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भारतीय परंपरा में संतों को उपदेशक माना जाता रहा है, लेकिन जब से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सवाल उठाकर रामलीला मैदान में धरना देने की कोशिश शुरू की, संतों को ही उपदेश दिया जाने लगा है। दिलचस्प बात यह है कि फिलहाल उपदेशक की भूमिका में राजनीति और उसके खेवनहार राजनेता हैं। भ्रष्टाचार और नामी-बेनामी संपत्तियों में आकंठ डूबे नेता अब संतों को राजनीति से दूर रहने का उपदेश भक्तिकालीन कृष्णभक्त कवि कुंभन की तर्ज पर देने लगे हैं- संतों को सीकरी सों क्या काम/आवत जात पनहियां टूटी, बिसरी गयो हरि नाम। जब बाबा रामदेव नहीं माने तो उनकी संपत्ति और आमदनी की जांच कराए जाने की न सिर्फ मांग की जाने लगी, बल्कि उन्हें सबक सिखाने की नीयत से धमकी भी दी जाने लगी है। मजे की बात यह है कि चुनावी दौर में कभी मौलाना बुखारी और कभी चर्च से समर्थन की उम्मीद लगाते रहे राजनेताओं को खास-खास इलाके के धार्मिक समुदाय और संप्रदाय को स्थानीय धर्मगुरुओं से आशीर्वाद लेने से गुरेज नहीं रहा। यह सच है कि बाबा रामदेव के पास 1100 करोड़ रुपये की संपत्ति है। सरकारी डंडे चलने के बाद खुद उन्होंने इसकी घोषणा की है। इसी तरह सत्य साई बाबा की दुनियाभर में करीब चालीस हजार करोड़ की संपत्ति का अनुमान लगाया गया है। तीन साल पहले श्रीश्री रविशंकर की संपत्ति 400 करोड़ रुपये, आसाराम बापू की 350 करोड़ रुपये, माता अमृतानंदमयी की 400 करोड़ रूपये, सुधांशु महाराज की 300 करोड़ रुपये, मोरारी बापू की 150 करोड़ रुपये आंकी गई थी। जिसे माना जा रहा है कि आज के दौर में उनकी कुल संपत्ति इनसे चार गुनी ज्यादा हो चुकी हैं। इसी तरह एक आकलन के मुताबिक, इस देश में करीब दस लाख मंदिर हैं। हर मंदिर की अपनी कुछ न कुछ कमाई जरूर है, लेकिन देश में करीब 100 मंदिर ऐसे हैं, जिनकी पूरी संपत्ति देश के टॉप के पांच सौ रईसों से भी ज्यादा है।
माना जाता है कि तिरूपति का बालाजी मंदिर कमाई के मामले में देश में पहले नंबर पर है। यह भी सच है कि देश में मंदिरों को मिलने वाले दान और चढ़ावे पर कोई टैक्स नहीं लगता। यह भी सच है कि कुछ मंदिरों और धर्मगुरुओं के आश्रम में अनाचार की खबरें भी आई हैं, लेकिन यह भी सच है कि इन मंदिरों से सहायता पाने वालों में राजनेता भी रहे हैं। आज जिस तरह संतों के पैसे और उनकी कमाई पर सवाल उठाया जा रहा है, उसके साथ ही होना तो यह चाहिए था कि इन संतों या मंदिरों से राजनीति को मिलने वाली सहायता पर भी सवाल पूछे जाते और राजनीति के दलदल में फंसे लोगों को भी उजागर किया जाता। संतों और उनके बनाए ट्रस्टों पर सवाल उठाया जा रहा है। उन्हें धर्म के नाम पर मिलने वाली छूटों पर भी सवाल उठाया जा रहा है। आज की राजनीति जिस तरह आह और वाह अमेरिका के चंगुल में फंस चुकी है। अर्थव्यस्था हो या राजनीति, विज्ञान या तकनीकी विकास हो या फिर कूटनीति, हर क्षेत्र की कामयाबी का मानदंड आज की राजनीति ने अमेरिकी आधार पर तैयार कर रखा है। अमेरिका ने अगर पसंद किया तो राज की राजनीति राम को गंगा पार कराने वाले निषादराज गुह की तरह खुद को कृत-कृत्य मानने लगती है। उसे प्रगतिशीलता भी अब चीन और सोवियत संघ में नजर नहीं आती। उसे अमेरिकी प्रगतिशीलता ही पसंद है, लेकिन धार्मिक आस्थाओं और संतों पर हमला करते वक्त अमेरिकी मानदंडों को भूल जाती है। पिछले साल अमेरिकी सीनेट में पेश ग्रेसली रिपोर्ट पर उसका ध्यान ही नहीं जाता। अमेरिकी सीनेटर चुक ग्रेसली ने पिछले साल पेश रिपोर्ट में बताया था कि अमेरिकी सरकार ने अपने यहां के 18 लाख गिरजाघरों को भी आयकर और दूसरे तरह के टैक्सों से मुक्त कर रखा है। इससे ये गिरजाघर अपने पैसे का इस्तेमाल कारपोरेट तरीके से कर रहे हैं। यह सच है कि जिन इलाकों में आर्थिक विकास नहीं हुआ, वहां धार्मिक समूहों को आगे बढ़ने का मौका मिला। पिछले साल ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी ने देश के 568 धार्मिक समूहों के विकास और उनकी सक्रियता वाले इलाकों में बढ़ती गतिविधियों का अध्ययन किया था। इनमें 272 हिंदू समूह, 248 मुस्लिम, 25 ईसाई और 23 सिख एवं जैन समूह थे। इस अध्ययन रिपोर्ट