- 1877 Posts
- 341 Comments
Congress And Supreme Court
क्या आपने गौर किया कि केंद्रीय जांच ब्यूरो के कामकाज और आचरण पर सुप्रीम कोर्ट की बेहद तल्ख टिप्पणियों पर केवल एक कोने से विपरीत प्रतिक्रिया सुनने को मिली? सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ यह प्रतिक्रिया देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के एक अत्यंत वरिष्ठ नेता की ओर से की गई। जब पूरे देश ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआइ को लगाई गई फटकार की सराहना की और यह उम्मीद की कि इससे सीबीआइ के कामकाज में दखलंदाजी करने वाले केंद्रीय मंत्रियों पर अंकुश लगेगा तब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अदालत की आलोचना करते हुए कहा कि क्या अदालत की ऐसी टिप्पणियां हमारे संस्थानों को कमजोर नहीं कर रही हैं? उनके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट को सीबीआइ को पिंजड़े में बंद तोता नहीं कहना चाहिए था और अदालत का ऐसा कहना एक महत्वपूर्ण संस्थान को छोटा साबित करना है। दिग्विजय सिंह का यह भी कहना है कि अदालतों को संयम का परिचय देना चाहिए और इसके बाद वह देश को यह प्राथमिक पाठ पढ़ाना भी नहीं भूले कि लोकतंत्र के स्तंभों को एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। न्यायपालिका के संदर्भ में उनका एक बुनियादी तर्क यह भी था कि हमें (निर्वाचित प्रतिनिधियों को) लोगों ने चुना है और हम लोगों के प्रति जवाबदेह हैं। यह सब कुछ उन सभी के लोगों के लिए बहुत जाना-पहचाना लग सकता है जो उच्चतर न्यायपालिका से कांग्रेस के रिश्तों का इतिहास जानते हैं। जो लोग इससे परिचित हैं उन्हें दिग्विजय सिंह के इन वक्तव्यों से तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ होगा, क्योंकि उन्होंने जो कुछ कहा है वह दरअसल कांग्रेस पार्टी की विचारधारा को परिलक्षित करता है।
आइए इतिहास की कुछ पर्ते खोलते हैं। न्यायपालिका(Judiciary)को 1970 के दशक में खास तौर पर निशाना बनाया गया था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता को नजरंदाज कर जस्टिस रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। उन दिनों कांग्रेस पार्टी के सदस्य प्रतिबद्ध न्यायपालिका(Judiciary)की चर्चा करते रहते थे। प्रतिबद्ध न्यायपालिका(Judiciary)यानी ऐसी न्यायपालिका जो कांग्रेस सरकार की नीतियों के अनुसार कार्य करे। वे केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाराज थे। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के बुनियादी ढांचे की व्याख्या की थी। अदालत ने कहा था कि संसद संविधान में संशोधन करते हुए उसके मूल ढांचे में बदलाव नहीं कर सकती।
यह सिद्धांत कांग्रेस को पसंद नहीं आया, क्योंकि लोकसभा में दो तिहाई बहुमत रखने वाली सरकार 42वें संशोधन के जरिये ठीक ऐसा ही करने की सोच रही थी। इस संशोधन का एक प्रमुख उद्देश्य उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और अधिकार को तबाह करना था। इसका मकसद संसद की सर्वोच्चता की घोषणा करना था ताकि संविधान में किए जाने वाले संशोधनों को अदालती समीक्षा के दायरे से बाहर निकाला जा सके। इस संशोधन में अनेक खतरनाक प्रावधान थे। नवंबर 1976 में यानी आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन पर लोकसभा में बहस हुई और इसे पारित कर दिया गया। इस बहस के दौरान कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा न्यायपालिका पर की गई टिप्पणियां स्तब्ध कर देने वाली थीं। जब आप उन्हें पढ़ेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि दिग्विजय सिंह