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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की ओर से उठाए गए आर्थिक कदमों के कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा अनुमोदन पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। यदि इन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की हरी झंडी नहीं होती तो ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के सरकार से अलग होने और दूसरे प्रमुख घटक द्रमुक के भारत बंद में शामिल होने के बावजूद सरकार इस तरह के जोखिम भरे आर्थिक कदम नहीं उठाती। हालांकि बाहर आईं खबरों के अनुसार बैठक में दो-तीन स्वर असहमति के भी थे, पर सोनिया गांधी के हस्तक्षेप पर सरकार की नीतियों का अनुमोदन हो गया। सोनिया गांधी के यह कहने पर कि
सरकार देश के आर्थिक विकास के लिए प्रतिबद्धता से काम कर रही है, असहमति का कोई स्वर रह भी नहीं सकता था। सोनिया गांधी ने भाजपा पर नकारात्मक भूमिका अपनाने का आरोप लगाते हुए अपील की है कि पार्टी जनता के बीच जाकर उसका पर्दाफाश करे। वह लोगों को बताए कि भाजपा किस तरह देश के आर्थिक हित में उठाए कदमों का विरोध कर रही है। इस नए वक्तव्य के बाद दोनों दलों का संघर्ष और तेज हो सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष का कहना था कि सरकार को कोई खतरा नहीं है, वह कड़े कदम उठाने का सिललिसा जारी रखे। वास्तव में सोनिया सहित उपस्थित तमाम नेता इस बात पर एकमत थे कि सरकार यह कार्यकाल पूरा करेगी। कहने की जरूरत नहीं कि इस आत्मविश्वास का कारण तृणमूल कांग्रेस के जाने के बावजूद बहुमत बना रहना है। तो क्या कांग्रेस नेतृत्व में संप्रग अब भी वाकई उतनी ही सशक्त है और उस पर कोई खतरा नहीं? एक आसान निष्कर्ष यह है कि एक बड़े घटक दल के अलग हो जाने पर भी सरकार बची रही तो फिर चिंता की बात कहां है, लेकिन जरा कुछ घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाइए।
फिर फैसला कीजिए कि संप्रग में शामिल और सरकार को समर्थन दे रहे दलों के तेवर का सही मायने में क्या अर्थ है। जिस समय एक तरफ कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी सरकार को संकट से परे घोषित कर रही थीं, दूसरी ओर ठीक उसी समय महाराष्ट्र में एक बड़ा राजनीतिक संकट आकार ले रहा था। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सिर्फ महाराष्ट्र में कांग्रेस की साझेदार नहीं है, केंद्र सरकार की भी अभी तक की सबसे विश्वस्त रही है। उपमुख्यमंत्री अजीत पवार के इस्तीफे से मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण कितने अचंभित थे, इसका आभास उनके वक्तव्य और उस दौरान के हावभाव से मिल जाता है। दल के एक नेता की श्रद्धांजलि सभा विधायक दल की कांग्रेस विरोधी बैठक में परिणत हो गई। अनेक विधायकों ने सरकार से अलग होने की मांग कर दी। कांग्रेस नेता शरद पवार का केंद्र या प्रदेश में साथ रहने का वायदा याद दिलाते रहे। संकट के दूसरे दिन भी किसी के बयान में यह शामिल नहीं था कि शरद पवार से उनकी बात हुई है। पहली नजर में लगता है कि राकांपा के लिए इस समय संप्रग से अलग होने में कोई लाभ नहीं, लेकिन इस तरह के संबंधों के बने रहने की गारंटी कौन दे सकता है? वैसे भी कांग्रेस का कमजोर होना राकांपा के राजनीतिक हित में है।
ममता के बाद दूसरे बड़े साझेदार द्रमुक ने न सिर्फ भारत बंद में हिस्सा लिया, बल्कि मंत्रिमंडल में सदस्यों की संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। मंत्रिमंडल में शामिल रहते हुए भी द्रमुक नेताओं का कांग्रेस के साथ वैसा संवाद नहीं है, जैसा दो साझेदार दलों का होना चाहिए। द्रमुक प्रमुख करुणानिधि अपनी पुत्री कनीमोड़ी और ए. राजा व दयानिधि मारन के प्रति व्यवहार को पचा नहीं पा रहे हैं। तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में हार के बाद केंद्र में बने रहना तत्काल उनकी मजबूरी हो सकती है, लेकिन सरकार पर संकट दिखने की स्थिति में वे उन दलों के साथ जा सकते हैं जो गैर कांग्रेस गैर भाजपा समीकरण बनाने की कोशिश शुरू कर चुके हैं। उन दलों के साथ भारत बंद में शामिल होना उस भावी कदम की ही पूर्व पीठिका मानी जा सकती है। आंकड़ों की राजनीति अब लोकसभा में सरकार के समर्थन के आंकड़ों पर भी एक नजर डाल ली जाए, ताकि वस्तुस्थिति और स्पष्ट हो सके।
