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भ्रष्टाचारियों से बेजा हमदर्दी

जागरण मेहमान कोना
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Pradeep Singhदेश के कानून मंत्री को न्यायाधीशों से शिकायत है कि वे राजनीतिक अर्थव्यवस्था की समसामयिक परिस्थितियों को समझ नहीं रहे हैं। सलमान खुर्शीद का कहना है कि अगर उद्योगपतियों को जेल भेजा जाएगा तो देश में निवेश कैसे आएगा? उनकी पार्टी ने भी उनका समर्थन किया है कि कानून मंत्री जो कह रहे हैं उसको संपूर्णता में देखने की जरूरत है। सलमान खुर्शीद के कहे से उनकी पार्टी भले ही सहमत हो, पर जिनकी पैरवी वे कर रहे हैं वही उनसे असहमत हैं। कानून मंत्री के इस बयान के तीन-चार दिन बाद ही देश के चौदह उद्योगपतियों और प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि कुछ उद्योगपतियों, नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ से चल रहे भ्रष्टाचार के कारण लोग त्रस्त हैं। इससे दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं कि सलमान खुर्शीद और उनकी पार्टी का हाथ न तो जनता की नब्ज पर है और न ही उद्योगपतियों की, पर सवाल है कि इस मसले पर प्रधानमंत्री क्यों चुप हैं? क्या वे अपनी पार्टी और कानून मंत्री की राय से सहमत हैं?


सलमान खुर्शीद का इशारा टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गिरफ्तार लोगों की तरफ है। उनकी बात अपने आप में विरोधाभासी है। एक तरफ उनकी सरकार भाजपा पर हमला करते समय इस बात का श्रेय लेती है कि हम भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं और दूसरी ओर जिस सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता की वजह से घोटाले के आरोपी जेल में हैं उसी पर देश का विकास रोकने का परोक्ष रूप से आरोप लगाती है। सलमान साहब कानूनविद् हैं और देश के कानून मंत्री भी। उन्होंने जो कहा उसका हो सकता है कि कोई गूढ़ कानूनी अर्थ हो जो हमारे जैसे सामान्य लोगों की समझ में न आ रहा हो। हमें जो समझ में आ रहा है उसका मतलब तो यही है कि देश के कानून मंत्री चाहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने वाले उद्योगपतियों, व्यापारियों और उनके अफसरों के खिलाफ नरमी बरते। जो कानून देश की बाकी जनता पर लागू होता है वह उन पर लागू न किया जाए। इसे आगे बढ़ाएं तो हमारी सरकार कह रही है कि कानून भले ही सबके लिए एक हो, पर इसका मतलब यह नहीं है कि कानून की नजर में सब एक हों।


कानून मंत्री के कथन का दूसरा अर्थ यह है कि भ्रष्टाचारी उद्योगपतियों-व्यापारियों को जेल भेजने से देश में निवेश रुक जाएगा। इसका तो यही मतलब हुआ कि अगर आप चाहते हैं कि देश में निवेश हो तो भ्रष्टाचार की ओर से आंखें मूंदे रहें। उनके कथन में अंतर्निहित है कि जब सरकार इस ओर आंख मूंद सकती है तो न्यायपालिका क्यों नहीं? क्योंकि जो पैसा लगाता है वह भ्रष्टाचार नहीं करेगा तो क्या करेगा? खुर्शीद साहब का शायद मानना है कि निवेश करने वाले को भ्रष्टाचार करने का अधिकार है। वे कह रहे हैं कि दुनियादारी की इतनी सामान्य सी बात सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों को समझ में नहीं आ रही है। उद्योगपतियों का एक समूह है जो देश में बढ़ते भ्रष्टाचार और नेता-उद्योगपति और नौकरशाह के गठजोड़ से चिंतित है। जाहिर है कि हमारे कानून मंत्री उद्योगपतियों के इस वर्ग के साथ नहीं हैं। दुनिया के वे पहले कानून मंत्री होंगे जो भ्रष्ट लोगों के जेल जाने से चिंतित हैं। अब अगर आप सलमान खुर्शीद साहब के समर्थक हैं तो उनके पक्ष में एक बात कह सकते हैं। यह कि वे भ्रष्टाचारियों के पक्ष में नहीं है। वे तो सिर्फ वित्तीय अपराध के मामलों में जमानत के मसले पर अदालत से नरमी के रुख की अपेक्षा करते हैं। इस तरह की बात मशहूर वकील हरीश साल्वे सहित कई और कानूनविद् भी कह रहे हैं। अगर यही बात है तो उनकी सरकार को कानून में संशोधन करने से कौन रोक रहा है। पर यह चिंता उद्योगपतियों के जेल जाने पर ही क्यों?


दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जहां भ्रष्टाचार न हो। जापान में प्रधानमंत्री तक भ्रष्टाचार में फंसे हैं और जेल गए हैं। अमेरिका में एनरॉन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी भ्रष्टाचार के कारण ही खत्म हो गई। किसी ने नहीं कहा कि एनरॉन खत्म हुई तो अमेरिका में निवेश कौन करेगा। दिसंबर 2010 में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जगदीश भगवती संसद के सेंट्रल हाल में हीरेन मुखर्जी मेमोरियल व्याख्यान देने आए थे। भ्रष्टाचार की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि बहुत से देशों में टू जी स्पेक्ट्रम के स्तर के भ्रष्टाचार के मामले होंगे, पर दूसरे देशों और भारत में एक फर्क है। अमेरिका में अगर कोई पकड़ लिया गया तो उसे भगवान भी नहीं बचा सकते। सैकड़ों हिंदू देवी-देवता भी नहीं। क्या हम भारत में ऐसी अपेक्षा कर सकते हैं? अन्ना हजारे के समर्थन में जो लोग एकजुट होकर खड़े हो गए वे भी जानते हैं कि इस आंदोलन से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो जाएगा। जनलोकपाल बिल की बात हो या दूसरे कानूनों में बदलाव की, सबकी मंशा यही है कि भ्रष्टाचारी पकड़ा जाए और जो पकड़ा जाए वह बचने न पाए। ऐसे में जब कानून मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार लोगों के प्रति अपनी सहानुभूति दिखाते हैं तो लोगों को शक होता है कि सरकार भ्रष्टाचारियों से लड़ रही है या उसका विरोध करने वालों से?


यह सीधी सी बात कांग्रेस और देश के सबसे ईमानदार राजनेता-प्रधानमंत्री को क्यों समझ में नहीं आ रही? अन्ना हजारे को भ्रष्ट बताने और उनके साथियों में खोट निकालने, उन्हें संघ और भाजपा का मुखौटा बताकर सरकार लोगों का ध्यान असली मुद्दे से हटाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस पार्टी और उसके नेता इतिहास से कोई सबक नहीं लेना चाहते। 1974 में जेपी जब भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हुए तो उन्हें फासीवादी ताकतों का समर्थक बताया गया और कहा गया कि प्रधानमंत्री न बन पाने की उनकी कसक गई नहीं है। 1986-87 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स का मुद्दा उठाया तो दहिया ट्रस्ट से लेकर उनकी मानसिक हालत तक पर कांग्रेस के लोगों ने सवाल उठाए। अन्ना हजारे और उनकी टीम कांग्रेस का नया शिकार हैं। वही कहानी दोहराई जा रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा न होते हुए भी जेपी गैर राजनीतिक नहीं थे और विकल्प के तौर पर पूरा विपक्ष उनके साथ खड़ा था। वीपी सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बावजूद दक्षिण और वापपंथी राजनीतिक ताकतें उनके साथ थीं। अन्ना हजारे की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। पर विपक्ष न तो एकजुट है और न उनके साथ खड़ा है।


लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


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