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डाउ प्रायोजित ओलंपिक में क्यों हिस्सा लें

जागरण मेहमान कोना
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Mahesh Parimalलंदन ओलंपिक में अभी साढ़े सात महीने बचे हैं। इस दौरान बहुत कुछ हो सकता है। कई खिलाड़ी अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए इसे बेहतर प्लेटफॉर्म बता रहे हैं तो कई उसके प्रायोजक डाउ केमिकल्स से खफा हैं। साइना नेहवाल ने इसके लिए विशेष तैयारी शुरू कर दी है। पंजाब सरकार ने इसमें विजयी खिलाडि़यों को विशेष रूप से सम्मानित करने की योजना बनाई है। इन सबके बावजूद लंदन ओलंपिक भारत के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण हो जाता है। सबसे बड़ी बात है कि इसमें भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार डाउ केमिकल्स भी एक प्रायोजक है। कई लोगों के विरोध का केवल यही एक कारण है। इसे अगर हम भारत सरकार की ढिलाई के रूप में देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि केंद्र सरकार की ढिलाई के कारण ही इतना बड़ा हादसा भोपाल में हो गया। इतने बड़े हादसे के पेंच हैं, जिन्हें सुलझाना आवश्यक है। आज आवश्यकता इस बात की है कि क्या भारतीय खिलाडि़यों को लंदन ओलंपिक में भाग लेना चाहिए या नहीं। खेलों का आयोजन खिलाडि़यों की प्रतिभा के प्रदर्शन और उसे निखारने के लिए ही किया जाता है। इससे कई देशों के बीच एक सद्भावना का वातावरण भी तैयार होता है। खेल भावना में एक उदात्त भाव होता है। किसी भी खेल को देश की सीमाओं से नहीं बांधा जा सकता।


सर्वजन हिताय की भावना के साथ आयोजित होने वाले खेलों में जिस टीम भावना का प्रस्फुरण होता है, वह अपने आप में लाजवाब है। यह भी सच है कि खेलों को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए, लेकिन जहां मानवीयता की बात आती है, वहां खेल केवल एक खेल बनकर ही रह जाता है। खेल दूरियां घटाता है। पर लंदन ओलंपिक को आज जिस नजरिये से देखा जा रहा है, उसमें मानवीयता तो हार ही रही है, बल्कि एक ऐसी चीज उभरकर आ रही है, जिसे हम नकारापन ही कह सकते हैं। वास्तव में केंद्र सरकार यह मानकर चल रही है कि डाउ केमिकल्स एक विदेशी कंपनी है। इसलिए उसके खिलाफ कुछ नहीं किया जा सकता। यह उसकी लाचारी है। वास्तव में केंद्र सरकार ने भोपाल गैस पीडि़तों के लिए ऐसा कुछ उल्लेखनीय नहीं किया, जिससे गैस पीडि़त राहत महसूस करते। यह सरकार की ही विवशता थी कि लोग खून के आंसू रो रहे थे और सरकार एंडरसन को बचाने में लगी थी। इस कांड को 27 साल हो गए, लेकिन इसकी न्याय प्रक्रिया इतनी धीमी है कि अब गैस पीडि़तों की दूसरी पीढ़ी शुरू हो गई है। पहली पीढ़ी मुआवजा मांग-मांगकर चल बसी। अब जो दूसरी पीढ़ी है, वह अधिक आक्रामक और गंभीर है। वह किसी भी रूप में दोषियों को माफ नहीं करना चाहती। उसे अब देश की न्याय प्रक्रिया पर भी भरोसा नहीं रहा। लोग भले ही न्याय की दुहाई दें, लेकिन जिनके माता-पिता अपनी संतानों के सामने तिल-तिलकर अपनी जान गंवा रहे हों, वे आखिर किस न्याय पर विश्वास करें? उन्होंने अपनों को तिल-तिल कर मरते देखा है। वे आंखें भला किसका विश्वास करेंगी? उन्हें तो ऐसा न्याय चाहिए, जिसमें दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए।


