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ममता बनर्जी की मजबूरी

जागरण मेहमान कोना
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राष्ट्रपति पद के संप्रग उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का विरोध करने के कारण ममता बनर्जी भले ही देश की सहानुभूति खो चुकी हों, पर इस मुद्दे पर पश्चिम बंगाल के लोगों का उन्हें पूरा समर्थन प्राप्त है। यदि ममता ने प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी का समर्थन कर दिया होता तो बंगाल के वाम दल यह प्रचार करते कि जिस प्रणब मुखर्जी ने राज्य के आर्थिक हितों की अनदेखी की उसी का समर्थन ममता कर रही हैं। ममता ने सिर्फ इसलिए प्रणब की उम्मीदवारी का विरोध किया ताकि बंगाल में यह संदेश जाए कि उनके लिए राज्य के आर्थिक हित सबसे महत्वपूर्ण हैं। यह संदेश राज्यभर में गया भी। ममता को विरासत में आर्थिक रूप से दीवालिया राज्य मिला है जहां पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लिए गए कर्ज का सिर्फ ब्याज ही 15,000 करोड़ रुपये और किश्त सात हजार यानी कुल 22,000 करोड़ रुपये देने पड़ रहे हैं, जबकि राज्य की कुल आय 21,000 करोड़ रुपये है। यानी आय से ज्यादा कर्ज ही लौटाना पड़ रहा है। ममता ने वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ छह बार बैठक कर कर्ज की यह राशि तीन साल के लिए स्थगित करने की मांग की, जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यदि बंगाल को रियायत दी तो दूसरे राज्यों से भी ऐसी मांगें उठेंगी और सबको रियायत देना केंद्र सरकार के लिए संभव नहीं है। रियायत नहीं मिलने के कारण ममता को सरकार चलाने में खासी दिक्कतें पेश आ रही हैं और इसी कारण वह केंद्र की संप्रग सरकार और खासतौर पर प्रणब मुखर्जी से नाराज चल रही हैं। माना जा रहा है कि ममता अंत तक प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी का विरोध करेंगी अथवा तटस्थ रहने का फैसला करेंगी, जबकि उन्हें पता है कि प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद के लिए आसानी से चुन लिए जाएंगे।


प्रणब की उम्मीदवारी के विरोध का कारण ममता की राजनीतिक मजबूरी है, वर्ना ये वही ममता बनर्जी हैं जो प्रणब मुखर्जी से उस समय भी मिलती थीं जब कांग्रेस छोड़ने के बाद कांग्रेसी उनसे बात करने से भी हिचकते थे। तब ममता से कुछ वरिष्ठ कांग्रेसियों ने कहा था कि प्रणब मुखर्जी से इस तरह मिलने से हाईकमान नाखुश होगा तो ममता ने जवाब दिया था-मेरा निर्माण किसी ने नहीं किया है और इसीलिए मेरा भविष्य भी कोई और तय नहीं करेगा। प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी का विरोध करने के बावजूद बंगाल में ममता की राजनीतिक लाइन के समर्थन में नागरिक समाज ने कोलकाता में जिस तरह बड़ी-बड़ी रैलियां निकालीं उससे स्पष्ट है कि स्थानीयता की दृष्टि से ममता बनर्जी के फैसले के साथ बंगाल के लोग हैं। बंगाल कांग्रेस के इस तर्क पर कि बंगाल का एक व्यक्ति राष्ट्रपति बनने जा रहा है इस नाते उसका समर्थन किया जाना चाहिए, नागरिक समाज का कहना है कि यदि ऐसा ही है तो बंगाल के आर्थिक हितों के प्रति प्रणब मुखर्जी ने उदासीनता क्यों दिखाई? यह स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है कि ममता बनर्जी के लिए सबसे ऊपर क्षेत्रीय हित हैं-यद्यपि इसी कारण वह एक वर्ग के निशाने पर भी हैं। ममता की इसी लाइन के कारण कदाचित उनका जन-समर्थन बढ़ रहा है।


15 जून को घोषित राज्य विधानसभा की दो सीटों-बांकुड़ा तथा दासपुर के चुनाव नतीजे को देखें तो साफ हो जाएगा कि पिछले वर्ष राज्य में परिवर्तन की जो लहर चली थी वह अब भी बरकरार है और ममता अभी भी राज्य की जनता के भरोसे की साथी बनी हुई हैं। बांकुड़ा और दासपुर, दोनों विधानसभा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस जीती है। इस उपचुनाव के ठीक पहले राज्य की छह नगरपालिकाओं के चुनाव हुए थे, जिनमें चार पर तृणमूल कांग्रेस की जीत हुई थी। विधानसभा की दो सीटों के लिए हुए उपचुनाव तथा छह नगरपालिकाओं के चुनाव से स्पष्ट है कि तृणमूल कांग्रेस अकेले दम पर चुनाव जीत सकती है, किंतु तृणमूल की मदद के बगैर कांग्रेस का जीतना कठिन है। इस बार तृणमूल कांग्रेस ने जिस तरह अकेले चुनाव लड़कर दुर्गापुर, धूपगुड़ी, पांशकुड़ा और नलहाटी नगरपालिकाओं में जीत हासिल की है उसी तरह कोलकाता नगर निगम के पिछले चुनाव में भी तृणमूल कांग्रेस अकेले लड़ी थी और जीती थी। बंगाल विधानसभा उपचुनाव तथा नगरपालिका चुनाव के नतीजों से यह भी साबित हुआ है कि एक साल के बाद भी वाममोर्चा, खास तौर पर माकपा खड़ी नहीं हो पा रही है। जनता से पुन: जुड़ने की ईमानदार कोशिश नहीं किए जाने से माकपा पहले से और ज्यादा कमजोर हुई है। पिछले एक वर्ष के दौरान राज्य सरकार को घेरने के कई मौके माकपा के पास थे, वे मौके उसने हाथ से जाने दिए और दूसरी तरफ गलत राजनीतिक रुख अपनाया।


पश्चिमी मेदिनीपुर में राज्य के पूर्व मंत्री तथा माकपा नेता सुशांत घोष के घर के पास से नरकंकाल बरामद होने और नंदीग्राम नरसंहार के लिए जिम्मेदार माने जानेवाले लक्ष्मण सेठ की अंतत: दूसरे राज्य से हुई गिरफ्तारी के मामले में बंगाल माकपा ने जो रुख अपनाया वह आत्मघाती था। पार्टी पूरी तरह सुशांत घोष और लक्ष्मण सेठ के साथ खड़ी रही। उधर, माकपा की केंद्रीय कमेटी द्वारा गत दस जून को अपने पूर्व सांसद अनिल बसु को पार्टी से निकालने का फैसला किए जाने का असर हुगली जिले में माकपा संगठन पर पड़ने लगा है। माकपा ने इसी तरह कभी सोमनाथ चटर्जी तथा सैफुद्दीन चौधरी को भी पार्टी से निकाला था। सांगठनिक तौर पर बंगाल माकपा के नेतृत्व के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती पार्टी में मचे घमासान को रोकना और राज्य में मजबूत और जिम्मेदार प्रतिपक्ष की भूमिका निभाकर जनता का खोया विश्वास पुन: हासिल करना है।


लेखक कृपाशंकर चौबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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