कांग्रेस के 205, द्रमुक के 18, राकांपा के 9, रालोद, नेशनल कॉन्फ्रेंस, मुस्लिम लीग, राजद, जद-से., झाविमो जैसे दलों के अलावा नौ दलों के एक-एक, पांच निर्दलीय और दो नामित सदस्यों के समर्थन से संख्या 266 पहुंच जाती है। तेलंगना राष्ट्रसमिति और वाईएसआर कांग्रेस के 2-2 सदस्यों को मिला देने पर यह आंकड़ा 270 हो जाता है। सपा और बसपा के 43 सदस्यों का समर्थन मिला दें तो संख्या 300 को पार कर जाती है, लेकिन इसमें एक भी दल ऐसा नहीं, जिसके बारे में पूरे आत्मविश्वास से कहा जा सके कि वह स्थायी रूप से संप्रग में बना रहेगा। घटक दलों के संप्रग के साथ पहले से कायम अंतर्विरोध और सहयोगी दलों की बढ़ती अरुचि कोयला ब्लॉक आंवटन से लेकर खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश और डीजल मूल्य वृद्धि तक ज्यादा मुखर हुई है। जनता दल-से. ने भी सरकार के कदमों का विरोध किया है और झाविमो ने कहा है कि फैसलों में उससे सलाह नहीं ली जाती।
सपा का संकटमोचक बनकर आना थोड़ा चौंकाता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सफलता के बाद मुलायम सिंह यादव की महत्वाकांक्षा और गैर कांग्रेस गैर भाजपा राजनीतिक धु्रव की मुख्य धुरी बनने की उनकी चहलकदमी से ऐसा संकेत नहीं मिल रहा था। कहा तो ममता बनर्जी के लिए भी जा रहा था कि पश्चिम बंगाल को मिल रही आर्थिक मदद के मद्देनजर वह सरकार से समर्थन शायद ही वापस लें, लेकिन दीदी ने अपनी मां, माटी, मानुष की छवि को भुनाते हुए अपना समर्थन खींच ही लिया। इधर सरकार कुछ कड़े कदम उठा रही थी, तो उधर ममता बनर्जी भी कुछ ऐसा ही करने की ठाने हुए थीं। यदि अब समाजवादी पार्टी ने संप्रग को समर्थन दिया है तो इसके पीछे उसके अपने निहितार्थ हैं। जगनमोहन रेड्डी की गिरफ्तारी के बाद वाईएसआर कांग्रेस आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के विरुद्ध लड़ रही है, वह कभी भी पीछे हट सकती है।
अन्य कई दलों के साथ भी ऐसे ही या दूसरे पहलू लागू हो सकते हैं। इसलिए कांग्रेस को अब अतिआत्मविश्वास में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इसका ठोस आधार नहीं है। दरअसल, पश्चिम बंगाल में संप्रग की टूट और महाराष्ट्र के संकट के साथ अन्य साझेदारों तथा समर्थक दलों के आचरण को मिलाकर देखें तो जो तस्वीर बनती दिख रही है, वह संप्रग सरकार की स्थिरता की नहीं है। बस, समय और जादुई आंकड़े की बात है। बहुत मुमकिन है कि वर्तमान लोकसभा में ही कोई राजनीतिक समीकरण उभर जाए। उसमें ममता बनर्जी, शरद पवार, द्रमुक और महत्वाकांक्षी सपा एकजुट हो जाएं। सपा की नई चाल और इन तमाम दलों के एक होने के बाद नेशनल कान्फ्रेंस और अजीत सिंह के रालोद को भी पाला बदलने के लिए सोचना नहीं पड़ेगा। समर्थन देने वाले शेष छोटे दल और निर्दलीय क्यों कांग्रेस के साथ निष्ठा दिखाएंगे? फिर अगर बीजू जनता दल, तेलुगू देशम पार्टी, वाम दल भी साथ आ जाएं तो इस लोकसभा के कार्यकाल में भी सरकार पलट सकती है। ये दल कांग्रेस पर यह दबाव डाल सकते हैं कि आपको हमने समर्थन दिया, अब आप हमें समर्थन दीजिए।
उस समय कांग्रेस क्या करेगी? अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो मुलायम सिंह यह भलीभांति जानते हैं कि वह राज्य सरकार के लिए पैकेज पाने के उद्देश्य से जितना समय कांग्रेस को देंगे उनके राजनीतिक नुकसान की आशंका उतनी ही ज्यादा रहेगी। यदि समय ज्यादा बीत गया तो समाजवादी पार्टी के समर्थन पर सत्ता विरोधी रुझान का ग्रहण लग सकता है। कांग्रेस भले मान ले कि इन तथाकथित कठोर कदमों से अर्थव्यवस्था को संभालने से भ्रष्टाचार एवं महंगाई को लेकर जनमानस में उसके खिलाफ बनी छवि कुछ बदलेगाी, लेकिन राजनीतिक परिस्थितियां इसके अनुकूल संकेत नहीं दे रहीं। फिर कांग्रेस की उम्मीदों के अनुरूप आर्थिक परिणाम आएंगे यह भी जरूरी नहीं, लेकिन ज्यादा संभावना यही है कि साथी दल प्रधानमंत्री को इतना मौका ही न दें।
लेखक अवधेश कुमारवरिष्ठ पत्रकार हैं
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