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आजादी से आज तक कांग्रेस की राजनीति में एक खास बात रही है। उसने जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता का दांव तो खेला है, लेकिन खुले तौर पर इसकी घोषणा से बचती रही है। यह पहली बार है कि उत्तर प्रदेश में अपने खोए जनाधार की वापसी के लिए वह सीधे-सीधे क्षेत्रीय भावनाओं के उभार पर उतर आई। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत नेहरू जी के पारंपरिक क्षेत्र फूलपुर से की। रैली में उनका भाषण इस बात का साफ संकेत है कि इस बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अपनी सफलता के लिए कांग्रेस किसी भी सीमा तक जा सकती है। भले ही उसे बाद में कितनी ही कीमत चुकाना पड़े। चुनावी मुहिम की शुरुआत में राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के लोगों के जज्बात पर चोट की है। उन्होंने दो टूक शब्दों में उत्तर प्रदेश के लोगों से पूछा कि वे कब तक महाराष्ट्र में भीख मांगेंगे और पंजाब में जाकर मजदूरी करेंगे। ये शब्द अनायास उनके मुंह से नहीं निकले और न बोलते वक्त उनका चेहरा इतना आवेश में था, जिससे लगे कि शब्द अचानक निकल गए होंगे। अनायास शब्दों के मुंह से निकल जाने की मुद्रा अलग होती है। बोलते वक्त राहुल गांधी एकदम सामान्य थे। लगता था मानों वे कुछ याद करके बोल रहे हैं। वैसे भी राहुल गांधी यों ही नहीं बोलते, तैयारी से बोलते हैं। विशेषज्ञों की टीम इसकी तैयारी कराती है। तैयारी के बाद अभ्यास होता है। फिर राहुल सभा में शब्द निकालते हैं। तैयारी और अभ्यास उन्हें विरासत में मिला है। उनकी मां सोनिया गांधी ऐसी ही तैयारी से माइक पर आती हैं।
राहुल गांधी भी तैयारी के बाद फूलपुर की सभा में आए थे। उनके भाषण की देशभर में प्रतिक्रिया हुई। यह पहला मौका है, जब भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी की ओर से प्रतिक्रिया एक ही स्वर और शैली में हुई। दोनों ने ही इसे देश के संघीय स्वरूप के लिए खतरनाक और उत्तर प्रदेश के स्वाभिमान के विरुद्ध बताया, जो गलत भी नहीं है। यह सही है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग भारत के हरेक प्रांत में ही नहीं, दुनिया भर में मिलते हैं। मगर वे वहां जाकर भीख नहीं मांगते। अपने परिश्रम और पुरुषार्थ से स्थान बनाते हैं। हो सकता है, मजदूरी भी करते हों। लेकिन मजदूरी करना बुरा काम नहीं है।
खून-पसीना बहाकर रोटी कमाना सबके बस की बात नहीं है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को चुनाव जीतना उसकी मजबूरी हो सकती है, लेकिन क्या वह इसके लिए पूरे देश में प्रांतवाद की आग लगाने के जोखिम तक चली जाएगी? जाति को वर्ग की सूची में डालकर आरक्षण, धर्म को अल्पसंख्यक का लेबल देकर विशेषाधिकार देने और भाषा के आधार पर प्रांतों का निर्माण करके कांग्रेस अपनी राजनीतिक गोटियां खेलती रही है। लेकिन जुबान से उसने कभी हल्की, छोटी और क्षेत्रीय बात नहीं कही। संभवत: यह महात्मा गांधी और पं. जवाहरलाल नेहरू के विचारों की व्यापकता और इंदिरा गांधी की राष्ट्रीय शैली का असर था कि कांग्रेस व्यवहार और बातचीत में राजनीति की क्षेत्रीयता से बचती थी और पूरे देश की बात करती थी। इसका उदाहरण महाराष्ट्र में उस वक्त भी देखने को मिला, जब राज ठाकरे ने मराठी नारा दिया तो सबसे पहले कांग्रेस ही विरोध में सामने आई। इसी विशेषता ने कांग्रेस को क्षेत्रीय और भाषाई राजनीति करने वाली पार्टियों से अलग और ऊपर रखा। लेकिन राहुल गांधी के ताजा बयान ने कांग्रेस की राष्ट्रीय छवि पर प्रश्नचिह्न लगाया है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि राहुल के इस आक्रामक और क्षेत्रीय स्वाभिमान का आह्वान उत्तर प्रदेश में कितनी सफलता दिलाएगा, लेकिन यह उनका बयान और अंदाज महाराष्ट्र और पंजाब के समाज में भाषाई विभाजन की लकीर को और गहरा करेगा।
राहुल गांधी ने उन लोगों को अपनी राजनीति तीखी करने का अवसर दिया है, जो भाषाई और क्षेत्रीयता को ही सत्ता की सीढ़ी बनाते हैं। राजनीति में समझौता करना और अपनी पटरी छोड़ देना दो अलग-अलग बाते हैं। केंद्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करके सरकार बनाना समय की अनिवार्यता हो सकती है, लेकिन सत्ता की चाहत में सिद्धांत, प्राथमिकता या पहचान बदल लेना बिल्कुल दूसरी बात है। क्षेत्रीयता और भाषाई पसंद की आपाधापी के बीच कम से कम कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी एवं कम्युनिस्ट पार्टी से क्षेत्रीयता की आक्रामक अपील की उम्मीद नहीं की जाती। ये तीनों ही पार्टियां देशव्यापी विचार रखती हैं और ऐसी नीतियां भी बनाती हैं। राहुल गांधी का ताजा ब्यान कांग्रेस की पहचान और स्वीकार्य छवि से अलग है।
लेखक रमेश शर्मा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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