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यह जागो ग्राहक जागो का दौर है। फिर राजनीति में क्यों अंधेरगर्दी चल रही है? ऐसा नहीं है कि यह सब पहली बार हो रहा है, लेकिन विधानसभा चुनावों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने चुनावी घोषणापत्रों में जो बेलगाम वादे किए हैं, आखिर उनकी जवाबदेही किस पर होगी? क्या हमेशा की तरह राजनेता आगे भी यही मानते रहेंगे कि लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। इसलिए उनसे जो चाहे वादा कर लीजिए, बाद में कौन पूछता है। शायद यही वजह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी चुनावी घोषणा पत्र तैयार करते समय जरा भी तार्किक होने की नहीं सोचती। हद तो यह है कि कई राजनीतिक पार्टियां लंबे समय तक जिन चीजों का विरोध करती रही हैं, अपने मौजूदा चुनावी घोषणा पत्रों में उन्हीं के लिए वादा कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने कहा है कि अगर वह सत्ता में आती है तो हर कॉलेज जाने वाले युवा को लैपटॉप देगी। हर कॉलेज से नीचे वाले छात्र को टैबलेट देगी। अभी ज्यादा साल नहीं हुए, जब मुलायम सिंह ऑस्ट्रेलिया में पढ़े अपने बेटे के साथ अंग्रेजी और कंप्यूटर के खिलाफ आंदोलन के लिए सड़कों पर उतरे थे।
मुलायम सिंह की पार्टी का और उनका व्यक्तिगत रूप से अंग्रेजी विरोध दशकों पुराना है, लेकिन अब वही मुलायम सिंह अपने बेटे अखिलेश के नेतृत्व में ही इस बार लोगों से वादा किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो कॉलेज जाने वाले सभी युवाओं को लैपटॉप देगी। सवाल यह है कि क्या मुलायम सिंह और उनकी पार्टी ने इस मामले में कोई होमवर्क किया है? क्या उनके पास यह बुनियादी आंकड़ा है कि प्रदेश के कितने छात्र हर साल कॉलेजों में प्रवेश करते हैं, जिन्हें वे लैपटॉप देंगे और इसकी लागत क्या आएगी तथा इस लागत के लिये धन की व्यवस्था कहां से होगी? राहुल गांधी को काफी समझदार, व्यावहारिक और तार्किक व्यक्ति समझा जाता है, लेकिन लगता है कि राजनीति करते करते वह भी खांटी देसी नेताओं की ही तरह बिना तर्क, बिना किसी आधार के बात करने में उस्ताद हो गए हैं। इसलिए जब वह कहते हैं कि हम उत्तर प्रदेश में 20 लाख रोजगार देंगे तो यह तथ्य उजागर नहीं करते कि वह इस तरह का चमत्कार करेंगे कैसे? किन क्षेत्रों से यह रोजगार आएगा? क्या रोजगार को सिर्फ उनकी जुबान का इंतजार है? यह हास्यास्पद ही नहीं, लोकतंत्र का मजाक है। इस मामले में भाजपा जो सालों पहले दावा किया करती थी कि चाल, चरित्र और चेहरा हमारा सबसे अलग है, वह भी पुरानी कांग्रेस की ही तरह चुनावी वादों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी कर रही है।
चुनावों की घोषणा होते ही निर्वाचन आयोग आचार संहिता लागू कर देता है। तब कोई भी कार्यकारी सरकार लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती। न सरकार के मंत्री और न ही मुख्यमंत्री किसी तरह की परियोजना का शिलान्यास कर सकते हैं। शायद यह व्यवस्था इसीलिए की गई कि सरकार चलाने वाले लोगों को ललचाने-बरगलाने के लिए अनाप-शनाप चुनावी घोषणाएं करते हैं। लिहाजा, आचार संहिता लागू होते ही किसी भी सरकार को किसी तरह की लोकप्रिय योजना-परियोजना को तिलांजलि देनी होती है। मगर राजनीतिक दलों के लोकलुभान वादों को क्या कहेंगे? क्या ये भी उसी तरह जनता को ललचाने, बरगलाने वाले नहीं होते? क्या चुनावी वादों के संबंध में कोई जवाबदेही नहीं होनी चाहिए? आखिर ये भी तो एक तरह से अप्रत्यक्ष रूप में जनता को दी जाने वाली घूस ही है। क्या इससे मतदाता के मत को बरगलाया नहीं जाता? लेकिन न हमारे संविधान में चुनावी घोषणाओं पर किसी तरह की लगाम लगाने की व्यवस्था है और न ही राजनीतिक दलों को इतनी शर्म है कि वे इस संबंध में कुछ सोचें। कुल मिलाकर अब न तो मतदाता और न ही नेता चुनावी वादों को गंभीरता से लेते हैं।
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में जोर-शोर से दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में अगर वह सत्ता में आती है तो गांवों में 20 घंटे और शहरों में 22 घंटे बिजली देगी। इससे यह लगता है, जैसे बिजली तो उत्तर प्रदेश के पास बहुत है, लेकिन सत्ता में आने वाली गैर-भाजपा सरकार शहरों और गांवों को बिजली देना नहीं चाहती। जैसे ही भाजपा सत्ता में आएगी, लोगों की बिजली की समस्या दूर कर देगी। भाजपा ही नहीं, सभी राजनतिक दल ऐसे ही हवाई वादे कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे जीतें या हारें, वादों पर खरा उतरने की कोई कानूनी जवाबदेही तो है नहीं। इसलिए अब वक्त आ गया है कि चुनावी वादों की कानूनी जवाबदेही तय की जाए।
इस आलेख के लेखक लोकमित्र हैं
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