Menu
blogid : 5736 postid : 5748

ग्लैमर जगत का कॉपीराइट

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

 

Raj Kishoreसंसद ने कॉपीराइट कानून में जो संशोधन किए हैं, वे जरूरी थे। पर उनसे कलाकारों के सिर्फ एक वर्ग का भला होगा। इनमें से ज्यादातर कलाकार वे हैं, जो गीत-संगीत के ग्लैमरयुक्त उद्योग में हैं। उद्योग-व्यापार की क्रूर रवायतें उनके आर्थिक अधिकारों का हनन कर रही थीं और उनकी प्रतिभा तथा अभ्यास का दोहन नाजायज व्यावसायिक हितों के लिए कर रही थीं। कॉपीराइट में संशोधन लागू हो जाने के बाद यह विशाल शोषण रुक जाएगा और जब इन कलाकारों का कंठ काम करने लायक नहीं रह जाएगा या इनकी मांग नहीं रह जाएगी, तब भी उन्हें पेंशन की तरह कुछ राशि मिलती रहेगी। इस उदारता का स्वागत है, लेकिन इस मुद्दे पर हमारे सांसदों की निगाह क्यों नहीं गई कि जहां तक कॉपीराइट और रॉयल्टी का सवाल है, भारत में लेखकों की हालत सबसे ज्यादा दयनीय है और उनके लिए तुरंत कुछ करने की जरूरत है? दुर्भाग्य की बात यह है कि संसद में ऐसे कई राजनीतिक दल हैं, जिनके साथ हिंदी के तथा कई अन्य भाषाओं के लेखक जुड़े हुए हैं। पर इन दलों ने भी लेखकों के आर्थिक हितों के प्रति कोई चिंता व्यक्त नहीं की। यहां तक कि उनके लेखक संगठनों ने भी इस बहस में अपने को शामिल नहीं किया। कायदे से लेखन पैसे के लिए नहीं होना चाहिए। यह एक रचनात्मक कर्म है और इसका अपना आनंद ही इसका पारिश्रमिक है।

 

कॉपीराइट के कानून रचना को व्यावसायिक उत्पाद में बदल देते हैं, जिससे लेखन की स्वतंत्रता में बाधा आ सकती है और साहित्य का एक बाजार भाव भी बन सकता है। इसका उपयुक्त आसंग यह है कि लेखन की तरह उसका प्रकाशन और वितरण भी एक स्वत: आनंददायी और सामाजिक कर्म हो, जिसमें पैसे को हेय दृष्टि से भले ही न देखा जाता हो, पर उसे अतिरिक्त महत्व भी न दिया जाता हो। ऐसे समाज में ही साहित्य अपना स्वाभाविक काम कर सकता है और संस्कृति का स्तर ऊंचा करने में सहायक हो सकता है, लेकिन यह एक आदर्श स्थिति है, जिसकी मांग सभी लेखकों और प्रकाशकों से नहीं की जा सकती। प्रकाशकों से तो खासतौर पर नहीं, क्योंकि प्रकाशन उद्योग और साहित्य प्रेम के बीच अब कोई संबंध नहीं रह गया है। अगर कोई संबंध बचा है तो वह घृणा और तिरस्कार का ही है। लेखक प्रकाशक की शरण में जाने के लिए मजबूर है, क्योंकि उसने जो लिखा है, वह उसे प्रकाशित देखना चाहता है और प्रकाशक को भी लेखक को नमस्ते करना पड़ता है, क्योंकि लेखक लिखेगा नहीं तो प्रकाशक बेचेगा क्या? लुटते लेखक, पैसे बनाते प्रकाशक आज भी ज्यादातर लेखक पैसे के लिए नहीं लिखते, लेकिन यह सच है कि प्रकाशन उद्योग का हिस्सा बन जाने के बाद लेखन पैसा देने लगता है। किताबें बिकती हैं तो प्रकाशक को लाभ होता है। कायदे से इस लाभ का एक हिस्सा लेखक को मिलना चाहिए। इसे ही रॉयल्टी कहा जाता है।

 