भोपाल गैस पीडि़तों की पीड़ा को केंद्र सरकार ने न तो यूनियन कार्बाइड के सामने ठीक से रखा, न ही डाउ केमिकल्स के सामने। केंद्र की इसी ढिलाई के कारण जब डाउ ने अधिक मुआवजे के लिए स्पष्ट इनकार कर दिया तो सरकार कुछ नहीं कर पाई। वह हौसला दिखाती तो संभव है डाउ केमिकल्स कुछ सोचने के लिए विवश हो जाता। पर ऐसा हो नहीं पाया। डाउ केमिकल्स में तो संवेदना नहीं है, पर क्या हमारी सरकार में गैस पीडि़तों के लिए कुछ संवेदना है? यदि थोड़ी-सी भी संवेदना होती तो संभवत: डाउ केमिकल्स मुआवजे के लिए इतनी कड़ी भाषा का प्रयोग नहीं करता। डाउ की कठोरता भारत सरकार के लिए शर्मनाक है। सरकार की इसी शिथिलता का लाभ बार-बार उठाया जाता रहा है। जब सरकार 27 बरस में नहीं कर पाई, वह अब क्या कर पाएगी? बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। लंदन ओलंपिक में चूंकि डाउ केमिकल्स भी प्रायोजक है तो विरोध स्वरूप यही कहा जा रहा है कि गैस पीडि़तों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए इसमें खिलाडि़यों को भाग नहीं लेना चाहिए। यदि इसमें विदेशी खिलाड़ी भाग न लें तो कुछ सोचा जा सकता है, पर जब हमारे ही देश के खिलाड़ी इसमें भाग लेने के लिए जोर-शोर से तैयारी कर रहे हों तो भला किससे क्या कहा जाए? यहां आकर खिलाड़ी भावना नष्ट हो जाती है। यदि पूरे विश्व के खिलाड़ी इस बात पर अड़ जाएं कि खेल के प्रायोजकों में से डाउ को हटा दिया जाए तो ओलंपिक समिति को भी सोचना पड़ेगा।


विरोध जब समवेत स्वरों में होता है तो अपना असर दिखाता है। इस विरोध में यदि सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए खिलाडि़यों के स्वर में अपना स्वर मिलाए तो हालात बदलते देर नहीं लगेगी। पर सरकार में दृढ़ इच्छा शक्ति का घोर अभाव है। इसलिए ऐसा कुछ नही हो पा रहा है, जिसे उपलब्धि कहा जाए। सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति का परिचय इसी बात से मिल जाता है कि जब भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों को मामूली सजा दी गई तो इसका काफी विरोध हुआ। तब केंद्र सरकार ने लोगों की भावनाओं को समझते हुए यह विश्वास दिलाया था कि वह गैस पीडि़तों को न्याय दिलवाकर रहेगी। पर हुआ क्या? वही ढाक के तीन पात। न तो केंद्र सरकार ने इसके लिए जोर लगाया, न ही इस दिशा में माहौल ही बन पाया। एक बार नहीं, कई मामलों में केंद्र सरकार की शिथिलता सामने आती रही और लोग खामोश होकर देखते रहे। लोगों में भी अब वैसी जुम्बिश बची नहीं कि वे खुलकर विरोध कर सकें। यह सच है कि भोपाल गैस त्रासदी के लिए डाउ केमिकल्स किसी भी तरह से दोषी नहीं है। दोषी यूनियन कार्बाइड को माना जाता है। है भी वही, लेकिन जब उस कंपनी को डाउ ने खरीद लिया तो उसकी जिम्मेदारी भी तो बनती है। पर इसे समझाए कौन? सरकार में वह दम नहीं है। सेवाभावी संस्थाएं आखिर कब तक संघर्ष करें? एक अकेले के दम पर विदेश में बैठी किसी कंपनी का विरोध सरकार को साथ लेकर ही किया जा सकता है। यदि सरकार देश में डाउ केमिकल्स की किसी भी दवा के आयात पर प्रतिबंध लगा दे तो संभव है कि डाउ इस दिशा में कुछ सोचे। पर भारत के बाजारों में प्रवेश करने के लिए डाउ ने किस तरह से हमारे देश के नेताओं-अधिकारियों को उपकृत किया है, यह तो हाल ही में जारी उस बैलेंस शीट से पता चलता है, जिसमें उसने धन से हमारे देश के कर्णधारों को खरीदा है।


डाउ अब जंतुनाशक दवाएं बनाती है। इस कंपनी की बैलेंस शीट के अनुसार, उसने भारत में जो जंतुनाशक दवाएं प्रतिबंधित की थी, उसकी बाजार में बिक्री करने के लिए कंपनी ने भारत के अधिकारियों को 88 लाख रुपये की रिश्वत दी थी। जब यह मामला बाहर आया, तब अमेरिका के सिक्युरिटी एंड एक्सचेंज कमीशन ने डाउ केमिकल्स को 3.25 लाख डॉलर का जुर्माना किया। डाउ कंपनी द्वारा आज भी भारत में ऐसी जंतुनाशक दवाएं बेची जा रही हैं, जो अमेरिका में पूरी तरह से प्रतिबंधित हैं। यह हालत है देश की। उसकी लाचारगी की, जिसमें प्रलोभन है, कामचोरी है, कपटपूर्ण रवैया है। इसमें रहकर आखिर खिलाड़ी किस बात का और किस तरह से विरोध दर्ज करें? वे न जाना चाहें तो न जाएं। भला सरकार को इससे क्या लेना-देना? जिस सरकार ने गैस पीड़तों की सिसकियां नहीं सुनी, जिसके आंसू नहीं देखे, उससे यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह खिलाडि़यों की भावनाओं को समझे? अगर खिलाड़ी चाहें तो वे सभी मिलकर इस सरकार को शिथिलता और निष्कि्रयता के लिए कोई अवार्ड दे दें। तभी शायद सरकार की आंख खुले।


लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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