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बंद गली में खड़ी कांग्रेस

जागरण मेहमान कोना
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Pradeep Singhकांग्रेस की दुर्दशा को जमीनी हकीकत और जनाधार वाले नेताओं से कटने का नतीजा बता रहे हैं प्रदीप सिंह


कांग्रेस वैचारिक दिवालियेपन का शिकार हो गई है। ऐसा लगता है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उसे बंद गली में खड़ा कर दिया है। इस बंद गली से निकलने के लिए पार्टी के नेताओं का एक बड़ा वर्ग और कार्यकर्ता छटपटा रहे हैं पर शीर्ष नेतृत्व मानने को तैयार नहीं है कि वह बंद गली है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का मानना है कि विपक्ष और नागर समाज के कुछ लोग अपने कांग्रेस विरोधी एजेंडे के साथ खड़े हैं और गली के बंद होने का भ्रम पैदा कर रहे हैं। देश में अमन चैन है, अर्थव्यवस्था उतनी भी बुरी हालत में नहीं है जितना बताया जा रहा है। रही बात महंगाई की तो वह सारी दुनिया में है। सरकार में कोई भ्रष्टाचार नहीं है, प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर सवाल उठाने वाले दरअसल बेइमान लोग हैं। सरकार और पार्टी में सब ठीक है। जो भी गड़बड़ी नजर आ रही है उसके लिए विपक्ष और नागर समाज का एक वर्ग दोषी है। पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की विस्तारित बैठक के बाद मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के बयानों से तो यही ध्वनि निकलती है। यह अलग बात है कि बैठक में मौजूद कांग्रेस नेताओं ने पार्टी और सरकार की खामियों की लंबी फहरिस्त गिनाई। इस बैठक के बारे में मीडिया में बहुत कुछ छपा, लेकिन देश यह जानने से वंचित रह गया कि भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी इन मसलों पर क्या सोचते हैं। वह महंगाई और भ्रष्टाचार से चिंतित हैं कि नहीं। भ्रष्टाचार के आरोप अब सिंहासन (प्रधानमंत्री) तक पहुंच गए हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि आरोप साबित हो जाएं तो सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे। पर साबित होने या नहीं होने का पता तो तब चलेगा जब जांच होगी।


प्रधानमंत्री सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेने को तैयार हैं पर जांच कराने के लिए नहीं। देश की जनता मनमोहन सिंह से पूछ रही है कि इधर-उधर की न बात कर ये बता कि कारवां क्यों लुटा? प्रधानमंत्री की विराटता को देखने की आदी हो चुकी आंखों को भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता। उन्हें हर चीज में प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि नजर आती है कि कहते हैं कि कहां है भ्रष्टाचार? हमें तो दिखाई नहीं देता। सोनिया गांधी ने काफी दिनों बाद इस मुद्दे पर चुप्पी तोड़ी तो इसे दुष्प्रचार बताया। राहुल गांधी युवक कांग्रेस का कायाकल्प करने में इतने व्यस्त हैं कि ऐसी छोटी-मोटी बातों के लिए उनके पास समय नहीं है। किसी भी संकट से निपटा जा सकता है। कैसी भी विषम परिस्थिति से लड़ा जा सकता है, पर उसके लिए पहली शर्त यह है कि आप अपनी गलतियों और कमजोरियों को स्वीकार करें। कांग्रेस पार्टी और सरकार यह मानने को ही तैयार नहीं है कि उसकी कोई गलती है। सरकार नीतिगत फैसले नहीं ले रही इसके लिए विपक्ष जिम्मेदार है। विपक्ष के सहयोग के बाद भी फैसले लटक जाते हैं, इसके लिए सहयोगी दल जिम्मेदार हैं। दोनों से संवादहीनता के लिए कौन जिम्मेदार है? फौरी राजनीतिक लाभ के लिए पार्टी के दीर्घकालिक हित की कुर्बानी देने का ताजा उदाहरण कन्नौज लोकसभा उप चुनाव है। राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस को समाजवादी पार्टी का सहयोग चाहिए इसलिए उप चुनाव में पार्टी अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगी। लगता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस को फिर से खड़ा करने का इरादा छोड़ दिया है। विस्तारित कार्यसमिति की बैठक में राज्यों के नेताओं ने कहा कि सरकार और पार्टी जनता से कट गई है। पार्टी और सरकार के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। सरकार में राजनीतिक प्रबंधन का पूर्णतया अभाव है। ये ऐसी बाते हैं जो डेढ़-दो साल से पूरा देश कह रहा है। क्या पार्टी और सरकार का शीर्ष नेतृत्व इस आलोचना को भी विपक्ष का दुष्प्रचार मान लेगा।


