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राजनीतिक भ्रष्टाचार के संदर्भ में राहुल गांधी के विचार को एक किस्म का पाखंड मान रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
राजनीति लोकमंगल का अधिष्ठान है। स्वराष्ट्र का आराधन और स्वराज्य का अर्चन। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में बताया कि राजनीति-दंडनीति अप्राप्त को प्राप्त कराती है, प्राप्त की रक्षक है, रक्षित की वृद्धि करती है, वही सविर्द्धत संपदा को उचित कार्यो में लगाती है। सारी लोकयात्रा उसी पर निर्भर है। वाल्मीकि रामायण में आदर्श राजनीति की ऐसी ही तमाम बातें श्रीराम ने भरत को चित्रकूट में बताई थीं और महाभारत में नारद व भीष्म ने युधिष्ठिर को। प्राचीन भारत में लोककल्याण और राजनीति पर्यायवाची थे। महात्मा गाधी जैसे नेता इसी मार्ग के यात्री थे, लेकिन वर्तमान राजनीति महालाभ का उद्योग है, यहा अरबों-खरबों का पूंजी निवेश है, पार्टी चलाना भी भारी उद्योग है। सत्ता में होना लाभ है, विपक्ष में होना भी लाभ है। आयोग या जाच समिति में होना लाभप्रद है, जाच में देरी अतिरिक्त लाभ है। विदेशी करार में लाभ है, इसको लेकर हुई तकरार में भी लाभ है। सचार और दूरसचार में भी लाभ है। राहुल गाधी ने ‘राजनीति को भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा क्षेत्र’ बताकर भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए युवकों का आज्जान किया है।
राहुल गाधी काग्रेस के शीर्ष पर हैं। राहुल ने सप्रग सरकार को निकट से देखा है, घोटाले दर घोटाले और भारी भ्रष्टाचार के अनुभवों से ही उनका ताजा वक्तव्य आया है। वह सौभाग्यशाली हैं। सप्रग अध्यक्ष सोनिया गाधी के पुत्र होने के कारण वह शीर्ष पर हैं, लेकिन ऐसा शीर्ष स्थान पाकर भी सप्रग के भ्रष्टाचार पर मौन रहे। वह शक्तिशाली होकर भी भ्रष्टाचार से नहीं लड़े तो उनके आज्जान पर साधारण युवा राजनीतिक भ्रष्टाचार से कैसे लड़ेंगे? बेशक युवा लड़ना चाहते हैं, लेकिन वर्तमान राजनीतिक दलतत्र लड़ाकू युवकों को अवसर नहीं देता। युवक काग्रेस सहित अधिकाश दलीय युवा सगठनों में नेता पुत्रों या बड़े नेता के पिछलग्गुओं की भूमिका है। उन्हें सहज ही पार्टी पद मिलते हैं और चुनाव के टिकट भी। राहुल गाधी जैसे युवक स्वाभाविक नेता नहीं हैं। बावजूद इसके वह शीर्ष पर हैं। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ मे राजपुत्रों को केकड़ा बताया गया है और उनसे राज्य को सतर्क रहने की नसीहत दी गई है, लेकिन आधुनिक राजनीति में नेतापुत्र/पिछलग्गू ही भारत का भविष्य हैं? राजनीति में व्याप्त इस भ्रष्टाचार पर राहुल ने कोई ध्यान नहीं दिया है।
राजनीति का क्षेत्र बेशक भ्रष्ट है, लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि राजनीति में भ्रष्टाचार का मूल स्नोत क्या है? काग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। विचारहीन सत्तावादी राजनीति का विकास काग्रेस ने ही किया। राहुल गांधी नोट करें-भ्रष्टाचार की शुरुआत काग्रेस ने की। पं. नेहरू के समय से ही केंद्र के निगरानी विभाग ने भ्रष्टाचार के 80 हजार मसले गृहमंत्रालय को भेजे। वित्तामत्री टीटी कृष्णमाचारी मूदड़ा कांड में हटे, शोर थमा तो फिर मंत्री बन गए। कृष्णा मेनन जीप घोटाले के आरोपी थे। लोकलेखा समिति की प्रतिकूल टिप्पणी के बावजूद उन्हें रक्षामंत्री पद मिला। उद्योगपति धर्म तेजा को बिना जाच ही 20 करोड़ का कर्ज दिलाने के आरोप में प. नेहरू चर्चा का विषय थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गाधी के कथित फोन पर नागरवाला को स्टेट बैंक आफ इंडिया के प्रमुख ने 60 लाख रुपए दिए। ससद में शोर हुआ। नागरवाला ने कहा कि उसने प्रधानमंत्री की आवाज में स्वय फोन किया। उसे सजा हो गई। उसने नए सिरे से सुनवाई की माग की। उसकी रहस्यपूर्ण मृत्यु हो गई। जाचकर्ता पुलिस अधिकारी भी रहस्यपूर्ण दुर्घटना में मारा गया। प्रधानमंत्री नरसिह राव व डा. मनमोहन सिह ने विश्वासमत के लिए सदन में वोट के बदले नोट सिद्धात चलाया।
राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर ही अन्ना हजारे लड़ रहे हैं और इसी के विरुद्ध रामदेव भी। इन महानुभावों के सघर्ष उचित प्रतीत होते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में सलिप्त अनेक मंत्रियों के कदाचरण से निर्दोष कथित अनजान प्रधानमंत्री मनमोहन सिह भी भ्रष्टाचार से विनम्र लड़ाई की अपील कैसे कर रहे है? सत्तादल के सबसे प्रभावी युवा राहुल गाधी के संघर्ष का मतलब क्या है? हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मीनकाफ’ में लिखा था कि झूठ का आकार विश्वसनीयता का प्रमुख कारण होता है। भ्रष्टाचार से राहुल की लड़ाई के झूठ का आकार बड़ा है। वह चाहते हैं कि लोग सप्रग का भ्रष्टाचार न देखें, भ्रष्टाचार से उनके संघर्ष को महत्व दें। लोग सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणियों को नजरंदाज करें, लेकिन उनकी आवाज सुनें। आखिरकार उन्होंने अब तक सप्रग के भ्रष्टाचार पर एक बार भी अपना मुंह क्यों नहीं खोला? राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलना आसान है, लेकिन उदाहरण रूप में भी केंद्रीय सत्ता के भ्रष्टाचार का उल्लेख करने से बचना राजनीतिक पाखंड है और अपने आप में स्वय सबसे बड़ा भ्रष्टाचार भी।
भारत के राजनीतिक दलतंत्र का स्वस्थ विकास नहीं हुआ। भाजपा और वामदल छोड़ अधिकाश दलों में आजीवन राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। व्यक्ति आधारित दलों की रचना पार्टी नहीं प्रापर्टी जैसी है। काग्रेस में नेहरू के बाद इंदिरा गाधी, फिर राजीव गाधी, सोनिया गाधी और संप्रति उनके पुत्र राहुल गाधी ही काग्रेस प्रापर्टी के असली उत्ताराधिकारी हैं। सभी व्यक्तिवादी दलों की यही नियति है। दलों के शीर्ष पर ‘हाईकमान’ जैसी रहस्यपूर्ण सस्थाएं हैं। राजनीति के उद्योग बन जाने के कारण शीर्षस्थ लोग जननेता नहीं, सीईओ या महाप्रबधक की भूमिका में हैं। नेतृत्व का विकास नीचे से ऊपर को नहीं होता। आदेश ऊपर से आते हैं। समाजवादी नेता राजनारायण कहा करते थे कि नेता दो तरह के होते हैं। एक टाइपराइटर से पैदा होता है। ऊपर वाला टाइप कराकर किसी को भी राष्ट्रीय या प्रांतीय पदाधिकारी बना देता है, लेकिन जननेता जनसघर्ष करते हुए आम जनता से आते हैं। संप्रति हाईकमानों के चहेते ही बड़े पदाधिकारी हो रहे हैं। जननेता नहीं।
लोकतंत्र एक आदर्श जीवनशैली है। आतरिक लोकतंत्र स्वस्थ दलतंत्र का प्राण है। दलतंत्र राजनीतिक प्रशिक्षण के विद्यालय हैं, लेकिन इनके भीतर लोकतंत्र नहीं है। दलों में राष्ट्रीय चुनौतियों पर बहसें नहीं होतीं। असहमति का सम्मान नहीं होता। सत्ता प्राप्ति ही इस राजनीति का मुख्य लक्ष्य है। यहा विरोधी को शत्रु माना जाता है, लेकिन सत्ता के लिए गठबंधन होते हैं। सत्ता राजनीति में विचारधाराएं भी बेमतलब हो गई हैं। छोटे दल बड़ा मुनाफा मागते हैं, बड़े दल आत्मसमर्पण करते हैं। विचारहीन राजनीति इसे ‘गठबधन धर्म’ बताती है। अपने-अपने दलतंत्र से इसी पाखंड का प्रशिक्षण पाए राजनेता सरकार चलाते हैं। जो दल अपना पार्टी सविधान और विचार भी नहीं मानते, अपने दल के भीतर भी आंतरिक लोकतंत्र नहीं चला पाते उनसे, उनके नेताओं से ससदीय लोकतंत्र तथा सविधान पालन की अपेक्षाएं व्यर्थ हैं। राहुल गाधी अपने दल को लोकतंत्री बनाएं, अपनी सरकार को भ्रष्टाचार मुक्त करें। उनके विचार हाथोहाथ लिए जाएंगे वरना इसे कोरी राजनीतिक बयानबाजी माना जाएगा।
लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं
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