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हमारे मुल्क में जब भी भ्रष्टाचार को लेकर बात होती है तो सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार उन योजनाओं में पाया जाता है, जो खासतौर पर गरीबों के लिए ही बनी हुई हैं। गोया कि शासन की मुख्तलिफ कल्याणकारी योजनाओं का फायदा उठाने के लिए भी इन निर्धन तबकों को सरकारी अफसरों-बाबुओं को रिश्वत देना पड़ती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस जो कि गरीबों की जीवनरेखा है, वह भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है। इसकी सेवा पाने के लिए भी उन्हें अफसर-बाबुओं की जेब गर्म करनी पड़ती है। तब जाकर इसका फायदा उन्हें मिल पाता है। राशनकार्ड बनवाने से लेकर कार्ड में नए नाम शामिल कराने जैसे छोटे-छोटे कामों के लिए उन्हें पांच रुपये से लेकर 800 रुपये तक की रिश्वत देनी पड़ती है। कई मामलों में तो उन्हें बिना लिए-दिए अपना राशनकार्ड तक नहीं मिलता।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार और रिश्वत की लूट आहिस्ता-आहिस्ता कितनी बढ़ गई है, इस बात का खुलासा हाल ही में आए एक सर्वेक्षण से हुआ। इस सर्वेक्षण के मुताबिक मुल्क के दूर-दराज गांवों में रहने वाले गरीबों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़ी सेवाओं के लिए बीते साल डेढ़ अरब रुपये से ज्यादा की रिश्वत देनी पड़ी। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण में कई हैरतअंगेज तथ्य सामने निकलकर आए। मसलन, पीडीएस सेवाओं के लिए सबसे ज्यादा रिश्वत, उन राज्यों के गरीबों को देना पड़ती है, जो सबसे ज्यादा गरीब हैं। यानी भ्रष्टाचार की मार सबसे ज्यादा वहीं पड़ रही है, जहां राहत की जरूरत है। सर्वेक्षण में 12 राज्यों के दो हजार गांवों के 614 परिवारों को शामिल किया गया। तकरीबन 42 फीसदी ग्रामीण मानते हैं कि बीते एक साल में इन सेवाओं में भ्रष्टाचार कम होने की बजाय और बढ़ा है।
बिहार में 62 फीसदी और छत्तीसगढ़ व उत्तर प्रदेश में 50 फीसदी ग्रामीण परिवारों का कहना है कि पीडीएस सेवाओं में भ्रष्टाचार बढ़ा है। रिश्वत की बात करें तो पीडीएस सेवाओं के लिए सबसे ज्यादा रिश्वत आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ के लोगों को देना पड़ी। यहां 60 फीसदी लोगों ने सस्ता राशन पाने की आस में सरकारी बाबुओं की जेब गर्म की। वहीं नीतीश कुमार के बिहार में जहां बीपीएल की सूची मुल्क में सबसे ज्यादा दोषपूर्ण है, वहां कोई 43 फीसदी लोगों ने राशनकार्ड बनवाने के लिए रिश्वत दी। कमोबेश ऐसी ही कहानी तीन दशक तक सत्ता में रहे वाम मोर्चा शासित पश्चिम बंगाल की है। वहां भी 43 फीसदी ग्रामीण मानते हैं कि पीडीएस में रिश्वत आम है और बिना इसके उनका काम नहीं होता। महाराष्ट्र, जो इन राज्यों में अपेक्षाकृत विकसित है, वहां भी 25.2 फीसदी लोगों को पीडीएस सेवाओं के लिए रिश्वत देनी पड़ी। सबसे ज्यादा रिश्वत नए राशनकार्ड बनवाने के लिए देनी पड़ी। करीब 37 फीसदी लोगों का कहना था कि राशनकार्ड बनवाने के लिए उन्हें पैसा देना पड़ा, जबकि 28 फीसदी लोगों ने तो राशनकार्ड लेने तक के लिए रिश्वत दी। जो लोग रिश्वत देने में सक्षम नहीं थे, वे आज भी बीपीएल सूची में अपना नाम जुड़वाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
कई राज्यों में तो पूरा का पूरा समुदाय इस सूची से गायब है। बदलते भारत में सामाजिक सुरक्षा नामक एक दीगर रिपोर्ट कहती है कि बिहार में 59 फीसदी लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली के फायदे से वंचित हैं। यहां ग्रामीण इलाकों में महज तीन फीसदी और शहरों में दो फीसदी गरीब परिवारों तक इस कार्यक्रम के तहत अनाज पहुंच पाता है। मायावती के उत्तर प्रदेश में भी हालात इससे जुदा नहीं। हाल ही में वहां कुछ जिलों में हुई जांच के बाद सीबीआइ ने पाया कि पीडीएस में हो रही अनियमितताओं में अफसर-बाबुओं, राशन डीलरों के साथ-साथ स्थानीय नेताओं की भी मिलीभगत है। कुल मिलाकर सेंटर फार मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट में जिस तरह से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार का सच सामने निकलकर आया है, उसने एक बार फिर हमारी सरकारों और नौकरशाही की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा दिया है। पीडीएस को लेकर कोई भी सरकार हो, उसका रवैया जिम्मेदारी भरा नहीं है। फर्जी राशनकार्डो का भंडाफोड़ होने से लेकर खाद्यान्नों को खुले बाजार में बेच देने जैसे भ्रष्टाचार के बहुस्तरीय मामलों का कई बार खुलासा हो चुका है, लेकिन सरकार पीडीएस के भ्रष्टाचार पर बिल्कुल भी संजीदा नहीं है। सरकार का लगातार उदासीन रवैया देखकर तो यही लगता है कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की बजाय उसे खत्म कर देना चाहती है।
लेखक जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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