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मीडिया में अब इस तरह की खबरें बढ़ रही हैं कि सोनिया गांधी कांग्रेस का नेतृत्व अपने पुत्र राहुल गांधी को सौंपने की योजना बना रही हैं और ऐसा करने के पीछे एकमात्र कारण उनका स्वास्थ्य है। हालांकि यह तर्क केवल अनुमान पर आधारित है। कांग्रेस अध्यक्ष के स्वास्थ्य के संदर्भ में वैसी ही गोपनीयता बरती जा रही है जैसी भारत के नाभिकीय रहस्यों के बारे में। यह दुनिया के सर्वाधिक खुले समाज का एक अनोखा आश्चर्य है। फिर भी, सोनिया गांधी का स्वास्थ्य कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन के लिए हो रहे चिंतन का सर्वाधिक सही कारण प्रतीत हो रहा है। एक समर्पित मां के रूप में सोनिया ने अपने पुत्र और पारिवारिक वंश परंपरा को संरक्षण दिया है, लेकिन शायद वह बेहद खराब समय में अपने 41 वर्षीय पुत्र को पार्टी में शीर्षस्थ स्थान पर बिठाने का काम करने जा रही हैं। अभी भारत खोज की उनकी यात्रा कई पैबंद के साथ अधूरी है। देखना होगा कि वह किस तरह इस स्थिति से पार पाते हैं? हालांकि अभी तक ऐसा कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं है जिससे यह पता चल सके कि सात वर्षो के राजनीतिक जीवन से वह इस योग्य बन गए है कि अपनी पारिवारिक रिक्तता को भर सकें। राहुल महान के रूप में पैदा हुए और उन्होंने महानता हासिल भी की, बावजूद इसके कांग्रेस के वफादारों के लिए वह एक प्रतीक हैं, जिसे इटली के मार्क्सवादी एक ऐसे रहस्य के रूप में देखते हैं जो बौद्धिक रूप से निराशाजनक है और अपनी इच्छा व अपेक्षा के कारण आशावादी है। कांग्रेस के लोग राहुल को जादुई छड़ी के रूप में देखते हैं, जिसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि उनके साथ ऐसा नहीं है।
निश्चित ही, यहां कुछ और भी वास्तविक व जमीनी व्याख्याएं हो सकती हैं। दो वर्ष पहले 2009 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने कुल 21 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि 1999 में वह इस राज्य में शून्य पर पहुंच गई थी। अगले वर्ष हो रहे विधानसभा चुनाव राहुल के लिए एक बड़ी परीक्षा साबित होंगे कि वह पार्टी को फिर से जीवन दे पाएंगे या नहीं? कांग्रेस महासचिव के रूप में उनके प्रयासों से राजनेताओं की एक नई नस्ल तैयार हुई है, जिसे युवा कांग्रेस के रूप में राहुल ने अपना एजेंडा बनाया हुआ है। हालांकि इसका प्रभाव दीर्घकाल में ही महसूस किया जा सकता है। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात जो हुई है वह है उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के खिलाफ छापामार शैली में स्थानीय लोगों के आंदोलन को तेज करना। इस अभियान को दिग्विजय सिंह और जयराम रमेश ने आगे बढ़ाने का काम किया। दिग्विजय सिंह का अल्पसंख्यकों से किया जा रहा वायदा बहुत लाभप्रद नहीं हुआ है, क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं का वोट अभी भी समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा दिख रहा है।
ऐसा खासकर अखिलेश यादव की प्रभावपूर्ण रथयात्रा के बाद दिख रहा है। जो भी हो, जयराम रमेश ने कांग्रेस की किसान हितैषी छवि बनाने के लिए जो अति महत्वाकांक्षी भूमि अधिग्रहण बिल पेश किया है उससे यह निश्चित है कि यह भविष्य में भारत के आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचेगा। जाति प्रभुत्व वाले राज्य उत्तर प्रदेश में मध्यवर्ती और पिछड़ी जातियों का भरोसा कांग्रेस पार्टी में लंबे समय से नहीं है। उदाहरण के तौर पर बेनी प्रसाद वर्मा को लिया जा सकता है, जो राज्य कांग्रेस में एकमात्र पिछड़ी जाति के उल्लेखनीय नेता हैं। उन्होंने जो कुछ किया है वह राहुल गांधी की बदौलत नहीं, बल्कि उनसे स्वतंत्र रहते हुए अकेले अपने दम पर किया है। इसलिए उनके आंदोलन गहन समीक्षा की मांग करते हैं। कुल मिलाकर जमीनी रिपोर्ट यही बताती हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत उत्साहजनक नहीं है। पार्टी की कोशिश 100 सीटों पर केंद्रित है, जहां वह अपने सभी संसाधनों को झोंकना चाहती है। कांग्रेस की दिली तमन्ना इस बात में निहित है कि भाजपा को उसके स्थान से धकेलकर कांग्रेस को तीसरे स्थान पर लाया जाए। अन्ना हजारे के आंदोलन से कांग्रेस के शहरी मतदाताओं और उच्च जातियों में उसके समर्थकों पर प्रभाव पड़ा है। यही कारण है कि वह अब अजित सिंह के साथ गठजोड़ कर रही है। यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का लचर प्रदर्शन जारी रहता है तो पार्टी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम प्रतिनिधित्व वाली पार्टियों के साथ गठबंधन के लिए विवश होना होगा।
इसके अलावा एक और बिंदु ज्यादा महत्वपूर्ण है। यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब होता है तो इसकी गाज कुछ लोगों पर अवश्य पड़ेगी। संभव है कि इसके लिए दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से खुद को बलि के बकरे के रूप में प्रस्तुत करें, लेकिन क्या इतने भर से मामला सुलझ पाएगा? तब क्या कांग्रेस के कार्यकर्ता उन सवालों से बच पाएंगे जो भविष्य के छिपे हथियार के रूप में राहुल की योग्यता को लेकर दागे जाएंगे? राहुल से उम्मीद वैसी है जिस तरह जर्मन लोगों ने 1943 से 1944 के अंत में सब कुछ खत्म होने तक अपने मनोबल को बनाए रखा था। उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में कांग्रेस की यदि पराजय होती है तो राहुल का वैसा ही बचाव किया जाएगा जैसा कि 2007 में सलमान खुर्शीद ने किया था। उन्होंने तब राहुल की अयोग्यता को पार्टी की अयोग्यता बता दिया था। फिर भी प्रश्न गायब नहीं होंगे-भले ही तब तक राहुल पार्टी की सबसे ऊंची गद्दी पर बिठा दिए गए हों। तब शायद कांग्रेस कार्यकर्ता यह दावा करेंगे कि क्षेत्रीय चुनावों में विपरीत हालात के लिए राहुल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले राहुल का आभामंडल इस संभावना से भरा हुआ है कि वह कुछ हलचल अवश्य पैदा करेंगे। अभी उनके सामने कोई चुनौती देने वाला नहीं है, लेकिन किसी तरह की देरी समस्या पैदा कर सकती है।
लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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