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अक्षमता का भारी बोझ

जागरण मेहमान कोना
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महंगाई, भ्रष्टाचार समेत अन्य समस्याओं को संप्रग सरकार के नेतृत्व की नाकामी की देन बता रहे हैं बलबीर पुंज


प्रतीक्षारत प्रधानमत्री राहुल गाधी को केवल गैर-काग्रेस शासित राज्यों में ही गुस्सा क्यों आता है? मिशन उत्तर प्रदेश में जुटे युवराज ने पिछले दिनों जवाहर लाल नेहरू के ससदीय क्षेत्र से काग्रेस के चुनावी अभियान की शुरुआत करते हुए राज्य की बदहाली पर क्रोध आने की बात की। उन्होंने इस अवसर पर युवाओं से यह भी पूछा कि कब तक मुंबई जाकर भीख मागते रहोगे? रोजगार के लिए युवाओं के पलायन पर भी उन्होंने आक्रोश व्यक्त किया, किंतु काग्रेस के नेतृत्व वाली सप्रग सरकार की अक्षमता के कारण देश जिन समस्याओं से त्रस्त है और पस्त जनता जिन तकलीफों से छुटकारा पाने की उम्मीद लगाए बैठी है उसकी उन्होंने चर्चा तक नहीं की। केंद्र के एक दर्जन से अधिक नेता और नौकरशाह भ्रष्टाचार के आरोपों में सलाखों के पीछे हैं तो कुछ के अंदर जाने की बारी आने वाली है। महंगाई से आम आदमी के निवाले पर आफत आई हुई है, किंतु वह मौन हैं। देश भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने और विदेशों में जमा काले धन की वापसी को लेकर आदोलनरत है, किंतु इन मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं।


लोकतत्र के नाम पर वर्ष 2004 में काग्रेस ने जो नया प्रयोग किया, देश आज उसका खामियाजा भुगत रहा है। प्रधानमत्री पद पर बैठे व्यक्ति के पास वास्तविक सत्ता नहीं है, लेकिन जो सत्ता के मुख्य केंद्र हैं उन्हें भी देश की चिता नहीं है। सप्रग सरकार के कार्यकाल में नेतृत्वहीनता के कारण जिस तरह का अनिश्चितता का माहौल है उसके दुष्परिणाम हर कहीं देखे जा सकते हैं। ज्वलत मुद्दों पर काग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाधी से लेकर युवराज राहुल गांधी तक खामोश हैं। दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, गोवा आदि की काग्रेस सरकारों पर भ्रष्टाचार के कई गभीर आरोप हैं, किंतु राहुल को गुस्सा बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश में आता है। पचास वर्षो से अधिक समय तक काग्रेस का एकछत्र राज होने के बावजूद दलितों व वचितों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति गिरती रही। गरीबी हटाने के लिए इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रमों की आखिर उपलब्धि क्या है? नेहरू के समय से उत्तर प्रदेश कथित रूप से एक वंश विशेष की तपोभूमि है, लेकिन यहां कितने कल-कारखाने लगाए गए। पूरब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर की मिलें क्यों बद हुई? असम के डिगबोई से प्राप्त तेल के परिशोधन के लिए तत्कालीन बिहार के बरौनी में सयत्र लगाने का क्या औचित्य था? यहां सवाल नीतियों का है। नीति निर्धारक जब तक जमीनी हकीकत से नहीं जुड़ेंगे, देश का समेकित और समग्र विकास असभव है।


आज सरकार में नेतृत्वहीनता की स्थिति के कारण हर तरफ बदहाली छाई हुई है। देश केनामी उद्योगपति, अर्थशास्त्री, न्यायविद् आदि सरकार के नाम बार-बार खुला पत्र लिखकर सरकार से देश की समस्याओं पर ध्यान देने की अपील कर रहे हैं। बड़े उद्योगपति भी सरकार की निर्णयहीनता पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं तो देश के महालेखा परीक्षक की टिप्पणी है कि सरकार लोगों का भरोसा खो चुकी है। इस नाकारा व्यवस्था पर लग रहे आरोप क्या निराधार हैं? देश के 30 बड़े उत्पादक सयत्र कोयले का अभाव झेल रहे हैं। 20 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखने वाले संयत्र ठप हैं और वर्ष 2016 से पहले उनमें काम प्रारंभ होने की कोई उम्मीद नहीं है। ये प्लाट इसलिए बद हैं, क्योंकि उनके पास बिजली उत्पादन के लिए कोयला नहीं है। कोल इंडिया विगत जनवरी माह से बिना किसी पूर्णकालिक अध्यक्ष के काम कर रहा है। संयंत्रों को कोयला इसलिए भी नहीं मिल पा रहा, क्योंकि रेलवे कोयला खदान से प्लाट तक इनकी आपूर्ति कर पाने में अक्षम है। दुनिया का चौथा बड़ा कोयला उत्पादक देश होने के बावजूद भारत आज अपनी जरूरत का 30 प्रतिशत कोयला आयात कर रहा है।


