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अब जब संसद एक सशक्त और प्रभावशाली लोकपाल कानून के लिए जनलोकपाल विधेयक पर भी विचार करने के लिए तैयार हो गई है तब यह देखना होगा कि अन्ना हजारे और उनके साथियों द्वारा बनाया गया यह विधेयक संविधान की कसौटी पर कितना खरा उतरता है? अन्ना हजारे के अनशन के साथ शुरू हुए आंदोलन ने यह प्रदर्शित किया है कि भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी जनता अन्ना के साथ है वहीं यह भी सत्य है कि सभी लोग जनलोकपाल विधेयक की बारीकियों को नहीं समझते हैं। क्या वास्तविक मुद्दा विधेयक है या भ्रष्टाचार का निषेध? वैसे भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कानून के साथ साथ प्रशासनिक, चुनावी, राजनीतिक, पुलिस व न्यायिक सुधारों की आवश्यकता पड़ेगी। अन्ना के जन लोकपाल विधेयक को संसद में पेश करने में समस्या क्या है? सरकार प्रक्रिया संबंधी समस्याओं का वास्ता देकर लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकती, पर देखना होगा कि क्या विधेयक में कुछ संवैधानिक कमियां तो नहीं हैं? अन्ना के द्वारा समय सीमा निर्धारित करना और सांसदों के घरों पर धरना देना गांधीजी के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं लगता। गांधी ने स्वतंत्रता जैसे बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी अपने असहयोग आंदोलन (1920) को दस वर्ष के लिए इसलिए स्थगित कर दिया, क्योंकि चौरी-चौरा में कुछ हिंसा हो गई। फिर दस साल बाद 1930 में यह सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में पुन: शुरू हुआ।
भारत में सिविल सोसाइटी द्वारा जनांदोलन के दो उदाहरण हैं। प्रथम गांधी का आंदोलन और द्वितीय जयप्रकाश नारायण का आंदोलन। इन दोनों आंदोलनों में एक समानता थी। उन जन आंदोलनों को एक राजनीतिक आंदोलन में तब्दील किया गया, जिसे राजनीतिक दलों के द्वारा एक दिशा दी गई और उन दोनों का लक्ष्य सत्ता परिवर्तन था। गांधी के आंदोलन से भारत में अंग्रेजों को हटाकर 1947 में राष्ट्रीय सरकार स्थापित हुई और जयप्रकाश के आंदोलन से 1977 में इंदिरा गांधी को हटा कर जनता पार्टी की सरकार बनी, पर अन्ना के नेतृत्व में चल रहे सिविल सोसाइटी के आंदोलन को राजनीतिक चरित्र देने का न तो कोई इरादा है, न ही उसे किसी राजनीतिक दल से जोड़ने की कोई मंशा लगती है। केवल लोकपाल विधेयक को कानून बनवाना ही उसका उद्देश्य है। जनलोकपाल विधेयक के कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिसे उनके वर्तमान स्वरूप में पारित करना गैर संवैधानिक हो सकता है, जैसे यह विधेयक सांसदों के द्वारा सदन में किए गए व्यवहार को भी लोकपाल के अंतर्गत लाने का विचार करता है, जबकि संविधान उन्हें इस संबंध में छूट प्रदान करता है।
संविधान का अनुच्छेद 105 (2) कहता है कि संसद में या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि लोकपाल किसी सांसद के विरुद्ध उसके द्वारा सदन में किए गए आचरण की जांच करता है तो वह अनुच्छेद 105 (2) के विरुद्ध होगा, जिससे न्यायपालिका और संसद में संसदीय विशेषाधिकारों को लेकर टकराव होने की संभावना बनेगी। अत: यदि अन्ना का विधेयक इसी रूप में पारित करना है तो पहले संविधान के अनुच्छेद 105 (2) में संशोधन करना होगा, जो एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें निश्चित रूप से समय लगेगा। इसके अतिरिक्त वर्तमान स्वरूप में अन्ना के जन-लोकपाल विधेयक को पारित करने में उसके संविधान के मूल ढांचे से टकराने की भी संभावना है। सर्वोच्य न्यायालय ने 1973 में संसदीय अधिकारों पर एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा कि संसद किसी भी कानून को पारित करने में और संविधान में कोई भी संशोधन करने के लिए सक्षम है। वह मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है, लेकिन संसद संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती। यद्यपि माननीय न्यायालय ने निश्चित तौर पर नहीं स्पष्ट किया कि संविधान का मूल ढांचा क्या है, पर माननीय न्यायाधीशों ने अलग-अलग मूल ढांचे की सूची देने की कोशिश की। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सीकरी ने संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति पृथक्करण को मूल ढांचा माना वहीं विख्यात विधि विशेषज्ञ नानी ए पालखीवाला ने भी संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य संतुलन को मूल ढांचा माना।
सांसदों के संसदीय मतदान एवं व्यवहार को लोकपाल के दायरे में लाने से यह शक्ति-पृथक्करण एवं शक्ति-संतुलन प्रतिकूल रूप से प्रभावित होगा। संभव है जनलोकपाल कानून इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में निरस्त कर दिया जाए कि वह संविधान के मूल ढांचे के प्रतिकूल है। संभवत: आज ज्यादातर जनप्रतिनिधि इतने गिर गए हैं कि लोगों में उनके प्रति नफरत भर रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम संविधान के गंभीर सिद्धांतों की उपेक्षा कर दें। जल्दीबाजी में बनाए कानून से भ्रष्टाचार दूर करने के प्रयासों को धक्का लग सकता है। अन्ना हमारे देश के लिए अति मूल्यवान है। उन्होंने दिखा दिया है कि आज भी एक अच्छे उद्देश्य के लिए लोगों को एकजुट और एकमत किया जा सकता है, पर अन्ना एक गांधीवादी भी हैं। वह कभी नहीं चाहेंगे कि उन पर लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने का आरोप लगे।
डॉ. अनिल कुमार वर्मा राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक हैं
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