बैठक में कामराज योजना के तरह के कदम की भी मांग उठी। जाहिर है कि पार्टी के जिम्मेदार लोगों को भी विश्वास हो गया है कि दोनों स्तर पर बड़े परिवर्तन के बिना काम नहीं चलेगा। हकीकत को स्वीकार न करने के अलावा भी कांग्रेस की समस्याएं हैं। पार्टी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी एक सच को जितनी जल्दी स्वीकार कर लें उतना अच्छा होगा। सोनिया और राहुल मिलकर भी इंदिरा गांधी नहीं हैं। इंदिरा गांधी ने 1969 से 1972 के बीच बहुत से जनाधार वाले क्षत्रपों को हाशिए पर धकेल दिया था। लेकिन उन्होंने जो अपने क्षत्रप चुने वे भी जनाधार वाले ही थे। सोनिया गांधी और राहुल गांधी को जरूरत जनाधार वाले क्षत्रपों की है। राज्यों के मजबूत नेता केंद्रीय नेतृत्व की ताकत को बढ़ाते हैं। गणेश परिक्रमा करने वाले नेता परिवार की ताकत नहीं गले का पत्थर हैं। पार्टी का पुनर्निर्माण करने के लिए पुराने कांग्रेसियों का तिरस्कार जरूरी नहीं है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी में राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की जोड़ी ने यही किया। दूसरे दलों से आए जनाधारविहीन और जमीन से कट चुके नेताओं की आवभगत में पुराने कांग्रेसियों को अपमानित किया गया। इसका नतीजा सबके सामने है।


सोनिया गांधी ने 1998 में पार्टी की कमान संभालने के बाद कहा था कि उनकी प्राथमिकता उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में पार्टी को मजबूत करने की होगी। चौदह साल में इनमें से दो राज्यों के जनाधार वाले नेता शरद पवार और ममता बनर्जी पार्टी से बाहर हैं और अकेले दम पर कांग्रेस से बेहतर कर रहे हैं। इस सूची में एक नया नाम जुड़ने जा रहा है आंध्र प्रदेश। अब यह आशंका नहीं संभावना है कि अगले विधानसभा चुनाव के बाद सत्तारूढ़ कांग्रेस राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी हो जाएगी और जगनमोहन रेड्डी की पार्टी कांग्रेस से बड़ी पार्टी होगी। उत्तर प्रदेश में रीता बहुगुणा जोशी को इस्तीफा दिए छह महीने होने जा रहे हैं पर कोई नया अध्यक्ष नहीं बना क्योंकि बाबा लोग जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं। नए नेतृत्व के नाम पर गांधी परिवार को नेता पुत्र ही नजर आते हैं। पार्टी की दुर्दशा के बाद भी सोच में कोई बदलाव आया है ऐसा लगता नहीं। उत्तराखंड का उदाहरण सामने है। जनधार वाले हरीश रावत की बजाय पार्टी आलाकमान ने परिवार के प्रति वफादार विजय बहुगणा को चुना। संदेश साफ है कि जनाधार वाले नेताओं का काम चुनाव जिताने या जीतने में मदद करना है। सत्ता का सुख भोगने के लिए हमारे पास दूसरे लोग हैं। कितने दिन चलेगा यह। गांधी परिवार की यह सोच नए शरद पवार, ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी पैदा करेगी। अब यह पार्टी और गांधी परिवार को तय करना है कि उन्हें किरण रेड्डी, पृथ्वीराज च ाण और विजय बहुगुणा चाहिए या पवार और ममता बनर्जी।


लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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