लेखक-प्रकाशक संबंध का यह एक मूल आधार है, क्योंकि प्रकाशक के लिए प्रत्येक साहित्यिक कृति महज एक व्यावसायिक उत्पाद होती है। जभी तो वह ऐसी ही कृतियों के प्रकाशन में रुचि लेता है, जिनका बाजार हो। जिन कृतियों का बाजार नहीं है, वे साहित्यिक दृष्टि से चाहे जितनी मूल्यवान हों, पर उनका प्रकाशित हो पाना असंभव बना रहता है। यह नौबत तब नहीं आती जब प्रकाशकों में कुछ साहित्य प्रेम होता और वे घाटा उठाकर भी साहित्य में प्रयोगधर्मिता को प्रोत्साहित करने में सुख पाते। आश्चर्य और दुख की बात यह है कि सिर्फ पैसे की भाषा समझने वाले ये उद्यमी तब अपना कानूनी कर्तव्य तक भूल जाते हैं, जब लेखक को उसका हक देने की बारी आती है। एक-दो प्रकाशकों को छोड़ कर कम से कम हिंदी का प्रकाशन व्यवसाय रॉयल्टी देने के मामले में कृपण ही नहीं, क्रूर भी है। अक्सर लेखकों को न तो उनकी किताबों की बिक्री के वार्षिक आंकड़े मुहैया कराए जाते हैं और न समय पर रॉयल्टी का भुगतान किया जाता है।

 

बेशक कुछ लेखकों के पांव पूजने का रिवाज बन गया है। ये वे लेखक हैं, जिनकी कुछ विशेष कारणों से विशेष स्थिति बन गई है। लेकिन दूसरे लेखकों को रॉयल्टी मिलती भी है तो लगभग भीख के रूप में। सबसे बड़ी समस्या यह जानने की है कि कौन-सी किताब वास्तव में कितनी छपी और कितनी बिकी। कई बार तो किसी किताब के संस्करण पर संस्करण छपते चले जाते हैं और लेखक को पता तक नहीं चलता। कोई भी कल्पना कर सकता है कि सबसे ज्यादा घपला इसी क्षेत्र में होता होगा, जो प्रकाशन व्यवसाय का धूमिल क्षेत्र है। इस मामले में कोई भी लेखक अपने प्रकाशक पर विश्वास नहीं करता, लेकिन वह कर भी क्या सकता है। सचाई तक पहुंचने की कोई भी राह उसके लिए खुली नहीं होती। एक त्रासदी यह भी यह लेखक संगठनों का काम था कि वे लेखकों के आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए उचित कदम उठाते। मजे की बात है कि हिंदी के तीनों प्रमुख लेखक संगठन मानते हैं कि आर्थिक स्थितियां ही सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों की आधारशिला हैं, लेकिन जब लेखकों की आर्थिक स्थितियों पर ध्यान देने की बात आती है तो वे प्रकाशकों के प्रच्छन्न मित्र बन जाते हैं। शायद सबसे बड़ी बाधा यह है कि लेखक संगठनों के पदाधिकारी लेखक ही होते हैं और उन्हें भी अपनी अच्छी-बुरी किताबें प्रकाशित करवानी होती हैं। इसलिए वे प्रकाशकों से मनमुटाव मोल लेना नहीं चाहते।

 

आजकल की मान्यता यह है कि जहां बाजार विफल साबित होता है, वहां सरकार को आगे आना चाहिए। नए कॉपीराइट कानून में कॉपीराइट बोर्ड के गठन का प्रावधान है, जो रॉयल्टी के मामलों की देखरेख करेगा। सरकार को चाहिए कि किताबों की रॉयल्टी का मामला भी इस बोर्ड को सौंप दे। बोर्ड के पास सभी प्रकाशनों से संबंधित आंकड़े और रॉयल्टी के विवरण आने चाहिए। यह सुनिश्चित करना कॉपीराइट बोर्ड का प्रकार्य होना चाहिए कि लेखकों को उनकी उचित रॉयल्टी मिलती है या नहीं। दोषी प्रकाशकों को दंडित करने की व्यवस्था क्या हो सकती है, यह विचारणीय है। पर कॉपीराइट बोर्ड इतना तो कर ही सकता है कि ऐसे प्रकाशकों को प्रतिबंधित सूची में डाल दे तथा इस सूची के सदस्यों को पुस्तकों की तमाम सरकारी और अर्ध-सरकारी खरीद से बाहर रखा जाए। क्या लेखक संगठन या लेखकों के समूह इस तरह का प्रस्ताव लेकर सरकार के पास जाएंगे?

 

राजकिशोर वरिष्ठ पत्रकार हैं

 

हिन्दी ब्लॉग, बेस्ट ब्लॉग, बेहतर ब्लॉग, चर्चित ब्लॉग, ब्लॉग, ब्लॉग लेखन, लेखक ब्लॉग, Hindi blog, best blog, celebrity blog, famous blog, blog writing, popular blogs, blogger, blog sites, make a blog, bestblog sites, creating a blog, google blog, write blog

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh