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कॉमरेड कब समझेंगे जमीनी सच्चाई

जागरण मेहमान कोना
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Satish Pednekarकभी हिंदी के मूर्धन्य कवि शमशेर बहादुर सिंह ने गजब के आत्मविश्वास के साथ लिखा था, दिशा वाम-वाम-वाम, समय साम्यवादी। एक समय ऐसा था, जब कामरेडों को सचमुच ऐसा लगता था कि साम्यवाद या कम्युनिज्म एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है और वह आकर ही रहेगा। लेकिन वक्त के सितम तो देखिए, आज हालत यह है कि सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप और यूगोस्लाविया आदि देशों में कम्युनिज्म के परखच्चे उड़ चुके हैं। माओ के चीन में साम्यवाद बाजारवाद की राह पर भटक गया है। क्यूबा और वियतनाम में वह किसी तरह अपना अस्तित्व बचाए हुए है। यूरोप में तो कम्युनिस्ट पार्टियां कबकी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों में तब्दील हो चुकी हैं। विश्वभर में बह रही इस बयार का असर भारत के कम्युनिज्म पर भी पड़ा है। वह दस से ज्यादा दलों में खंड-खंड होने के बाद राजनीतिक हाशिये पर चला गया है। हाल ही में पटना में भाकपा कांग्रेस और कोझिकोड में माकपा कांग्रेस का एक ही संकेत है कि देश में संसदीय रास्ते पर चल रही इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने यह कसम खा रखी है कि उनकी हालत राजनीतिक रूप से कितनी ही खस्ता क्यों न हो जाए, वे नहीं सुधरने वाली। उनके अडि़यलपन के कारण कम्युनिस्ट पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा दोनों ही भारतीय राजनीति में तेजी से अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टियों की कांग्रेस ऐसे समय हुई, जब दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टियां अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही हैं।


राजनीति की विचित्र करवट


भाकपा तो बहुत पहले ही राजनीति में अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। वह किसी तरह से राष्ट्रीय पार्टी का अपना दर्जा बचाए हुए है। पटना में हुई भाकपा की कांग्रेस में एक लंबे समय से पार्टी के महासचिव रहे एबी वर्धन की जगह आंध्र प्रदेश के सुधाकर रेड्डी को पार्टी का महासचिव चुना गया। वर्धन के रहते हुए पार्टी की हालत बद से बदतर होती गई, लेकिन वर्धन पार्टी की कमान नई पीढ़ी को सौंपने के मूड में नहीं थे। इस बार उन्हें रिटायर होना ही पड़ा। वैसे अब भाकपा की हालत इतनी कमजोर हो चुकी है कि नया नेतृत्व कुछ नया कर पाएगा, इसके आसार कम ही हैं। राजनीतिक हल्कों में सोवियत संघ की पिछलग्गू के तौर पर जानी जाने वाली भाकपा सोवियत संघ में कम्युनिज्म के खात्मे के सदमे से कभी नहीं उबर पाई। कभी देश के कई राज्यों में उसका खासा प्रभाव था, लेकिन आज वह माकपा से गठबंधन होने के कारण कुछ सीटें जीत पाती है।


पार्टी की ट्रेजडी यह है कि बड़े भैया की भूमिका निभाने वाली माकपा को उसकी हालत पर जरा भी तरस नहीं आ रहा। वाम एकता को तमाम नारों और भाकपा नेताओं की हार्दिक इच्छा के बावजूद माकपा नेता अपनी पार्टी में भाकपा का विलय कराने के लिए तैयार नहीं हैं। नतीजतन बेचारे भाकपा नेताओं की मजबूरी हो गई है कि वे किसी तरह से पार्टी चलाते रहें। इतनी बुरी स्थिति में पहुंचने के बावजूद भाकपा के नेतृत्व में अपनी कालबाह्य हो चुकी विचारधारा को जांचने और उसे नए वक्त के अनुरूप ढालने की कोई कोशिश नजर नहीं आती। दूसरी तरफ बहुत बुरी हालत होने के बावजूद माकपा, भाकपा और माकपा (माले) जैसी संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच मतभेद इतने ज्यादा हैं कि सबको एकजुट करके नई एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की कोई कोशिश नजर नहीं आती। माकपा की हालत भी कोई बेहतर नहीं है। पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद उसके भी हौसले पस्त हैं। एक तरफ 33 वर्षो से जिस पश्चिम बंगाल में उसका शासन था, वहां वह पहली बार हार गई। वह भी बहुत बुरी तरह। इसके अलावा केरल में भी उसे मुहं की खानी पड़ी। इसके बावजूद पार्टी ने महासचिव प्रकाश करात की नीतियों का अनुमोदन करते हुए उन्हें एक बार फिर चुन लिया।


हालाकि राजनीतिक पर्यवेक्षकों का यह मानना रहा है कि प्रकाश करात पार्टी में नीतियों का नया प्रकाश लाने के बजाय सैद्धांतिक कट्टरतावाद का अंधेरा लेकर आए हैं, जो पार्टी की चुनावी पराजय का कारण बना। ऐसे नेतृत्व पर फिर विश्वास जताकर माकपा ने यह संकेत दे दिया है कि वह अपनी पुरानी नीतियों और नेतृत्व से चिपकी रहेगी। चर्चा तो यह थी कि माकपा कोझिकोड कांग्रेस में चुनावी असफलता के कारणों की समीक्षा करेगी। इसी संदर्भ में विचारधारा प्रस्ताव पारित करने की बात कही जा रही थी। विचारधारा के प्रस्ताव को इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा था, क्योंकि बीस साल बाद इस तरह का प्रस्ताव पेश हो रहा था। इससे पहले 1992 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पैदा हुई स्थिति पर फिर से विचार करने के लिए इस तरह का प्रस्ताव पेश किया था ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तरपर हुए नये घटनाक्रम के संदर्भ में पार्टी की विचारधारा को फिर से जांचा-परखा जा सके। लेकिन विचारधारा प्रस्ताव में कुछेक मुद्दों को छोड़कर वैचारिक लीपापोती ही थी। पहले यह माना जा रहा था कि इस अपमानजनक पराजय से सबक लेकर माकपा अपनी विचारधारा और कार्यक्रमों की पड़ताल करेगी। उसे नए जमाने और नई पीढ़ी के लिए प्रासंगिक बनाने की कोशिश करेगी, लेकिन प्रस्ताव में ऐसी कोई बात नजर नहीं आई, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्टी सैद्धांतिक कट्टरता को छोड़ने के लिए तैयार है।


दरअसल, प्रस्ताव से एक ही बात साफ नजर आती है कि माकपा भविष्य में अपनी वैचारिक पाखंड की नीति को बरकरार रखेगी। माकपा संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी कर तो रही है, लेकिन उसने सर्वहारा की तानाशाही जैसी अपनी लोकतंत्र विरोधी अवधारणाओं को छोड़ा भी नहीं। इस तरह वह लोकतंत्र और सर्वहारा की तानाशाही जैसी परस्पर विरोधी विचारधाराओं की दो नावों की एक साथ सवारी करना चाहती है। वह मानव अधिकारों की बात करती है, मगर उसने स्टालिन और माओ जैसे अपने नेताओं को नकारा नहीं है, जिनके हाथ निर्दोष लोगों के खून से रंगे हुए हैं। माकपा का आर्थिक एजेंडा भी वैचारिक भूल-भुलैया में खो गया है। पिछले कुछ सालों के दौरान एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि साम्यवाद की उत्पादन और वितरण के साधनों पर सरकारी स्वामित्व और नियोजित अर्थव्यवस्था की अवधारणा देश को विकास के पथ पर नहीं ले जा सकती, लेकिन माकपा इसे छोड़ने को कतई तैयार नहीं है। जबकि चीन के अनुभव ने बता दिया कि खुले बाजार की व्यवस्था को अपनाकर किस तरह तेजी से प्रगति की जा सकती है, लेकिन माकपा ने चीन के आर्थिक मॉडल को सराहने के बजाय पहली बार इसकी तीखी आलोचना की और कहा कि इसके कारण चीन में असमानता और भ्रष्टाचार बढ़े हैं। हर बार की तरह उसने इस बार भी कहा है कि वह भारत के लिए अपना अलग मॉडल बनाएगी, लेकिन उस मॉडल की कोई रूपरेखा वैचारिक प्रस्ताव में नजर नहीं आती। उसके पास वितरण न्याय का तो लंबा-चौड़ा एजेंडा है, लेकिन वितरण करने के लिए पहले उत्पादन बढ़ाने और ऊंची विकास दर को हासिल करना जरूरी है। मगर उसकी कोई रूपरेखा पार्टी के पास नहीं है। एक बात तो स्पष्ट है कि साम्यवाद के तरीके कम से कम उत्पादन बढ़ाने के मामले में नाकाम साबित हो चुके हैं। इसलिए चीन को बाजारवाद की राह अपनानी पड़ी। बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे खांटी कम्युनिस्ट भी आर्थिक सुधार, आर्थिक उदारावाद और वैश्वीकरण की बातें करने लगे। विचारधारा प्रस्ताव पढ़कर एक ही बात समझ में आती है कि माकपा ने कसम खा रखी है कि वह नहीं सुधरेगी।


लेखक सतीश पेडणेकर वरिष्ठ पत्रकार हैं


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