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खाली है उपलब्धियों का पिटारा

जागरण मेहमान कोना
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Pradeep Singhमनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगितशील गठबंधन (संप्रग) के दूसरे कार्यकाल का तीसरा साल इस महीने पूरा हो जाएगा। लोकसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं। आमतौर पर यह समय सरकार की उपलब्धियों का डंका पीटने का होता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि इस समय सरकार के विरोधियों का डंका बज रहा है। सरकार को कोई खतरा नहीं है पर सरकार सुरक्षित भी नहीं नजर आती। सरकार चल रही है पर चलती हुई नजर नहीं आ रही। पार्टी और सरकार का शीर्ष नेतृत्व तय नहीं कर पा रहा कि पार्टी सरकार को ताकत दे या सरकार पार्टी को। मनमोहन सिंह अपने अतीत की छाया नजर आते हैं। 2004 में प्रधानमंत्री पद त्यागने से बना सोनिया गांधी का आभामंडल सरकार के घोटालों और राज्यों के चुनावों की हार की भेंट चढ़ गया है। अमेठी में राहुल गांधी को विरोध के नारे सुनने पड़ रहे हैं। देश की आर्थिक स्थिति की तुलना 1990-91 के हालात से होने लगी है। ऐसे में सरकार को अपनी तीन साल की उपलब्धियों की टोकरी खाली नजर रही है। जिस सरकार और प्रधानमंत्री के सत्ता में लगातार आठ साल पूरे होने जा रहे हों वहां ईद की बजाय मुहर्रम का माहौल है। वह भी ऐसे समय में जब विपक्ष अपनी ही परेशानियों से जूझ रहा हो।


यह दाग कभी नहीं धुलेगा


2009 के लोकसभा चुनाव में देश के मतदाता ने कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा दिया। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह की साख को जनादेश की ताकत दी। लेकिन साल भर बीतते-बीतते 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले से मामला शुरू हुआ तो ऐसा लगने लगा कि सरकार सिर्फ घोटाले ही कर रही थी। सड़क से सुप्रीम कोर्ट तक सरकार पिटती रही। ऐसा लग रहा है जैसे पार्टी और सरकार दोनों दिशाभ्रम का शिकार हैं। नागर समाज के लोगों से कैसा व्यवहार किया जाए यह सरकार तय नहीं कर पाई। अन्ना हजारे और उनके साथियों की पहले उपेक्षा की, फिर दुत्कारा उसके बाद गले लगाया और अब दोनों परस्पर विरोधी खेमे में खड़े हैं। यही स्वामी रामदेव के साथ हुआ। अकेले सुब्रमण्यम स्वामी पूरी सरकार पर भारी नजर आ रहे हैं। सरकार की उपलब्धि तो तब हो जब वह फैसले ले। क्या गठबंधन की सरकार देश की आर्थिक प्रगति के रास्ते का रोड़ा बन गई है? यदि नहीं तो 2004 से 2009 तक कामयाब गठबंधन चलाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब गठबंधन की सरकार की मुश्किलों का रोना क्यों रो रहे हैं। वह शायद भूल गए कि 1991 में जब उन्होंने देश की आर्थिक नीति में आमूल परिवर्तन किया था, तब भी गठबंधन की सरकार थी।


अटल बिहारी वाजपेयी ने 26 दलों के गठबंधन की सरकार चलाई। गठबंधन की सरकार चलाने के लिए जरूरी है कि उसका नेतृत्व अपने सहयोगी दलों के प्रति संवेदनशील हो और गठबंधन के मुख्य दल का दिल बड़ा हो। वह लेने की कम और देने की ज्यादा सोचे। संप्रग-2 में प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी गठबंधन के साथियों को भरोसे में लेकर चलने में नाकाम रहे हैं। हालत यह है कि आर्थिक सुधार के कई मुद्दों पर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी सरकार का साथ देने को तैयार है पर तृणमूल कांग्रेस को साथ लेने में प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व नाकाम रहे। तृणमूल कांग्रेस के कारण सरकार की लगातार किरकिरी हो रही है। इसके बावजूद सरकार या पार्टी की ओर से ममता बनर्जी की समस्या को समझने और सुलझाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। सरकार की हालत यह है कि वह सहयोगी दलों की बेजा मांग के खिलाफ खड़े होने की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी नहीं दिखा पाई। द्रमुक की मांग पर भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के खिलाफ वोट देकर विदेश नीति के मोर्चे पर दूरगामी नुकसान उठाया है। इस सरकार का दोस्त कौन है और दुश्मन कौन यह समझना मुश्किल है। वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने सरकार की निर्णय लेने की क्षमता के बारे में जो कुछ कहा उससे अंदर की बात बाहर आ गई। दुनिया की सबसे बड़ी रेटिंग एजेंसियों में से एक स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने भारतीय अर्थव्यवस्था का दृष्टिकोण नकारात्मक कर दिया है। इसके साथ ही एजेंसी के विश्लेषक तकाहिरा ओगावा ने सरकार की राजनीतिक स्थिरता पर भी सवाल उठाया है।


रिजर्व बैंक के गर्वनर डी सुब्बाराव ने तो प्रधानमंत्री की मौजूदगी में ही पूछा कि क्या हम 1991 की स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि 1991 में राकोषीय घाटा सात फीसदी था। चालू वित्तीय वर्ष में इसके 5.9 फीसदी होने का अनुमान है। चालू खाते का घाटा उस समय तीन फीसदी था जो अब 3.6 फीसदी है। जितने भी आर्थिक विशेषज्ञ हैं उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था की ताकत पर तो भरोसा है पर सरकार की निर्णय लेने की क्षमता पर नहीं। उद्योगजगत का मानना है कि सरकार की निर्णय लेने की क्षमता को लकवा मार गया है। सहयोगी दलों को अपनी ही सरकार के नेतृत्व और नीयत पर भरोसा नहीं है। गैरकांग्रेस शासित दलों के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। सरकार के मंत्री जमीनी हकीकत को समझने की बजाय हवा में तलवार भांज रहे हैं। मई 2009 में मनमोहन सिंह ने जब दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो उनका इकबाल बुलंदी पर था। वह देश के पहले गैरराजनीतिक प्रधानमंत्री थे जिन्हें अमेरिका से परमाणु करार के बाद चाणक्य कहा जाने लगा था।


चुनाव के दौरान उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री कहने वाले लालकृष्ण आडवाणी नतीजे आने के बाद अपने घाव सहला रहे थे। सोनिया गांधी आयरन लेडी के रूप में नजर आ रही थीं। उनके और मनमोहन सिंह के बीच तालमेल को मिसाल के तौर पर पेश किया जा रहा था। राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद से महज एक इशारे की दूरी पर नजर आ रहे थे। तीन साल में सब कुछ रेत के महल की तरह ढह गया। 2-जी घोटाले में कपिल सिब्बल के कहे अनुसार घाटा शून्य रहा हो या नहीं पर सरकार का रसूख रसातल में चला गया है। गैरराजनीतिक होना मनमोहन सिंह की ताकत थी, आज उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है। सरकार का इकबाल चला गया है। देश के सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री को नौकरशाही से अपील करनी पड़ रही है बिना डरे फैसले लें। उत्तराखंड में अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनवाने के लिए सोनिया गांधी को हरीश रावत के सामने झुकना पड़ता है। राहुल गांधी उत्तर प्रदेश ही नहीं अमेठी में भी अजनबी से हो गए हैं। समस्या यह नहीं है कि हालात बुरे हैं। सरकार और कांग्रेस के लिए चिंता की बात यह है कि कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है।


लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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