की प्रेरणा का स्नोत क्या है? जब 42वें संशोधन पर बहस की शुरुआत हुई तो इंदिरा गांधी ने संविधान में बदलाव की संसद की शक्ति रेखांकित करते हुए दिशा तय की। उन्होंने कहा कि वे (सुप्रीम कोर्ट के जज) जो संविधान को एक कठोर और अपरिवर्तनीय ढांचे में बांधना चाहते हैं, दरअसल हमारे संविधान की भावना से परिचित नहीं हैं और नए भारत की आकांक्षाओं से पूरी तरह बेखबर हैं। सरदार स्वर्ण सिंह, एनकेपी साल्वे, वसंत साठे और एआर अंतुले, सभी ने उनकी बात का समर्थन करते हुए यहां तक ऐलान कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट समेत किसी को भी संसद को यह कहने का अधिकार नहीं है कि वह क्या करे, क्या न करे। बहस के दौरान कांग्रेस पार्टी के सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा का खुलकर उपहास उड़ाया। स्वर्ण सिंह ने कहा कि न्यायाधीशों ने इस जुमले का आयात किया है। इंदिरा गांधी ने कहा कि न्यायाधीशों ने इस जुमले की खोज की है, क्योंकि संविधान में ऐसी कोई बात है ही नहीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया साल्वे की भी थी।
Congress And Judiciary
इसके बाद सांसदों ने न्यायपालिका(Judiciary)के खिलाफ टिप्पणियों की बौछार कर दी। संविधान फिर से लिखने के लिए गठित की गई समिति के अध्यक्ष स्वर्ण सिंह ने कहा कि अदालतों ने अपनी सीमाएं लांघी हैं। साल्वे ने कहा कि अब समय आ गया है कि संविधान को अदालतों से बचाया जाए। प्रियरंजन दासमुंशी एक कदम और आगे चले गए। उन्होंने कहा कि जब तक सरकार के पास न्यायिक विवेक के विचार और चरित्र को बदलने की क्षमता नहीं होगी तब तक ऐसा ही होता रहेगा। इसके बाद बारी सीएम स्टीफेन की थी और देखिए उन्होंने क्या कहा। स्टीफेन के शब्दों में-अब इस संसद की शक्ति (42वें संशोधन के बाद) किसी भी अदालत के दायरे से ऊपर हो गई है। अब यह अदालतों के ऊपर है कि क्या उन्हें इसकी अवमानना करनी चाहिए? मुङो नहीं पता कि उनके पास क्या इतना दुस्साहस होगा, लेकिन अगर वे ऐसा करती हैं तो वह न्यायपालिका के लिए एक खराब दिन होगा। दूसरे शब्दों में स्टीफेन स्पष्ट रूप से सुप्रीम कोर्ट के जजों को धमकी दे रहे थे कि वे सरकारी संस्थानों के कामकाज पर निगाह डालने की हिम्मत न करें। जब उन्होंने यह कहा कि हमारे पास अपने तौर-तरीके हैं, अपनी मशीनरी है तब वह एक ठग की ही भाषा बोल रहे थे। उन दिनों यही यूथ कांग्रेस की भाषा हुआ करती थी और अक्सर न्यायपालिका तथा मीडिया को धमकाने के लिए भी उसका इस्तेमाल किया जाता था। क्या आपने किसी अन्य पार्टी के नेताओं को इस तरह सुप्रीम कोर्ट के जजों को धमकाने वाली भाषा बोलते हुए सुना है?
कांग्रेस ने अदालतों समेत अन्य संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता पर हमले करने की अपनी यह परंपरा आज भी जारी रखी है। जब भी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसे स्वतंत्र संस्थानों ने किसी घोटाले को उजागर किया है तो कांग्रेस ने इस संस्था को ही निशाना बनाने से परहेज नहीं किया। अब आपको पता चल गया होगा कि दिग्विजय सिंह ने क्यों यह सब कहा और वह संवैधानिक संस्थानों का कितना सम्मान करते हैं। फिर भी हैरत की बात है कि वह हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि हमारे संविधान के बुनियादी मूल्य क्या हैं। दुर्भाग्य से हम उनकी बात सुनने के लिए विवश हैं।
इस आलेख के लेखक ए. सूर्यप्रकाश हैं
Tags: Congress Party India, supreme court of india, Supreme Court Judgments, Congress And Supreme Court, Congress And Judiciary, Judiciary Judgment, न्यायपालिका, कांग्रेस सरकार,कांग्रेस
Read Comments