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आखिकार काले धन के चोरों पर कार्रवाई शुरू होती दिखाई देने लगी है। देश की जनता के लिए यह खुशी की खबर है, क्योंकि काले चोरों ने घूसखोरी और टैक्स चोरी के सुरक्षा कवच के चलते ही तो जनता की खून पसीने की कमाई को चूना लगाकर देश से बाहर भेजा है। आयकर विभाग जिनेवा में एचएसबीसी बैंक के 782 खातों की जांच कर रहा है। भारतीयों के इन खातों में तीन हजार करोड़ से ज्यादा धन जमा होने की आशंका है। इस बैंक के खाताधारियों में तीन सांसद और मुंबई का एक बड़ा उद्योगपति शामिल है। सांसद हरियाणा, उत्तर-प्रदेश और केरल के हैं। इनमें से एक सांसद के खाते में दो सौ करोड़ और उद्योगपति के खाते में आठ सौ करोड़ रुपये जमा होने का पता चला है। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में दावा किया गया है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नाम से भी स्विस बैंक में खाता है, जिसमें 25 लाख फ्रैंक (फ्रांस मुद्रा) जमा हैं। याचिकाकर्ता ने एक पत्रिका में 20 साल पहले छपी खबर को आरोप का आधार बनाया है। 1991 में छपी इस खबर के अनुसार राजीव गांधी के 13.81 करोड़ रुपये इस बैंक में जमा हैं। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी भी सुर बदलते हुए कह रहे हैं कि मुकदमा दर्ज होता है तो मौजूदा संधि नियमों के तहत हम ऐसे लोगों के नाम सुप्रीम कोर्ट को बता सकते हैं, लेकिन इनका सार्वजनिक खुलासा नहीं कर सकते हैं। हमारे देश में जितने भी गैर कानूनी काम हैं, उन्हें कानूनी जटिलताएं संरक्षण देने का काम करती हैं। काले धन की वापसी की प्रक्रिया भी केंद्र सरकार के स्तर पर ऐसे ही हश्र का शिकार होती रही है।
सरकार इस धन को टैक्स चोरियों का मामला मानते हुए संधियों की ओट में काले धन को गुप्त बने रहने देना चाहती थी, जबकि विदेशी बैंकों में जमा काला धन केवल टैक्स चोरी का धन नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार से अर्जित काली-कमाई भी उसमें शामिल है। इसमें बड़ा हिस्सा राजनेताओं और नौकरशाहों का है। बोफोर्स दलाली, 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों के माध्यम से विदेशी बैंकों में जमा हुए काले धन का भला टैक्स चोरी से क्या वास्ता? यहां सवाल यह भी उठता है कि सांसद कोई ऐसे उद्योगपति नहीं हैं, जिन्हें आयकर से बचने के लिए टैक्स चोरी की समस्या के चलते विदेशी बैंकों में कालाधन जमा करने की मजबूरी का सामना करना पड़े। यह सीधे-सीधे घूसखोरी से जुड़ा आर्थिक अपराध है। इसलिए प्रधानमंत्री और उनके रहनुमा टैक्स चोरी के बहाने काले धन की वापसी की कोशिशों को इसलिए पलीता लगाते रहे हैं, जिससे कि नकाब हटने पर कांग्रेस को फजीहत का सामना न करना पड़े। वरना, स्विट्जरलैंड सरकार न केवल सहयोग के लिए तैयार है, बल्कि वहां की एक संसदीय समिति ने तो इस मामले में दोनों देशों के बीच हुए समझौते को मंजूरी भी दे दी है।
स्विस बैंक एसोसिएशन की तीन साल पहले जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक स्विस बैंकों में कुल जमा भारतीय धन 66 हजार अरब रुपये है। खाता खोलने के लिए शुरुआती राशि ही 50 हजार करोड़ डॉलर होनी जरूरी शर्त है। भारत के बाद काला धन जमा करने वाले देशों में रूस 470, ब्रिटेन 390 व यूक्रेन भी 390 बिलियन डॉलर जमा करके अपने देश की जनता से घात करने वालों की सूची में शामिल हैं। स्विस और जर्मनी के अलावा दुनिया में ऐसे 69 ठिकाने और हैं, जहां काला धन जमा करने की आसान सुविधा हासिल है। भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने एक संकल्प पारित किया है, जिसका मकसद है कि गैरकानूनी तरीके से विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जा सके। इस संकल्प पर भारत समेत 140 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। यही नहीं, 126 देशों ने तो इसे लागू कर काला धन वसूलना भी शुरू कर दिया है। यह संकल्प 2003 में पारित हुआ था, लेकिन भारत सरकार इसे टालती रही है।