को रिसर्च होराइजन नामक शोध पत्रिका ने प्रकाशित किया है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक इन समूहों की सक्रियता उन्हीं इलाकों में ज्यादा बढ़ी है, जहां शिक्षा और स्वास्थ्य का स्तर बेहद घटिया है। इसके लिए धार्मिक समूहों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, बेशक ठहराया भी जाना चाहिए। क्योंकि वे भोले-भाले नागरिकों को चंद सहूलियतों के लिए अपने धार्मिक समूह की तरफ आकर्षित करते हैं, लेकिन यह सवाल उठाते वक्त हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसका मौका भी हमारी राजनीति ने ही दिया है। आजादी के 64 सालों में भी राजनीति पूरे देश को समुचित शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरी सहूलियतें क्यों नहीं मुहैया करा सकी। इसका जवाब उसे देना ही होगा। आज जिस भ्रष्टाचार के मसले को लेकर ये सारे सवाल उठ रहे हैं, उनकी बड़ी वजह विकास का यह विभेदीकरण ही है। यह सच है कि संतों का चोला धारण किए कई लोगों का मकसद अय्याशी और पैसा कमाना भी है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन संतों के चलने वाले हजारों स्कूलों और अस्पतालों ने सचमुच कितने लोगों का भला किया है। क्या कोलकाता के शिक्षा जगत की कहानी बिना रामकृष्ण मिशन स्कूल, वाराणसी के कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के स्कूल, दिल्ली के मदर स्कूल जैसे विद्यालयों के बिना पूरी हो सकती है। चर्च, मंदिर और गुरुद्वारों के साथ ही दूसरे धार्मिक संप्रदायों के भी ढेरों स्कूल पूरे देश में चल रहे हैं और हजारों विद्यार्थियों को शिक्षा का ज्ञान दे रहे हैं। धार्मिक समूहों की तरफ से चल रहे अस्पताल भी अपने सामाजिक सरोकारों के चलते अपने इलाके के लोगों के प्रिय बने हुए हैं। चर्च या मंदिरों के अस्पतालों की तुलना में आज के उद्योगपतियों के बनाए अस्पतालों और स्कूलों की तरफ रुख करिए तो पता चलेगा कि वे किस तरह लोगों को लूट रहे हैं। अर्जुन सिंह ने डीम्ड विश्वविद्यालयों की सीरीज ही शुरू कर दी। उनमें से ज्यादातर समाज के नवधनाढ्य वर्ग के लोगों के विद्यालय हैं, जिनके लिए शिक्षा दुकान बन गई है। इन दुकानों को देखना हो तो आपको दिल्ली के नजदीक के ही फरीदाबाद और नोएडा के डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरफ रुख करना होगा। उनकी फीस और शिक्षा के स्तर की असलियत पता चल जाएगी। लेकिन कुछ धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं के डीम्ड विश्वविद्यालय फीस और शिक्षा के स्तर पर कथित प्रगतिशील कॉरपोरेट समाज के विश्वविद्यालयों से कितने अलग हैं, यह समाज के वे लोग भी जानते हैं, जो आज धार्मिक संस्थाओं पर सवाल उठा रहे हैं।
कहने का मतलब यह है कि पूर्णता समाज में संभव ही नहीं है। न तो सारे धार्मिक समाज दूध के धुले हैं और न ही राजनीति में सारे लोग गंदे ही हैं। लेकिन कहीं न कहीं इनमें फर्क तो करना ही होगा। भ्रष्टाचार का सवाल इस फर्क को और ज्यादा साफ करने के लिए ही है। चूंकि जिस काला धन की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है और जो काला धन सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में है, उसका ज्यादातर हिस्सा राजनेताओं का ही है। कहीं ये धन बेनामी हैं तो कहीं किसी और के नाम पर हैं। चूंकि आज का भ्रष्टाचार का सवाल उन राजनेताओं को ही कठघरे में खड़ा करता है, जिनकी देश से लूटी गई संपत्तियां विदेशी बैंकों में महफूज है। यह सवाल उन्हें परेशान करता है। धार्मिक नेताओं और उनकी संस्थाओं की जांच बेशक होनी चाहिए। भ्रष्टाचार का सवाल उनके भी खिलाफ है, लेकिन सबसे ज्यादा चुभन राजनीति को ही हो रही है। इसीलिए धार्मिक संस्थाओं की कमाई पर सवाल उठाकर दरअसल राजनीति काले धन के सवाल को पटरी से ही उतारना चाहती है ताकि उसकी चुनरी पर लगी कालिख की तरफ लोगों का ध्यान न जाए। लेकिन ऐसा करते वक्त राजनीति यह भूल जाती है कि तमाम अभावों के बीच जूझता भारतीय लोकतंत्र इतना आगे बढ़ गया है, जिसे पता है कि किसकी चुनरी में कालिख लगी है और कौन बेदाग है।
लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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