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खेती की नई चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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पिछले तीन साल से खाद्य महंगाई थामने में जुटी सरकार के सामने क्रॉप हालिडे ने एक नई चुनौती पैदा कर दी है। बढ़ती लागत और घटती आय की वजह से आंध्र प्रदेश के पूर्वी व पश्चिमी गोदावरी, गुंटूर, वारंगल जिलों में छोटे व सीमांत किसानों ने खेती न करने का फैसला किया। अब ये किसान खेती के बजाय मनरेगा के तहत मजदूरी करेंगे। किसानों में असंतोष की मूल वजह उर्वरक, कीटनाशक, बीज और श्रमिकों के मूल्य में बेतहाशा बढ़ोतरी है। इससे उत्पादन लागत इतनी बढ़ गई है कि किसान अब खेती छोड़कर रोजी-रोटी के वैकल्पिक साधनों की ओर रुख कर रहे हैं। देखा जाए तो 2009 में पोषक तत्व आधारित सब्सिडी (एनबीएस) अपनाने के बाद उर्वरकों के दाम तेजी से बढ़े हैं। अधिकांश फसलों में प्रयुक्त होने वाले डाई अमोनियम फास्फेट (डीएपी) की कीमतें पिछले तीन वषरें में 450 रुपये से बढ़कर 950 रुपये प्रति कट्टा (50 किग्रा) हो गईं हैं। फिर किसानों को डीएपी के एक कट्टे के लिए 1350 रुपये तक चुकाना पड़ता है क्योंकि जरूरत के समय इसकी किल्लत हो जाती। इसी प्रकार यूरिया की कीमत दोगुनी बढ़ चुकी है। पिछले पांच वषरें में श्रमिकों की लागत 300 फीसदी तक बढ़ी है।


तटीय आंध्र प्रदेश के बेहद उपजाऊ इलाकों को कोनासीमा के नाम से जाना जाता है। धान की भरपूर पैदावार के चलते इसे प्रदेश का धान का कटोरा कहा जाता है। लेकिन इस साल यहां के 40,000 किसानों ने अपनी जमीन को परती रखा है यानी खेती नहीं की। इसका अर्थ है कि धान उगाने वाली 90,000 एकड़ जमीन परती रह गई और पिछले साल हुए धान के पांच लाख टन के उत्पादन के रिकार्ड को दोहराया नहीं जा सका। यह स्थिति देश के कई हिस्सों में शुरू हो चुकी है भले ही वहां के किसानों ने क्रॉप हालिडे की घोषणा न की हो। उदाहरण के लिए उड़ीसा में हजारों एकड़ जमीन परती पड़ी है क्योंकि खेती पुसाने लायक नहीं रह गई है।


किसानों को सबसे बड़ी शिकायत खेती की लागत और समर्थन मूल्य के निर्धारण में कोई तालमेल नहीं होना है। यही निष्कर्ष सरकार द्वारा गठित समिति का भी है। मोहन कांडा समिति की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे हालात बनने की करीब एक दर्जन वजहें है। इसमें सबसे बड़ी वजह सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) है जिसे लेकर किसानों में काफी गुस्सा है। दरअसल, एक क्विंटल धान पैदा करने की लागत 1583 रुपये हैं जबकि सरकार ने धान के लिए 1110 रुपये एमएसपी घोषित किया है। इसका मतलब यह है कि किसानों को 473 रुपये प्रति क्विंटल और प्रति एकड़ करीब 10,000 रुपये का नुकसान हो रहा है। ऐसे में धान की खेती कौन करेगा? यही कारण है कि खेत परती छोड़ने का चलन बढ़ता ही जा रहा है। एमएसपी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के आधार पर तय किया जाता है और इसकी सिफारिशों को मानने के लिए केंद्र सरकार बाध्य नहीं है क्योंकि उसे महंगाई का भी ध्यान रखना पड़ता है। फिर आयोग अपनी सिफारिश करते समय स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में न रखकर पूरे देश के लिए एक समान मानक तय करता है जबकि असम से लेकर तमिलनाडु तक खेती की लागत में काफी अंतर है।


मजदूरी में अंतर के अलावा खेती में लगने वाले अन्य संसाधनों की लागत में भी काफी अंतर है। फिर मजदूरों की कमी भी एक बड़ी समस्या बन चुकी है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के कारण खेती के लिए मजदूरों का मिलना मुश्किल हो गया है। देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां खेती-किसानी के लिए कभी दीर्घकालिक नीति बनी ही नहीं। इसे आंध्र प्रदेश में आम के पेड़ लगाने के उदाहरण से समझा जा सकता है। खेती के घाटे का सौदा बनने पर बागवानी विकास के तहत सरकार ने आम के पेड़ लगाने के लिए भारी सब्सिडी दी। इससे आम के भंडारण, विपणन, प्रसंस्करण आदि सुविधाओं का ध्यान रखे बिना बड़े पैमाने पर आम के पेड़ लगाए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि जैसे ही फसल मंडी में आई वैसे ही कीमतें गिर गईं और बागान मालिकों को अपनी लागत निकालना कठिन हो गया।


लेखक रमेश कुमार दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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