ्य यह है कि पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी अपनी नई औद्योगिक नीति के कारण नहीं, बल्कि उसे आक्रामकता से लागू करने और जन भावनाओं को नजरअंदाज करने के कारण हारे।


यह विश्वास से कहा जा सकता है कि दिल्ली स्थिति माकपा मुख्यालय में जो नेता बैठे हैं, वे बदलते जमाने से बहुत दूर हैं और संसार में जो नाटकीय परिवर्तन आ रहे हैं, उनकी तटस्थ समीक्षा करने या उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद लोकतांत्रिक राष्ट्रों की वामपंथी पार्टियां सामाजिक लोकतंत्र में परिवर्तित हो गई हैं। यह बदलाव माकपा के लिए भी आवश्यक है, अगर वह भारतीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना चाहती है। हालांकि माकपा का कहना है कि अब वह भारत में गैरकांगे्रस और गैरभाजपा विकल्प को मजबूत करने पर फोकस कर रही है, लेकिन जिस तरह वह अपने प्रमुख गढ़ पश्चिम बंगाल व केरल में सिमटती जा रही है, उससे नहीं लगता कि वह तथाकथित थर्ड फ्रंट के गठन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाएगी।


लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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