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आईने में खोट ढूंढ़ती सरकार

जागरण मेहमान कोना
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भ्रष्टाचार के आरोपों से बौखलाई संप्रग सरकार का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के ढांचे में बदलाव का संकेत इस बात का प्रमाण है कि सरकार अपनी कमियां छिपाने के लिए आईने में ही खोट ढूंढ रही है। हालांकि सरकार खुलकर कहने से हिचक रही है कि वह कैग के ढांचे में बदलाव चाहती है, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायण सामी के बयान से यह साफ हो गया है कि सरकार कैग को बहुसदस्यीय बनाने की योजना बना रही है। हालांकि सरकार ने ऐसी किसी भी योजना से बाद में इन्कार कर दिया, लेकिन संदेह के बादल छंटे नहीं हैं। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने भी यह कहकर इस संभावना को बल ही दिया है कि चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने से उसकी कार्यप्रणाली में सुधार आया है। शुंगलू समिति की रिपोर्ट में भी इसे तीन सदस्यीय बनाने की सिफारिश की गई है, जिसे आधार बनाकर सरकार कैग को बहुसदस्यीय बनाने पर विचार कर रही है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार इस समिति की अन्य महत्वपूर्ण सिफारिशों पर अमल करने की चर्चा तक से बच रही है।


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अब मौजूं सवाल यह है कि क्या सरकार शंुगलू समिति की रिपोर्ट की आड़ में कैग को बहुसदस्यीय बनाने का जोखिम उठाएगी? क्या कैग जैसी संवैधानिक संस्था के ढांचे में बदलाव का अधिकार सरकार को है? अगर हां, तो क्या सभी राजनीतिक दल इसके लिए राजी होंगे? राजनीतिक बिरादरी का इसमें सरकार का साथ देना असंभव लगता है। विपक्ष के पास तो आखिर इस मुद्दे पर सरकार को घेरने का मौका है। जरूरी ही क्यों है बदलाव समझना कठिन है कि जब कैग की कार्यप्रणाली में किसी प्रकार का दोष ही नहीं है और यह संस्था पूरी पारदर्शिता के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रही है तो उसे बहुसदस्यीय बनाकर कर सरकार क्या हासिल करना चाहती है। क्या यह माना जाए कि वह घपले-घोटाले से खराब अपनी छवि के लिए कैग को जिम्मेदार मान रही है? कहा यह भी जा रहा है कि सरकार 22 नवंबर से शुरू होने जा रहे शीतकालीन सत्र में अपने बचाव के लिए कैग की भूमिका को कठघरे में खड़ा करने वाली है। इस पर विपक्ष के विरोध और कुछ सहयोगी दलों के एफडीआइ पर विरोध के बीच सरकार ने कैग के पर कतरने की तैयारी शुरू कर दी है। कैग के अधिकारों को सीमित करने या उसे बहुसदस्यीय बनाकर उसकी धार को कुंद करने में सरकार को सफलता नहीं मिलने वाली है। कैग एक संवैधानिक संस्था है। संविधान के अनुच्छेद 148 में स्पष्ट उल्लेख है कि देश का एक नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक होगा। जहां तक कैग की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाने का सवाल है तो यह स्थिति तब बनती जब कैग अपने उत्तरदायित्वों का उचित निर्वहन न कर रहा होता। कैग अनुच्छेद 149 में उल्लिखित अपने दायित्वों एवं शक्तियों को बखूबी निभा रहा है और हाल में शक्तिशाली बनकर उभरा है। कैग का दुष्प्रचार अनुचित कैग के खाते में भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने का शानदार रिकॉर्ड है। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कॉमनवेल्थ गेम्स, कोयला खदानों का आवंटन और रक्षा सौदों में हुई अनियमितता को वह देश के सामने लाने में सफल रहा है।