आखिरकार 2005 में उसे हस्ताक्षर करने पड़े, लेकिन इसके सत्यापन में अब भी टाल-मटोल हो रही है। स्विट्जरलैंड के कानून के अनुसार कोई भी देश संकल्प को सत्यापित किए बिना विदेशों में जमा धन की वापसी की कार्रवाई नहीं कर पाएगा। हालांकि इसके बावजूद स्विट्जरलैंड सरकार की संसदीय समिति ने इस मामले में भारत सरकार के प्रति उदारता बरतते हुए दोनों देशों के बीच हुए समझौते को मंजूरी दे दी है। इससे जाहिर होता है कि स्विट्जरलैंड सरकार भारत का सहयोग करने को तैयार है, लेकिन भारत सरकार ही कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते पीछे हट रही है। हालांकि दुनिया के तमाम देशों ने काले धन की वापसी का सिलसिला शुरू भी कर दिया है। इसकी पृष्ठभूमि में दुनिया में आई वह आर्थिक मंदी थी, जिसने दुनिया की आर्थिक महाशक्ति माने जाने वाले देश अमेरिका की भी चूलें हिलाकर रख दी थीं। मंदी के काले पक्ष में छिपे इस उज्जवल पक्ष ने ही पश्चिमी देशों को समझाइश दी कि काला धन ही उस आधुनिक पूंजीवाद की देन है, जो विश्वव्यापी आर्थिक संकट का कारण बना। इस सुप्त पड़े मंत्र के जागने के बाद ही आधुनिक पूंजीवाद के स्वर्ग माने जाने वाले देश स्विट्जरलैंड के बुरे दिन शुरू हो गए हैं। नतीजतन पहले जर्मनी ने वित्तीय गोपनीय कानून शिथिल कर काला धन जमा करने वाले खाताधारियों के नाम उजागर करने के लिए स्विट्जरलैंड पर दबाव बनाया और फिर इस मकसद पूर्ति के लिए इटली, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन आगे आए।
अमेरिका की बराक ओबामा सरकार ने स्विट्जरलैंड पर इतना दबाव बनाया कि वहां के यूबीएस बैंक ने कालाधन जमा करने वाले 17 हजार अमेरिकियों की सूची तो दी ही, 78 करोड़ डॉलर काले धन की वापसी भी कर दी। अब तो मुद्रा के नकदीकरण से जूझ रही पूरी दुनिया में बैंकों की गोपनीयता समाप्त करने का वातावरण बनना शुरू हो चुका है। स्विस बैंकों में गोपनीय तरीके से काला धन जमा करने का सिलसिला पिछली दो शताब्दियों से बरकरार है, लेकिन कभी किसी देश ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। आर्थिक मंदी का सामना करने पर पश्चिमी देश चैतन्य हुए और कड़ाई से पेश आए। 2008 में जर्मनी की सरकार ने लिंचेस्टाइन बैंक के उस कर्मचारी हर्व फेल्सियानी को धर दबोचा, जिसके पास टैक्स चोरी करने वाले जमाखोरों की लंबी सूची की सीडी थी। इस सीडी में जर्मनी के अलावा कई देशों के लोगों के खातों का ब्यौरा भी था। लिहाजा, जर्मनी ने उन सभी देशों को सीडी देने का प्रस्ताव रखा, जिनके नागरिकों के सीडी में नाम थे। अमेरिका, ब्रिटेन और इटली ने तत्परता से सीडी की प्रतिलिपी हासिल की और धन वसूलने की कार्रवाई शुरू कर दी। संयोग से फ्रांस सरकार के हाथ भी एक ऐसी ही सीडी लग गई। फ्रेंच अधिकारियों को यह जानकारी उस समय मिली, जब उन्होंने स्विस सरकार की हिदायत पर हर्व फेल्सियानी के घर छापा मारा।
दरअसल, फेल्सियानी एचएसबीसी बैंक का कर्मचारी था और उसने काले धन के खाताधारियों की सीडी बैंक से चुराई थी। फ्रांस ने उदारता बरतते हुए अमेरिका, इंग्लैंड, स्पेन और इटली के साथ खाताधारकों की जानकारी बांटकर सहयोग किया। दूसरी तरफ ऑर्गनाइजेशन फॉर इकॉनोमिक कॉरपोरेशन एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ने स्विट्जरलैंड समेत उन 40 देशों के बीच टैक्स सूचना आदान-प्रदान संबंधी पांच सौ से अधिक संधियां हुई। शुरुआती दौर में स्विट्जरलैंड और लिंचेस्टाइन जैसे देशों ने आनाकानी की, लेकिन आखिरकार अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए। अन्य देशों ने भी ऐसी संधियों का अनुसरण किया, लेकिन भारत ने अभी तक एक भी देश से संधि नहीं की है। हालांकि प्रणब मुखर्जी अब संकेत दे रहे हैं कि 65 देशों से सरकार बात करने का मन बना रही है।
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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