देश में उर्वरकों की माग लगातार बढ़ रही है। सरकार विदेशों से दो करोड़ टन उर्वरक आयात करती है। इससे राजकोष पर 10 अरब डॉलर का बोझ पड़ता है। बावजूद इसके सरकार के नीति-नियताओं को नया उर्वरक सयत्र स्थापित करने की चिता नहीं होती। जब रोजगार का सृजन ही नहीं होगा तो रोजगार की सभावनाओं वाले महानगरों में पलायन की विवशता तो रहेगी ही। देश में भारी बेरोजगारी है। सर्वाधिक साक्षर राज्य केरल में 20.77 प्रतिशत बेरोजगारी है। इसकी वजह क्या है? योजना आयोग ने 2015 के लिए जो अनुमान लगाया है, उसके अनुसार बैंकिंग व फाइनेंस क्षेत्र मे 45 से 50 लाख, स्वास्थ्य में 40.45 लाख, ऑटो सेक्टर में 22 लाख, रिटेल में 40.50 लाख और निर्माण क्षेत्र में 1.5 करोड़ रोजगार सृजित करने की आवश्यकता है। क्या कागजों में लक्ष्य निर्धारित कर लेने मात्र से बेरोजगारी दूर हो जाएगी?


आम आदमी की पार्टी होने का शंखनाद करने वाली काग्रेस के राज में हर जरूरी वस्तु की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। पिछले तीन सालों में चीनी की कीमतें 100 प्रतिशत, गेहूं 150 प्रतिशत और दाल व सब्जिया 300 प्रतिशत महंगी हुई हैं, किंतु सरकार की सवेदनहीनता देखें कि प्रधानमत्री से लेकर उनके शीर्ष सलाहकार व नीति-निर्धारक बढ़ती महंगाई को सपन्नता की निशानी बता रहे हैं तो खाद्य मत्री का कहना है कि लोगों की क्रयशक्ति बढ़ने से उनकी खाने की आदतें बदल रही हैं और इस कारण महंगाई बढ़ रही है। कोई यह नहीं बताता कि वर्ष 2010-11 में खाद्यान्न और दूध का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद खाद्यान्नों और दूध की कीमतों में उछाल क्यों है? पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही है। इनकी कीमतें बढ़ने का चहुंमुखी प्रभाव पड़ता है, किंतु सरकार को केवल राजस्व की फिक्र है। निजी कंपनिया तेल से मुनाफा कमा रही हैं तो सरकार भी मालामाल हो रही है। दिल्ली में प्रति लीटर 11.14 रुपये वैट वसूला जाता है यानी मासिक 114 करोड़ रुपये से अधिक राजस्व सरकार को मिल रहा है। यह 2008 के मुकाबले में 40 प्रतिशत अधिक है। केंद्र सरकार ड्यूटी के तौर पर प्रति लीटर 14.78 रुपये प्राप्त करती है। स्वाभाविक है कि जब तक सरकार राजस्व बटोरने में अपना ध्यान केंद्रित रखेगी तब तक आम आदमी पर बोझ बढ़ता ही रहेगा।


आज भ्रष्टाचार, महंगाई और विदेशों में जमा कराया गया काला धन सार्वजनिक चिता का विषय है। जर्मनी की सरकार से 700 बड़े कर चोरों का पता चला है। सरकार उनके नाम क्यों छिपा रही है? भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था कायम करने के लिए एक सशक्त जनलोकपाल कानून बनाने में सरकार को परेशानी क्यों है? आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बेकाबू क्यों हैं? काग्रेस ‘ग्रेट इंडिया ग्रोथ’ का जुमला भले गढ़ ले, किंतु देश का समग्र विकास सही नीतियों व दृढ़ नेतृत्व के बिना सभव नहीं है। चुनावी लाभ के लिए जनभावनाओं का दोहन करने की बजाय राहुल गांधी को इन प्रश्नों का उत्तर तलाशना चाहिए।


लेखक बलबीर पुंज राज्यसभा सदस्य हैं


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