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ऐसे में उसकी कार्यपद्धति और पारदर्शिता पर शक करना और उस पर उंगली उठाना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। अब सरकार कैग विनोद राय पर ही आरोप लगा रही है कि वह अपनी हदें पार कर रहे हैं। सरकार का यह दुष्प्रचार करना कि कैग सरकारी नीतियों में अनावश्यक रूप से दखल देकर देश को गुमराह कर रहा है, उचित नहीं है। कैग ने कभी यह नहीं कहा कि सरकार ने घोटाला किया है। उसने सिर्फ यही तथ्य पेश किया है कि अगर नीतियों में पारदर्शिता रही होती तो देश को करोड़ों के राजस्व का नुकसान नहीं उठाना पड़ता। आखिर इसमें गलत क्या है? कैग का काम ही केंद्र और राज्य सरकार के खातों और राजस्व से होने वाले खर्च का ऑडिट करना है। अगर उसमें गड़बड़ी होती है तो नि:संदेह रिपोर्ट में उसका जिक्र होगा ही। अगर इससे सरकार की छवि धूमिल होती है तो उसके लिए कैग नहीं दोषी नहीं ठहराया जा सकता। कैग संसद के प्रति जवाबदेह है। संसद की स्थायी समिति उसकी रिपोर्ट की समीक्षा करती है, पर विडंबना यह है कि कैग की रिपोर्ट को सत्ता पक्ष अपने खिलाफ साजिश बता रहा है। यह उचित नहीं है। चिंताजनक बात यह है कि पिछले एक अरसे से संप्रग सरकार के मंत्री और कांग्रेस के रणनीतिकार लगातार कैग की रिपोर्ट को गलत, आधारहीन और त्रुटिपूर्ण बताकर उसका मानमर्दन कर रहे हैं। उसे अपनी हद में रहने की नसीहत दे रहे हैं। पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो यहां तक कह डाला कि कैग आंकडों को बढ़ा चढ़ाकर सनसनी पैदा कर रहा है। उन्होंने कैग प्रमुख विनोद राय पर आरोप लगाया कि वह पूर्व प्रमुख टीएन चतुर्वेदी की तरह अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ दिनों पहले ही वह सीख दे रहे थे कि कैग पहले अपना घर ठीक करें। सवालों के घेरे में सरकार सरकार के खोट सामने लाने वाली संस्था में उन्हें कौनसे खोट दिखाई दे रहे हैं? यह आचरण किस तरह संविधान सम्मत है? 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल जीरो लॉस का सिद्धांत देते हैं, जबकि ए राजा को जेल जाना पड़ा। राष्ट्रमंडल खेलों में भी सरकार घोटाले से इन्कार करती रही, लेकिन सुरेश कलमाड़ी को वह जेल जाने से नहीं बचा पाई।


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कोयला खदान आवंटन घोटाले में सरकार का दावा कर रही है कि कोई अनियमितता नहीं हुई है। वह यह बताने को तैयार नहीं कि जब कोई अनियमितता ही नहीं हुई तो फिर आवंटित खदानों को निरस्त क्यों किया जा रहा है? अब सवाल यह कि जब कैग की रिपोर्ट सच साबित हो रही है तो केंद्र सरकार किस आधार पर उसके अधिकारों पर कैंची चलाने के लिए व्यायाम कर रही है। सच तो यह है कि संवैधानिक संस्था कैग पर सरकार और कांग्रेस का हमला उसके फासीवादी नजरिए को ही पुष्ट करता है। ऐसे में सरकार की नीयत पर लोगों को संदेह होना वाजिब है। पिछले दिनों सरकार की भूमिका पर सवाल खड़ा करते हुए उच्चतम न्यायालय ने भी टिप्पणी की थी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) मुनीम नहीं जो सिर्फ बही खातों का हिसाब-किताब देखे। न्यायालय ने यह भी कहा कि कैग एक संवैधानिक संस्था है और उसे आवंटित धन के खर्च की जांच करने का पूरा अधिकार है। सिर्फ संसद या विधानसभाएं ही उसकी रिपोर्ट को मंजूर या खारिज कर सकती हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि केंद्र सरकार इसे समझने को तैयार ही नहीं है। हैरानी की बात यह है कि जब देश में भ्रष्टाचार चरम पर है, सिविल सोसायटी आंदोलनरत है, जनलोकपाल की मांग के अलावा सीबीआइ को सरकार की कैद से मुक्ति की राष्ट्रव्यापी मांग जोर पकड़ रही है, ऐसे में संप्रग सरकार कैग को बहुसदस्यीय बनाने का संकेत देकर क्या साबित करने की कोशिश कर रही है। उसे समझना होगा कि उसकी छवि संवैधानिक संस्थाओं के मानमर्दन से सुधरने वाली नहीं है। उसे सच को स्वीकार करना सीखना होगा।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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